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Preeta Kaushik

Fantasy

3  

Preeta Kaushik

Fantasy

और वसंत साथ हो लिया

और वसंत साथ हो लिया

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कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय का प्रांगण ! फरवरी का महीना ।सब कुछ खिला - खिला सा ! पेड़ - पौधे, फूल - पत्ते ,धरती , अंबर - वसंत का मद छाया था सब पर ! 

     अंग्रेजी विभाग से निकल कर बह्म सरोवर की ओर भागी जा रही थी पी . ऐच .डी की छात्रा सुरभि । छह महीनों की लंबी प्रतीक्षा के बाद उसका प्रिय उससे मिलने आ रहा था। विराट नाम था उसका । दोनों ऐम. ए में सहपाठी थे । दोनों में प्रेम हुआ ! गहरा हुआ ! सुरभि के माता - पिता शिक्षक थे। पढ़ा - लिखा, सुसंस्कृत, मध्य वर्गीय साधारण परिवार ! सुरभि ने अपने माता पिता को विराट के बारे में सब बता दिया था और उन्हें इस संबंध पर कोई आपत्ति भी नहीं थी। उन्हें अपनी बेटी के प्रत्येक निर्णय पर पूरा विश्वास जो था ! इसके ठीक विपरीत विराट का परिवार अति धनाढ्य था। विराट के माता - पिता अपने पुत्र के विवाह को लेकर भी बहुत महत्वाकांक्षी थे ।विराट को दो वर्ष लगे अपने माँ- बाप को मनाने में । आख़िरकर अपने इकलौते बेटे की खुशी के लिए वो सुरभि संग उसके विवाह पर सहमत हो गए। 

    फोन पर सबसे पहले सुरभि को ही यह शुभ सूचना दी विराट ने। निकल पड़ा विराट सुरभि से मिलने - अविलंब , तुरंत ! सुरभि को जब यह सूचना मिली तो खुशी से बावरी हो उठी वो ! घुंघरू कहाँ बांधे थे सुरभि ने, फिर भी अनगिनत घुंघरू बज उठे उसके पांवों में ! प्रेम संपदा अपनी झोली में समेटने जो जा रही थी वो ! कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के खुले खुले बगीचों में फूल ही फूल खिले हुए थे - बासंती फूल, रंग बिरंगे चटकीले फूल ! उन बसंती रंगों में भीगी- भीगी सुरभि भागी जा रही थी बरह्म सरोवर की ओर ! वही तो मिलन स्थली थी उसकी और विराट की !

वसंत ऋतु में प्रेम का उत्सव ! पीले रंग की साडी पहनी हुई थी सुरभि नें ! 

उसका आँचल भी बावला हो उठा ! नीला अंबर, पीला आँचल , फूलों के अलबेले रंग - सबमें सब घुले, एक हुए ! अलबेला बसंत ! 

  सुरभि बरह्म सरोवर पहुँची तो वहाँ विराट पहले से ही उसकी प्रतीक्षा में खड़ा था ।सुरभि लिपट गई विराट से ! सांस- सांस तरंगित ! नयन स्वप्निल ! आस से भरे मन ! प्यासे अधर ! व्याकुल हृदय ! वसंत में प्रेम या प्रेम में वसंत ! 

  ' अब जल्द ही हम एक होंगें । मम्मी पापा मान गए , सुरभि अब हम शादी के बंधन में बंध जाएँगे ।'

' हाँ! आओ इस बट वृक्ष के नीचे बैठें , इस बरह्म सरोवर के किनारे ! ये सब साक्षी हैं हमारे प्रेम के ।' सुरभि बोली ।

   रमणीय स्थान ! पावन ! शांत !बट वृक्ष के पास प्राचीन मंदिर ! और ऊपर से वसंत का आगमन ! सोने पर सुहागा ! बासंती बयार ! मदिर, मदिर ! शीतल भी , मीठी भी ! बरह्म सरोवर का जल थिरका सा, मचला सा ! बसंत का सौंदर्य चहुँ ओर छिटका सा ! मंदिर की घंटियों और आरतियों के स्वर घुल रहे थे बहते समीर में, बना रहे थे संगीत भरी स्वरलहरियाँ ! बसंत दिव्यता में घुल रहा था, रहस्यमयी सा !

