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Subhankar Wats

Abstract

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Subhankar Wats

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भाषा

भाषा

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हताश होकर मैं भाषा के पास लौटता हूँ

भाषा मुझे सड़क पर 

अपदस्थ धूल की तरह पड़ी हुई मिलती है 

जिसे सत्ता के बूट उड़ाते झाड़ते और धुंयें में मिलाते चले जाते हैं


भाषा की देह पर हर हाल में खून के छीटें और मानवता की चीखें दर्ज हैं 


मैं भाषा से उसकी नागरिकता पूछता हूँ तो 

प्रसार की उसकी अदम्य महत्वाकांक्षा हाँफती हुई मिलती है 

हर वह आदमी,जिसकी आवाज में खो जाने की व्याकुलता है, 

मैं उससे भाषा का पता पूछता हूँ 


भाषा,

21वीं सदी के एक बुज़ुर्ग देश को 

सभ्यता की ज़ालिम कहानी सुना रही है 

जिसमें झूठ के सत्ता-प्रवचन से आक्रांत समाज 

चीखते चीखते सुन्न हो गया है 


ऐसी कहानी की बुनियाद ढूंढ़ते मैं कितनी भी दूर निकल जाऊँ

सारे आर्काइव्स, सारे कथाजाल और 

सारी कही सुनी बातों की छानबीन में चलता चला जाऊँ 

एक एक आदमी को पकड़कर झकझोरने लगूँ कि तुम्हें क्या हो गया है

 

लेकिन, हर हाल में मुझे कमज़ोरों के बगलगीर संगीनों के धुंयें पीने पड़ते हैं


क्या कोई बता सकता है कि,

भाषा का बलात्कार कर यह सत्ता तमाम

अदालतों से क्यों बरी होती चली जाती है ? 


अस्मिताओं के सौ पुर्जे ढीले कर उन्हें 

कबाड़ की टूटी तराजू पर तौलती हुई यह सत्ता क्यों सफल व्यापारी की तरह ठहाके लगा रही है ? 

मनुष्य की दोनों आँखों से बहते कीचड़ में 

धूल और नमक का हिसाब माँगने वाली यह सत्ता क्यों लेजिटिमाइज है ? 


क्या कोई बता सकता है कि, 

सारे कारोबार जस के तस चल रहे हैं 

जबकि जामिया, इलाहाबाद, कानपुर, लखनऊ, मेरठ में

कुछ गोलियों के कारतूस अभी किसी झाड़ी में छिपे पड़े हैं, क्यों ? 


ये हत्यायें, गिरफ्तारियां, 

सबकुछ ठीक कर देने की तमाम कारगुजारियां और 

वेतनभोगी चूहों के बिलों में कोई अशांति तक नहीं ? 

पूस की सर्दी में

साग भात की रूमानी रबड़ी में लिपटा हुआ बौद्धिक जगत

 इतना यंत्रवत, क्यों ? 


हर वह शख्स जिसपर अभी गोली नहीं दागी गई है, वह

यथास्थिति के मकड़जाल में एक घुघ्घू की तरह पेट सहला रहा है, क्यों ? 

मैं कुछ लिख रहा हूँ, क्यों शब्दों के दाँत मुझे चुभ रहे हैं 

एक मिनट के किसी सरपट दौड़ में जब मैं सौ सालों की

इतिहास-दौड़ लगा चुका होता हूँ तो भाषा को झकझोरकर पूछता हूँ :

कि तुम बताओ, तुम्हारे पास ऐसा क्या है, जो आखिरी मनुष्य को जीने की आस्था दे सके 


क्यों तुमने पूंजी को और पूंजी ने सत्ता को इतना बल दे दिया कि

जिसकी भयावहता से भागकर हम आदिम होना चाहें 

क्यों तुमने इस तरह का प्रपंच रचा कि मुद्दों की तिज़ारत में मनुष्य पिसता रहे

मनुष्यों ने मनुष्यों को मारने के लिए तुम्हारा सहारा लिया

और तुमने लाशों के मसनद पर अट्ठाहास करना सीखा, क्यों ? 


मिनटों और घण्टों के सामंजस्य पर महीन बातें निकाल

लेने वाले रचनाकारों के पास मनुष्य नहीं है, सिर्फ तुम हो 

जन्मदिवसों की झाँकी सजाने वाला यह समाज, 

रचनाकारों के अश्लील जुटान पर लहालोट होता है,

उसके पास कुछ मुद्रायें हैं मनुष्य कम है, ज्यादा तुम हो 


सत्ता के पीछे भाग रहे शब्द और 

ध्वनियाँ आड़ोलित हो रही हैं इस भागमभाग की स्तुति में,

बजती घण्टियाँ और मंदिरों की सीढ़ियों पर पड़ा कोढ़ी ज्यों, शब्द

कब तक, आखिर कब तक, 

यह अनहोनियों का मेनस्ट्रीम चलता रहेगा और

बुझी राखों में चिंगारी के भ्रम से धमनियां चलती रहेंगी


क्या मैं अब तक विपर्ययों में जी रहा था ? 

याकि हर सहेजे दृश्य को अब पलट देना होगा ? 

यह हर ओर छाई मुर्दानगी, यह विक्टिमहुड

इस आक्रांता सत्ता की जीत तो नहीं ?

नहीं नहीं, 


मुझे जगाओ, मुझे जगाओ, मुझे जगाओ 

मैं आशंकाओं पर स्वप्न की जीत का हामी हूँ

वह खून जो जेएनयू से लेकर इविवि तक और 

मंदसौर से लेकर कुदाल भाँजते मूठों तक में बहता है

वह खून एक हो जायेगा, 


इन्हीं अश्लील हवाओं के बीच,

सत्ता के गुंडों से लड़ती हुई भाषा उठ रही है

वह एक अर्थ से सारे महादेश को जोड़ देगी।


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