बूँद
बूँद


आज जब मैं फिर गिरा हूँ
और उठने की फिर एक बार कोई वजह ना थी
मेरे मायूसी के बने घर में, दस्तक बूँदों की थी
छोटी सी थी पर मानो सब जानती थी
ऐसा लगा जैसे इस घर के हर हिस्से को पहचानती थी
घर में घुसते ही
रूहानियत भरी नज़रों से बोली, गिरने से डरते हो,
इसीलिए सहमे और थोड़ा धीरे चलते हो
मैंने दुखी मन से उसकी हाँ में हाँ मिलायी
मेरी हाँ सुनते ही बड़ी मासूमियत से फिर बोली
तो आखिर गिरने से इतना क्यों डरते हो,
गिरे हुए का क्यों अपमान करते हो
मुझे देखो मेरा तो अस्तित्व ही गिरने में है,
मैं इतना लम्बा सफर तय करके सिर्फ
गिरने के लिए ही तो आती हूँ
पर क्या मैं गिर के नाकारा कहलाती हूँ
मैं तो वो हूँ जो गिर के हर बार एक नया
जीवन लाती हूँ
मैं गिर के तुम्हें और इस धरती की हर
एक चीज़ को बनाती हूँ
मुझे मेरे गिरने पर ग़ुरूर हैं और मैं चाहती हूँ
तुम भी गिरने पर अपने घमंड करो
और जब फिर उठो
तो मुझसे ही बने मेरे बादलों की तरह इस
जहान में सबसे ऊपर दिखो