  सुरभि पुनः बोल उठी , ' एक खुशखबरी मेरे पास भी है तुम्हारे लिए ! तुम तो थे नही यहाँ, मैं यहाँ अकेली रह गई । सो मैंने यूँ ही आइ. ए. एस. की परीक्षा दे डाली। प्रिलिम्स हो गया और देखो अब मेन्ज़ भी पास हो गया ! मैंने तो उम्मीद ही न की थी इतनें सब की मगर .....! 

सुरभि अपनी खनकती आवाज़ में बच्चों की तरह बोली चले जा रही थी , तभी विराट झटक कर सुरभि से अलग हो गया और भड़कते हुए बोला , 

' मैं वहाँ अपने माँ बाप को मनाने में लगा हुआ था और तुम यहाँ अपनी अलग राहें बनानें में ! ' 

सुरभि बोली ,

'पहले मेरी बात तो पूरी सुन लो, इसमें भड़कने की क्या बात है ? 

विराट और भी ऊँचे स्वर में बोला, 

' क्या सुनूँ मैं तुम्हारी बात ? आज मुझे बताए ये सब कर रही हो, कल जानें क्या करोगी ? ' 

सुरभि विस्फारित नेत्रों से विराट को देख रही थी । विराट की भाषा को समझने का प्रयास कर रही थी ।

फिर सुरभि एक झटके के साथ खड़ी हो गई और बोली ,

' कल नहीं, जो करूँगी आज करूँगी और अभी करूँगी। मैंने अपनी बात पूरी भी नहीं की थी और तुम भड़क गए ! अभी तो मेरा आइ. ए. एस में चयन ही नहीं हुआ था, हो भी जाता तो भी एक पल में छोड़ देती ! हज़ार बार छोड़ती ! जो आज मेरी बात सुने बगैर भड़क रहा है वो कल हर बात पर भड़केगा , मेरे मन पर भड़केगा ,मेरे तन पर भड़केगा, मेरी भावनाओं पर , मेरे विचारों पर , भड़केगा ! मेरे आँसुओं पर , मेरी उदासियों पर भड़केगा ! हो सकता है कि वो मेरी हँसी पर, मेरी खुशी, मेरी एक छोटी सी मुस्कान पर भी भड़क जाए ! ऐसा प्यार मुझे मंज़ूर नहीं ! कभी नहीं ! मैं तो वर्षों तक तुम्हारी प्रतीक्षा कर सकती थी किंतु अब एक पल भी मेरा तुम्हारे साथ खड़ा होना असंभव है! ' 

विराट सहम गया । उसनें सुरभि का हाथ पकड़ लिया और बोला, 

' ऐसे एक झटके में कोई साथ छोड़ता है क्या ? " 

सुरभि ने अपना हाथ छुड़ा लिया और दृढ़ स्वर में बोली,

' हाँ, एक झटके में क्योंकि मैं तिल तिल कर मरना नहीं चाहती, मैं हलाल नहीं होना चाहती ! जो व्यक्ति दूसरे की बात को सुन ही नहीं सकता वो क्या प्रेम करेगा, क्या किसी पर विश्वास करेगा। सच में, मेरी राहें अलग हैं । और हाँ, आखिरी बात - हो सके तो सुनना सीख लेना। गुडबाए ऐंड औल द बैस्ट ।' 

ये कहकर सुरभि मुड़ी और वहाँ से चल दी । सुरभि का पीला आँचल फिर लहरा उठा ! इस बार और वेग से लहराया। श्रतुराज वसंत, जो वहाँ ठिठके खड़े थे, हँसकर समा गए सुरभि के आँचल में और उसी के साथ हो लिए ! 



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