पायल- एक प्रेम कहानी
पायल- एक प्रेम कहानी
सर्दी हल्की दस्तक दे चुकी थी। खिड़की से आ रही ठंडी हवाओं के झोंके मन को छू रहे थे। अभी मैं कॉफ़ी पीने के लिए अपने कमरे में बैठा ही था कि मेरी नज़र पास रखी अपनी डायरी पर पड़ी। ना जाने क्यों मेरा दिल उस डायरी की तरफ़ खिंचता चला गया। हाथों में डायरी लिए धीरे-धीरे मैं उसके पन्ने पलटने लगा। कभी कोई बात बड़े चाव से पढ़ता, तो कभी कोई चीज़ पढ़कर ज़ोर से हँसने लगता। तभी अगले पन्नों के बीच दबी एक सालों पुरानी चिट्ठी मेरे आँखों के सामने आ गई। उसे देख दिल एकदम ठहर-सा गया। इस चिट्ठी को देख मैं बनारस की यादों में खोने लगा और उन्हीं यादों में हँसती- मुस्कराती पायल मेरे दिलो-दिमाग पर छाने लगी।
पायल से मेरी पहली मुलाक़ात बनारस के घाटों पर हुई थी। उस समय मैं नया-नया बनारस गया था। बचपन से ही मुझे घूमने का बहुत शौक था इसलिए वहाँ पहुँचते ही मैं घाटों पर घूमने चला गया था। बैकग्राउंड में बजता भजन, चेहरे को चूमती हल्की-हल्की हवा और साथ में गंगा मैया; मुझे और क्या चाहिए था ! मैं घाट के सीढ़ियों पर बैठे-बैठे आनंदित हो रहा था। तभी मैंने सोचा- "नाव पर बैठ उस पार भी जाकर थोड़ा घूम लूँ।" बस, झट से मैं किनारे लगी नाव पर बैठ गया।
थोड़ी देर बाद जब नाव पूरी भर गई तो चल पड़ी। आहिस्ते-आहिस्ते मन रोमांचित हुआ जा रहा था। मैं इतना खुश था कि पानी को अपने हाथों से सहलाए जा रहा था। तभी मेरी नज़र सामने बैठी एक लड़की पर पड़ी। वह मुझे देखकर मुस्करा रही थी। मैंने झट से पानी में से हाथ खींच लिया और इधर-उधर देखने लगा। चोर नज़रों से मैंने फिर से उस लड़की को देखा। देखने में वह इतनी सुन्दर थी कि एक बार में ही देखकर प्यार हो जाए, पर कम्बख़्त, अभी भी वह मुझे देख बेपरवाह मुस्करा रही थी।
मुझे कुछ शक़ हुआ। मैंने अपनी तिरछी नजरों से खुद को टटोला। तभी मैंने पाया कि मेरी पैंट की ज़िप खुली हुई थी। मैं एकदम शर्म से लाल हो गया। फ़ौरन ही किसी तरह नज़र बचाकर उसे बंद किया। कम्बख़्त आज बीच पानी में मेरी इज़्ज़त पानी-पानी हो चुकी थी। उस लड़की पर गुस्सा भी आ रहा था, साथ ही ना जाने क्यों उसकी मुस्कराहट दिल को पसंद भी आ गई थी। नाव उस किनारे लगते ही मैं उतरकर घूमने लगा। तभी किसी ने पीछे से आवाज दी-
'सुनो !'
