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खुशी का दाख़िला

खुशी का दाख़िला

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घर से बाहर के पहले नन्हें पैरों के छोटे कदमों से खुशी ने स्कूल तक की दूरी पापा की साईकिल के पीछे के कैरियर पर बैठकर नापी थी। वह पहला दृश्य था जिससे खुशी टकराई और उसका भरपूर मज़ा भी लिया।

घर की अलबम में रहने वाली फोटो की बजाय कुछ बड़े आकार के जीवंत फोटो देखने की तैयारी थी। इस फोटो में न दीवाली थी और न उसका जन्मदिन, न किसी की शादी थी न ही कुतुब मीनार और न ही इंडिया गेट के सैर सपाटे वाली फोटो। ये तो उसके स्कूल के पहले जीवंत और ताज़ा दृश्य थे जो उसके दाख़िले से जुड़े हुए थे।

अप्रैल की इस सुबह में धूप के छींटें अभी तक नहीं बिखरे थे और लगभग आगे भी दिन ऐसे ही चलने वाले थे। धूप छांव को मिलाकर बनने वाले दिन ही बन रहे थे। उसके दीदी और भैया का रिज़ल्ट आ गया था। उसकी दरम्याने क़द की माँ खुश थीं कि वे दोनों पास हो गए थे पर उसके पिता को बेटे की रिपोर्ट कार्ड पर अंग्रेज़ी विषय में दिया गया प्रमोशन पसंद नहीं आया। बेटे की घरेलू क्लास इस बात पर काफी देर लगाई गई थी। 

खुशी ने भी उन दोनों की रिपोर्ट कार्ड देखी थी। उसे अभी तक रिपोर्ट कार्ड पर लाल पेन से लिखे और लगाए गए निशानों की जानकारी नहीं थी फिर भी उसे यह जरूर पता था कि कहीं कोई दिक्कत थी। खैर, उसके दाख़िले की बात पर बहन ने कहा भी था कि अब तुझे पता चलेगा। पर उसने ज्यादा ध्यान नहीं दिया बल्कि उसकी ड्रेस को पहन कर पूरे घर में नाचने में लगी थी।

उसे अंदर ही अंदर एक खुशी और गुदगुदी थी कि वह भी अब स्कूल जायेगी। 

घर के अंदर और बाहर के खेल और तरह-तरह के चटक खाने की चीज़ों के चटकारे के बाद स्कूल नामक जगह की भीड़ से टकराना कुछ ऐसा था जिसने उसके मन और चेहरे में कई भाव ला दिये थे।

अचरज आखिर किस बला का नाम होता है, एक वचन में आवाज़ कैसी होती है ये तो पता था पर उसकी बहुवचनता क्या होती है, बिना मुद्दों, त्योहारों, झगड़ों आदि के इकट्ठा हुई भीड़ कैसी होती है, ये सब उसे उस रोज़ स्कूल में जाकर महसूस हुआ।

उसकी गाढ़े नीली रंग की फ्रॉक घुटनों को छू रही थी और उस पर लगी सफ़ेद झालर उसको सुंदर बना रही थी। पैरों में गाढ़े नीले रंग की बंद जूतियाँ सफ़ेद जुराबों पर जंच रही थीं। उसके सिर पर एक छोटी फुव्वारेदार चोटी थी जिसे माँ ने बड़े ही करीने से सफ़ेद रंग की रबड़ से कस कर बांधा था। वह औसत से थोड़ी स्वस्थ थी, जिसे लोग मोटी भी कह देते थे। वह थुलथुल और धब-धब कदम जमा कर उस रोज़ चल रही थी। बाद में पिता ने उसे साईकिल पर बैठाकर स्कूल तक का पहला सफर पूरा करवाया। 

हाँ, माँ ने एक पीले रंग का रुमाल भी हाथ में पकड़ाया था कि अगर पसीना आए या फिर कुछ खाने के समय मुंह पर जूठन लग जाए तो वह तुरंत मुंह पोंछ ले। यह उसका बेहतरीन अदब था, जिसे उसने कई डांट के बाद अपनाया था।

स्कूल में बहुत चहल-पहल थी उस दिन। (रोज़ ही रहती है, उसका पहला दिन था।)

उस समय, लगभग पचास गज़ के लंबे बेसमेंट और एक बड़े कमरे में खुशी और उसका परिवार बसा था। यही जगह घर कहलाती थी। उसके लिए यह बड़ा घर था। पर स्कूल तो उसकी सोच से भी बड़ा और बहुत बड़ा था, इसलिए कतारों में खड़े वे कमरे उसके भीतर हैरतगी पैदा कर रहे थे। उन कमरों से चूरमादार आवाज़ें निकल रही थीं। इस तरह की आवाज़ें ऐसा नहीं था कि उसने पहले कभी सुनी नहीं थी, बल्कि इतनी बड़ी तादाद में एक साथ आवाज़ों को उसने आज तक नहीं सुना था।

