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Anju Dixit [UHT]

Abstract

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Anju Dixit [UHT]

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आइना

आइना

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रोज़ सुबह सुबह जब आइना देखती हूँ,

जीवन के उन सुन्दर लम्हों को खोजती हूँ। 

जो उम्र के साथ धीरे धीरे गुज़र गए,

उम्र कब आगे निकल गई। 


पता ही न चल सका, 

हम स्तब्ध देखते ही रह गए। 

चुपके से अभी तो आई थी धीरे से बिना दस्तक,

कब चली गई एहसास भी न हुआ।


सोचा था,सुना था जीवन तो लम्बा सफ़र है,

देखा तो दो पलों का ही हश्र हैं। 

जिंदगी से क्या मिला,क्या पाया,क्या खोया,

जब हिसाब किया तो कुछ भी नहीं मिला।  


हाथ की मुठ्ठी से हर लम्हा,

जो रेत की तरह फ़िसल गया। 

पर सुबह की चाय जब फुरसत में. पीती हूँ,

बीते पलों को थोड़ा सा जी लेते हूँ। 


जो गुज़र गए पर मीठी यादें छोड़ गए,

माँ का आँचल पिता का दुलार याद कर लेती हूँ।

सभी रिश्तों की गर्मी का एहसास कर लेती हूँ,

शायद यही सोच कर जीवन जी लेती हूँ। 


ज़ीवन का एक हिस्सा भागने में गुजरा,

अब कुछ पुरानी नई यादों में गुज़र जाएगा। 

तिनका तिनका जोड़ जो नीड़ बनाया,

पता नहीं. ज़ीवन के किस मोड़ में छूट जाएगा। 


उम्र तो सेलाब हैं सबकी गुज़र जाएगी,

पहले तो थमेगी फिर दौड़ जाएगी। 

इस दौड़ में पता नहीं साथ,

सबसे कब छूट जाए और सब यहीं रह जाए। 


पर आइना हर पल का हिसाब देता हैं,

हमारी असिलयत ही नहीं।

बीते वक़्त का एहसास करा देता हैं, 

जीवन एक बुलबुला हैं आइना बता देता हैं। 


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