मैंने मुड़कर देखा तो वही लड़की थी।
उसने बिना कुछ और बोले झट से 'सॉरी' बोल दिया।
"कोई बात नहीं, कम्बख़्त, आज मेरी हर चीज़ खुली ही रह रही है।" मैंने अपनी शर्ट के बटन बंद करते हुए कहा।
वह खिलखिलाते हुए बोली- "फिर भी मुझे हँसना नहीं चाहिए था।"
तभी मैं फटाक से बोल पड़ा-
"इसी बहाने आप मुस्कुराई तो, आप मुस्कुराते हुए अच्छी लगती हो।"
वह कुछ देर तक एकटक मुझे देखती रही। मैंने पूछा, "क्या हुआ ?" वह कुछ नहीं बोली, पर उसके होंठों पर हल्की मुस्कुराहट फैल गई।
लौटते समय थोड़ा अंधेरा हो चुका था। नाव पर सिर्फ़ चार लोग थे; एक नवविवाहित जोड़ा और हम दोनों। वह मेरे ही बगल में आकर बैठ गई। नाव धीरे-धीरे चल पड़ी। कुछ देर बाद नाव थोड़ी हिचकोले खाने लगी। मैं अभी कुछ समझ पाता कि उसने मेरे हाथों को पकड़ लिया। उन नर्म हाथों के स्पर्श ने मेरे रोम-रोम को रोमांचित-सा कर दिया। मैं उसकी तरफ देखने लगा। वह अभी भी मुस्कुरा रही थी। मैंने बड़े प्यार से कहा- "तुम मुस्कुरा क्यों रही हो ? कहीं फिर से कुछ खुला रह गया क्या ?" वह खिलखिला कर हँसने लगी, बोली- "नहीं, बस यूं ही। तुमने ही बोला था ना कि मैं मुस्कुराते हुए अच्छी लगती हूँ।" इतना कहकर उसने अपना सिर मेरे कंधों पर रख दिया।
मैं इस नए एहसास में खोता जा रहा था। दिल में नए जज़्बात करवट ले रहे थे। धड़कनें पहली बार सीने में शोर मचा रही थीं। मैं समझ नहीं पा रहा था कि यह हक़ीक़त है या कोई ख़ूबसूरत सपना। परन्तु जो भी था, वह पल कल्पना से परे था।
हवाएँ उसकी ज़ुल्फ़ों से अठखेलियाँ कर रही थीं और मैं बस उनमें खोता जा रहा था। तभी नाविक की- "उतर जा, भैया !" की आवाज़ ने मुझे डरा-सा दिया। हम दोनों नाव से उतरकर घाट की सीढ़ियों से गुज़रते हुए ऊपर जा पहुँचे।
अभी भी उसका हाथ मेरे हाथों में ही था। तभी उसने कहा, "चलो ! रबड़ी खाते हैं, उस दुकान पर यहाँ की सबसे अच्छी रबड़ी मिलती है।" मैंने भी हामी भर दी। खाते-खाते हम दोनों अपनी बातें साझा करने लगे। उसका नाम 'पायल' था। बिल्कुल अपने नाम की तरह वह जहाँ से गुज़रती, खुशियों की आहट आसपास गूँज पड़ती। पूछने पर बताया कि वह यहीं की थी। घर बनारस ही था। वह बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती थी और बाक़ी समय में सिलाई और घर के कामों में माँ का हाथ बँटाती थी। आज रविवार था, इसलिए फ़ुरसत में घूमने चली आई थी। कुछ देर और बात करने के बाद उसने कहा "अच्छा! चलती हूँ। माँ देर से घर पहुँचने पर गुस्सा करेगी।"
मैंने उसका हाथ पकड़ते हुए पूछा, "फिर कब मिलेंगे ?"
वह बिना कुछ बोले जाने लगी। आगे कुछ दूर बढ़कर उसने मुड़कर मुस्कुराते हुए कहा, "अगले रविवार को, यहीं पर, और हाँ ! अगली बार कुछ खुला नहीं रहना चाहिए।" यह सुनकर मैं ज़ोर से हँस पड़ा।
अब हर रविवार का मैं बेसब्री से इंतज़ार करने लगा। उस दिन हम वहीं घाट पर मिलते, नाव में घूमते, रबड़ी खाते, और कभी-कभी पान भी। उसे पान खाते देख, मेरी हँसी रुकती ही नहीं थी। वह पान मुँह में भरकर जब बात करती तो और प्यारी लगती।
मैं पूछता, "तुम्हारी माँ कुछ बोलती नहीं, पान खाने को लेकर ?" तो बोलती, "बनारस में रहकर पान से बैर ? ना बाबा ना !"