उसका घर जिस गली में था, वहाँ के लोगों की आवाज़ों को अगर जमा कर भोंपू में से बाहर छोड़ें तो भी भोंपू की ताक़तवर आवाज़ स्कूल की उन आवाज़ों के आगे कुछ हैसियत नहीं रखती थी। तीज-त्योहारों पर भी इतनी आवाज़ें उसके मौहल्ले ने नहीं पैदा की होंगी, जितनी कि स्कूल ने उस समय पैदा की थी और आज भी कर रहा है। होली का हुड़दंग हो या फिर दीवाली के पटाखों के धमाके सब सुना था उसने, पर ये स्कूल की पैदाइश वाली आवाज़ें नहीं सुनी थीं।

बाहरी दुनिया में जाने की तैयारी देने वाली इस जगह में कुछ नहीं, बहुत कुछ था। आवाज़ें सौगात थीं तो चित्र हड़बड़ाहट और असमंजस का तालमेल बैठा कर चलने की नौटंकी कर रहे थे।

स्कूल में कमरे थे। कमरे गिनती के पायदानों में बंटे थे। हर कमरे से बाहर निकलती आवाज़ें अनचाहे मिलन में मिल रही थीं। तबले पर जब तबलच्ची सधे हाथों से ताल मारता है तो सुर पैदा होता है। ये किसी भी सुरीली धुन या आवाज़ का सूत्र है। यहाँ ये नियम सुरीली ध्वनि की पैदाइश को फ़ेल कर रहा था। यहाँ सुर नहीं शोर था, जहां ताल नहीं था। तब भी इस शोर में खुशी को खुशी हो रही थी।

यहाँ व्यक्तिगत बातचीत का तालमेल ज़रूर था जिसे दोस्ती कहते हैं।   

दीवारों में कुछ खिड़कियाँ जमी थीं जो कि घर कि खिड़कियों जैसी नहीं थीं। उनमें से कई जोड़ी आँखें बाहर झांक रही थीं मानो उनको कैद कर लिया गया हो। उसे आज भी याद है उन आँखों के मिले जुले भाव। खुशी यह सब नहीं भूल पाती। उनमें एक मांग थी। उनमें चहक थी। वे बेपरवाह आँखें पाक और साफ थीं। उन आँखों में बहुत कुछ था जो अब खुशी को बड़ों की दुनिया में बिलकुल नहीं दिखता। 

दीवारों पर दो रंग की पुताई और पेंट था। नीचे की ओर गाढ़े से हल्का पीला और ऊपर के हिस्से में गहरा हरा। यहाँ और इस तरह की दीवारों से उसे क्लास के बँटवारे का एहसास हो रहा था, जिसे स्कूल ने इन रंगों से बताने की कोशिश की थी। लोग तो इसे ही स्कूल भवन समझते कहते हैं। घर अक्सर एक ही रंग से पुत जाता था। पर स्कूल में कई रंग थे। दीवारों से लेकर चित्रों तक में हर रंग मौजूद था। उसने उन रंगों को उस रोज़ गौर से देखा था।

“ये जगह कैसी है न!” उसने पिता की ओर देख कर कहा।

वह बोले, ‘‘स्कूल ऐसा ही होता है।‘’

स्कूल के कमरों को छितनार सीमेंट की चादरों से ढका गया था। कमरों में टांट पट्टी बिछी हुई थी, और उन पर वर्दी वालियाँ बैठी हुई थीं जो स्थिर कतई नहीं थीं। उसे भी इनमें शामिल होना था।

वह स्कूल को देख कर उसका मिलान दीदी और भैया की बातों के स्कूल से कर रही थी। मन में खुद से कहती अच्छा तो यही क्लास है! उसे इस तरह के शोर की आदत नहीं थी।

दाखिले का फोर्म लेने के लिए पिता को बहुत मशक्कत करनी पड़ी।

वे औरतें जो टीचरों के किरदारों में थीं, एक ही जगह चार की संख्या में बैठी हुई थीं। वे कभी एकदम ऐसे हँसती कि वह डर जाती। वह सोचने लगी- “इनको क्या हो गया!”

पिता ने एक टीचर की तरफ मुखातिब होते दाखिले के फॉर्म की मांग की। उस गौरी पर भयंकर आवाज़ वाली टीचर ने सुनकर भी अनसुना कर दिया। पापा ने दुबारा कहा, फिर तीसरी बार कहा और फिर चौथी बार कहा।

खुशी को स्कूल के बाद की दुनिया में पता चला गिनती सिर्फ एक दो तीन नहीं होती। बाहर की दुनिया में गिनती दूसरी बातों और व्यवहार में भी गिनी जा सकती है। अब वह सोचती है तब पाती है कि गणित के नंबर एक किताबों की रौनक हुआ करते हैं। जिंदगी की रौनक कुछ और ही होती है। लेकिन यहाँ गिनती सुनवाई और अनदेखी के बीच की कोशिशों में भी प्रासंगिक हैं। गिनती कमरों में बैठी उन लड़कियों के लिए भी है। कमरों के लिए भी है। पिता की काले पट्टे वाली कलाई घड़ी में भी है, उनकी साईकिल के पहियों में भी है, कुर्सी, टेबल और यहाँ तक कि टांट पट्टियों में भी है।

वे औरतें पिता को सुन नहीं रही थीं।   

सुनने वाले लोग घर में मिल जाएंगे पर घर के बाहर जरूरी नहीं कि सब सुनने के लिए तैयार हों। स्कूल के संदर्भ में सुनना महत्वपूर्ण अभ्यास माना जाता है जो सीखने की प्रक्रिया का जरूरी हिस्सा है। ...बहरहाल वापस चित्र पर आते हैं।

“बच्चे का दाखिला करना है फॉर्म चाहिए।”

एक बार!

