बुलबुले
बुलबुले
बद्तमीज़ बुड़बुड़ाते बुलबुले
बर्दाश्त के बाहर हो गए थे
दरवाज़े पे खट खट का इंतज़ार था
आने वाले को घड़ी की सुई से बैर था
बद्तमीज़ बुड़बुड़ाते बुलबुले शोर मचाने लगे थे
उछल उछल के उँगलियों को जला रहे थे
आँच धीमी हो जाती तो उम्मीद ठंडी पड़ जाती
फिर कुंडी खट खटाई तो आँख मुस्कुराई
जल्दी से पानी में चायपत्ती मिलाई
अदरक और इलाइची से मिल के के वह ज़ोर से चिल्लाई
बद्तमीज़ बुड़बुड़ाते बुलबुले शांत हो गए
घड़ी से अब कोई सरोकार नहीं था
सफ़ेद रंग की प्याली मैं चाय का रंग और गहरा था
छोटी चुस्कियों में तेरी कहानी का हर शब्द सुनहरा था।
