छात्र सफर
छात्र सफर
मत पूछो कितने सीधे हैं हम, कल के सारे दुखो का रस पिए है हम
और ये मुस्कान अनायास ही मेरे चेहरे पर दिखती है
सच तो है की सारी खुशी खो चुके है हम
कभी गलियों में भटकते, कभी छत पर बैठे कूछ सवाल घूम कर आते है
क्या करोगे, क्या बनोगे, क्या पाओगे, यही वो सवाल हैं
उम्र की रफ्तार बढ़ती जा रही, गायब होते सब बाल है
ना गरीबो की तरह भीख मांग सकते है, ना अमीरो की तरह सुख पा सकते है
ना दिल खोलकर हस सकते हैं, ना ही हम रो सकते है,
घर से बाहर, अपनो से दूर, चाहतो से परे, दुनिया से हटकर कूछ पाने आये है
हम अकेले हैं घर में, सबसे बड़े हैं घर में, माँ बाप की चाहतो को सवारने आये हैं
कभी जो हम त्योहार बिताकर घर से वापस आते हैं,
वो राशन की पोटरी, को कन्धे पर उठा लाते है
800 के स्लिपर का सुख छोरकर, हरदम जनरल में घुस आते हैं
कभी जो जगह मिल गई तो फर्श पर लेट जाते हैं
नही उसी राशन के पोटरी पर बैठ पुरा सफर बिता जाते हैं
जैसे तैसे पसीना पोछते, राशन सर पर उठाये, जब कमरे पर पहुचते है
कूछ सवाल आते हैं, जब मित्र मंडली में हम बैठते है
जवाब में हां/नही या कोई दलील नही होता
बुरा लगता पर सवाल अश्लील नही होता
हार जाता हू मित्रो का मुकदमा, मेरे पास मनन के सिवा कोई वकिल नही होता
सवाल सुनियेगा
फिर से तुम स्लिपर का पैसा बचा लाये हो,
जगह मिल गई जनरल में, या खड़े हो कर आये हो,
और बाथरुम के बगल में बैठ कर, टीसी से बचते बचाते ही आये हो न
त्योहार का महीना है, भीड़ रही होगी, धक्का मुक्की खाते आये हो न
सच बोलना ऐसे ही सफर कर के आये हो न, ऐसे ही सफर कर के आये हो न।