वह हरदम पूछती, " कितना प्यार करते हो हमसे ? " और हर बार मैं बिना कुछ बोले उसे अपनी बाँहों में ज़ोर से भर लेता। फिर वह चुप हो जाती। कुछ देर बाद वह अपने घर लौट जाती और मैं अपने रूम पर। उसके साथ बिताए उन तीन घंटों को याद कर मैं हर दिन ख़ुश रहा करता था।
उसके साथ कब एक साल गुजर गया, पता तक ना चला। कुछ दिनों में मैं घर जाने वाला था। कॉलेज में दो महीने की छुट्टी होने वाली थी। एक साल बाद मेरी पढ़ाई भी पूरी होने वाली थी, और शायद नौकरी भी पक्की थी। इसलिए मैंने अपने और पायल के प्यार को शादी के बंधन में बाँधने का ठान लिया था। सोमवार की सुबह ही मेरी ट्रेन थी, तो मैंने सोचा इस रविवार जब वह आएगी, तब दिल की हर बात उसको बोल दूँगा।
रविवार आते ही मैं वहाँ पहुँच गया। आज घर जाने के पहले उसे जी भर के देखना चाहता था। बाँहों में भरकर बेइंतहा मोहब्बत करना चाहता था। घाट पर से जो भी लड़की गुजरती, उसमें मैं उसे ही तलाश कर रहा था पर वह आज कहीं दिख नहीं रही थी। शाम धीरे-धीरे ढल गई, पर वह नहीं आई। हल्की रोशनी में मैं घाट किनारे बैठा सोचता रहा, आख़िर वह आज क्यों नहीं आई ? मन में कई सवाल दस्तक दे रहे थे पर फिर मैंने सोचा दो महीने की तो बात है, आकर भी तो बोल सकता हूँ। यही सोचकर मैं वहाँ से निकल पड़ा।
अगले दिन सुबह मैं ट्रेन पकड़कर घर के लिए निकल पड़ा। घर जाकर अच्छा लग रहा था, पर पायल की कमी भी बहुत महसूस हो रही थी। जैसे ही मेरा कॉलेज खुला, मैं फ़ौरन बनारस पहुँच गया।
रविवार के दिन फिर से मैं वहीं उसका इंतजार कर रहा था पर आज भी वो नहीं आई। तभी मुझे याद आया, घर जाने से पहले एक बार जब मैंने अपने रूम का पता उसे दिया था, उसी दिन उसने भी अपने घर का पता दिया था। बोली थी, "जब रविवार के बाद भी मन ना भरे तो आ जाना, दिख जाऊँगी इस गली के नीले मकान में, फिर बताना कितना प्यार करते हो हमसे ?"
मैं पर्स से वो पता निकाल कर दौड़ पड़ा। पता नहीं क्यों आज उसे देखने की बेसब्री बढ़ चुकी थी। मैं बैचेन-सा दौड़े जा रहा था। साँसे फूल रहीं थीं पर कदम रोके नहीं रुक रहे थे। मैं जैसे ही उस गली में पहुँचा, मुझे कुछ अटपटा-सा लगा। हर घर के बाहर अधनंगे कपड़ों में कुछ औरतें और कुछ लड़कियाँ बैठी हुई थी। इशारों से मुझे बुलाने की कोशिश कर रही थी।
मैं एकदम परेशान-सा हो गया। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था, तभी वो नीला मकान मुझे दिखा। मैं फ़ौरन उसकी तरफ़ दौड़ पड़ा। नीले मकान के पास बैठी एक अधेड़ उम्र की औरत से जब मैंने पायल के बारे में पूछा तो उसने कहा, "पायल से लेकर यहाँ सपना, स्वीटी, झुमकी सब मिलेगी, तू बता, पैसा कितना है तेरे पास, चिकने ? उस हिसाब से मैं तय करती हूँ," मेरे पाँव तले जमीन खिसक चुकी थी।
मैं वहाँ से पागलों की तरह भागा। भागते-भागते मैं सोचे जा रहा था, कहीं ये बुरा सपना तो नहीं है। आँखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था। रूम पर पहुँचते ही मैं दरवाज़ा बंद कर बदहवास-सा लेट गया। तभी दरवाज़े से सटे कोने में धूल से लिपटी हुई एक चिट्ठी दिखी। शायद मेरे जाने के बाद दरवाज़े के नीचे से किसी ने डाली थी। मैं फ़ौरन उसे झाड़कर खोलने लगा, तारीख़ देखी तो लगभग दो महीने पुरानी थी। चिट्ठी खोलते ही मुझे पायल का नाम दिखा, मैं दिल में मचे इस तूफ़ान के साथ उस चिट्ठी को पढ़ने लगा,
"राहुल,
जब मैं तुमसे पहली बार मिली, तब ही मैं तुम्हें बताना चाहती थी कि मैं कौन हूँ। पर कभी सच नहीं बता पाई। अपनी ज़ुबां से तुम्हें ये सब बताने की हिम्मत नहीं हुई कभी। इसलिए मैंने अपने घर का पता तुम्हें दिया था। शायद अब तक तुम्हें मेरा सच मालूम भी हो चुका होगा पर पता है जब तुमने हमारी पहली मुलाकात के दिन मुझसे कहा कि मैं मुस्कुराते हुए अच्छी लगती हूँ, तब पहली बार लगा कि जैसे किसी ने मेरी ख़ूबसूरती की तारीफ़ की है। नहीं तो लोग बस मेरे जिस्म की तरफ़ हवस की नज़रों से ही देखते थे।
पहली बार मुझे ख़ुद के ख़ूबसूरत होने का एहसास हुआ था। पहली बार किसी की आँखों में अपने लिए इज़्ज़त और प्यार दिखा। जब भी तुमसे मिलती, मैं यह भूल-सी जाती थी कि मैं एक वेश्या हूँ, जो चंद रुपयों के लिए अपने जिस्म को किसी भी ग़ैर मर्द के हाथों में सौंप देती है।
करती भी क्या ? बाबूजी बचपन में ही चल बसे थे। पिछले तीन सालों से मेरी माँ अस्पताल में भर्ती है। रोज़ इतना पैसा मैं कहाँ से लाती ? ऊपर से दो बहनों की पढ़ाई का खर्चा कहाँ से जुटाती ?