“अनसुना” (तेरा सुट का रंग तो बहुत अच्छा है! कहाँ से खरीदा ?)

दो बार!      

अनदेखा कर दिया गया। ( आज खाने में क्या लाई है ?)

तीन बार! (हा हा हा )

चार बार! (थोड़ी देर में आना)

पाँच बार! (कहा न थोड़ी देर में आना, अभी तो बहुत काम है।)

छ बार! (मंजु मैडम से मिल लो दाखिले का चार्ज उनके पास है।)

सात बार! (मंजु मैडम तो आज आई ही नहीं उनकी तबीयत खराब है।)

आठ बार! (सुरेंदर मैडम से मांग लो उनके पास फॉर्म हैं।)

कुछ ऐसी ही औरतों से टकरा कर पापा का चेहरा अब तक परेशान हो गया।

टीचर ने फॉर्म देने से पहले पूछा, “आपका बच्चा कहाँ है, पहले उसको दिखा दो।”

अभी तक उसका चेहरा उतर चुका था। वह खामोशी के साथ और सहम कर में पिता के पीछे खड़ी थी। पिता की पैंट को कस कर पकड़ रखा था कि न जाने किससे उसे खतरा था।

पिता ने मुझे खींच कर उसे उनके आगे किया। वह डर गई। चेहरा सकपका गया। 

टीचर ने उसे अपनी ओर खींचा और उसकी सीधी बांह की कलाई को पकड़ कर उठाकर मोड़ते हुए उसके दायें कानों तक पहुंचाने लगी।

उसे गच्चा हाथ लगा।

“धत तेरे की, ये बच्ची तो पाँच साल की नहीं है। अभी ये छोटी है। इसका हाथ तो कनपटी को छू ही नहीं रहा।” उस मैडम ने पिता की तरफ चमकते चेहरे से यह बात की।

‘’पर मैडम ये पूरे पाँच साल की है।‘’ पिता घबराते हुए बोले।

“पर भाई साब! इसका हाथ तो कनपटी को छू ही नहीं रहा। इतने छोटे बच्चे का दाखिला हम नहीं कर सकते।” वह फिर बोली। उनका बोलना खुशी को इतना अखर रहा था कि वह उसे माँ की कहानियों की भूतनी जान पड़ रही थी।

पिता ने उनसे गुज़ारिश की। जाने क्या सोचकर उसने प्रभा नाम की टीचर को बुलाया।

प्रभाआ आ ....इतना लंबा चिल्ला लेने के बाद भी प्रभा तक आवाज़ नहीं पहुंची। फिर एक लड़की को भेज कर उन्हें बुलाया गया।

वो मुसकुराते चेहरे के साथ आई । खुशी को अभी तक की सभी औरतों में वह अच्छी लगी। पास आते हुए उन्होने हाथों से चौक झाड़ी और करीब आ गईं। पहली वाली टीचर ने सारा हाल सुना दिया। सुनने के बाद उसने छोटी खुशी को अपने पास बुलाया बड़े प्यार से। वह गई। वह खुशी के गाल खींचते हुए बोलीं- “आपकी बच्ची बहुत प्यारी है।” खुशी अपने और पास करते हुए बोलीं- “कर दे न। नियम नियम मत चिल्ला।”

उनकी लंबी बहस के बाद पिता को आवेदन का फॉर्म मिल गया और दोनों ने राहत की सांस ली।

लौटते वक़्त वह फिर साईकिल के पीछे बैठी थी। पिता से उस टीचर के बारे में बोली- “पापा वो माँ की कहानी वाली भूतनी लग रही थी न?”

पिता पहले बहुत तेज़ हँसे फिर बोले, “ऐसे नहीं बोलते। वो तुम्हारी गुरु हैं। वो तुम्हें पढ़ाएंगी। वो टीचर है।”

उसने फिर पिता से कोई सवाल नहीं किया। बस सफ़ेद पॉलिथीन में रखे उस फॉर्म को कस कर पकड़े रखा कि कहीं इस अप्रैल की हवा में वो उड़ न जाए। घर आकर वह इतना थक गई कि उसने कुछ खाया नहीं और माँ के पास बैठे-बैठे वह जाने कब सोई उसे भी पता नहीं चला। वह वास्तव में आराम कर रही थी। अगले कुछ ही दिनों में उसे स्कूल जाने के लिए तैयार होना था।


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