अपने जिस्म की कुर्बानी देने के सिवा मेरे पास और कोई चारा नहीं था पर इस रविवार मेरी माँ चल बसी। मैं अपनी बहनों को लेकर अब इलाहाबाद जा रही हूँ। वहीं रहकर इनकी परवरिश करूँगी। मुझे ढूँढ़ने की कोशिश मत करना। तुमसे इतने दिनों तक झूठ बोलने के बाद मैं ख़ुद को कभी माफ़ नहीं कर पाऊँगी। हो सके तो मुझे माफ़ कर देना।
तुम्हारे साथ बिताए प्रत्येक रविवार के तीन घंटे मैं ज़िंदग़ी भर भूल नहीं पाऊँगी। तुम्हारा वह सच्चा प्यार मुझे ज़िंदग़ी भर याद रहेगा। तुमसे बिछड़ने का ग़म तुमसे ज़्यादा मुझे हो रहा है पर अपने इतने बड़े सच को तुमसे छिपाकर अपनी नज़रों में ही मैं गिर चुकी हूँ। मैं भी दिल से लाचार हो चुकी थी। तुमसे बेहद प्यार करने लगी थी मैं। जब भी मैं तुमसे पूछती "कितना प्यार करते हो हमसे ?" तो तुम अपनी बाँहों में मुझे भर लेते।
सच कहूँ तो मैं हर दिन सोचती कि आज अपनी सच्चाई तुम्हें बता दूँगी, पर उन बाँहों के घेरे को मैं खोना भी नहीं चाहती थी। कहीं तुम मेरा सच जान मुझे छोड़ ना दो, इसी वजह से अपनी सच्चाई छिपाती रही। अब हिम्मत नहीं है तुम्हारे सामने आने की। तुम हमेशा खुश रहो, मैं भगवान से दुआ करूँगी।
मुझे भूल जाना। मैं तुम्हारे क़ाबिल नहीं हूँ।
अपना ख़्याल रखना,
तुम्हारी,
'पायल'
ख़त पढ़ते-पढ़ते आँसुओं से मैं भीग चुका था। उसे याद कर रोए जा रहा था। इस कड़वे सच को मैं हज़म नहीं कर पाया था। अभी भी मेरे दिल में उसके लिए वही इज़्ज़त थी। मैं उसे अब भी पागलों की तरह चाहता था।
कुछ दिन बाद मैं इलाहाबाद भी गया, पर बिना उसके आशियाने का पता जाने उसे कैसे ढूँढ़ता। लाख कोशिशों के बाद भी वह नहीं मिली। भारी दिल और नम आँखों के साथ मैं बनारस लौट आया। अब घाट भी जाना लगभग बंद ही कर दिया। जब भी रविवार आता, एक उदासी मुझे घेर लेती। उसके साथ बिताए पलों को याद कर कभी रात की ख़ामोशी में मुस्कुराते-मुस्कुराते रो पड़ता।
आज फिर से इस ख़त को पढ़ मैं रोए जा रहा हूँ। चलो ! अब ये डायरी भी बंद कर देता हूँ और ये ख़त भी। अपने टूटे दिल के टुकड़ों को समेट अब सो जाता हूँ। आज रविवार है, वह आती ही होगी। अब उससे मुलाक़ात हमारी सपने में ही होती है। हम रबड़ी भी खाते हैं और पान भी। दिल चाहता है ताउम्र इसी नींद में रहूँ। उसका साथ छोड़ने का दिल नहीं करता पर सपने शायद टूटने के लिए ही बने होते हैं, सपनों में ज़्यादा देर ठहरा नहीं जाता...........