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वो कहता था

वो कहता था

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मेरी आहट से नैना कहाँ चुप होते,

मैंने देखा है उसे अकेले में रोते,

जो मैं मुस्कुरा कर पूछ दिया करती थी,

वो कहता था मैं आऊंगा

वो कहता था मैं आंऊगा।


उसकी चिट्टियों का स्वाद खारा था,

हर हर्फ आंसुओं से जो उतारा था,

जो मैं मुस्कुरा कर पूछ दिया करती थी,

वो कहता था मैं आऊंगा,

वो कहता था मैं आंऊगा।


जो डर है उसके दिल में,

मैंने उसकी ज़बान में देखा है,

वो मुझसे वादा भी करता है तो,

ज़रा ठहर के करता है।


जब वो माँग में मेरे,

सिंदूर भर रहा था,

मैंने देखा उसका हाथ,

ज़रा काँप रहा था,

वो कानों में कुछ कहने कि,

कोशिश करता था,

वो साँसे लेता तो था,

लेकिन फिर भी मरता था,


मैं जानती थी उस दिन वो,

क्या कहना चाहता था,

पर ज़ज्बातों को,

शब्दों में पिरों न पाई,

उसने भी गम के,

कुछ घूँट यू पिये,

पर दिल के बेबसी,

कभी न जताई,



जिसकी जान खुद कि नही वो,

किसी के लिए जान क्या देगा,

जिस्से की थी उसने कभी मोहब्बत

क्या उसे वो सारी खुशियाँ देगा।


वो समझता है खुद को मेरा कातिल,

इसलिए मुझ से अजनबी सा मिलता है,

वो कभी खुल के वादे नही करता,

वो बस होटों को सिलता है।


जिस दिन वो जंग को निकला,

मन हुआ उसे सीने से लगा लू,

और कह दूँ कि तुम्हे खोने का डर,

मुझे भी है लेकिन नही कहती,

मैं रुक जाती हूँ ये जान के कही,

मेरे डर से वो डर न जाए।


और इस वतन के हवाले अपनी जान

करने से मुकर न जाए,

कि फिर कोई ये न कहे,

कि उसने इस जहाँ को दिया क्या ?

इसलिए हर रोज़ उसे तड़पता पाती हूँ

हर रोज़ उसका लहू ऐ वतन भेंट चड़ाती हूँ।


ऐ जवान मैं रब से तेरी बलाँए माँगू,

या सब तुझपे छोड़ दूँ,

क्योकिं तेरी बलाएँ माँगने का मतलब है,

सरहद पार किसी औरत के, सुहाग का बलिदान,

और सब तुझ पर छोड़ने का मतलब है तेरा बलिदान !


मैं कैसे उसके चहरे की,

खुशी को उतरता देखूं,

मैं कैसे उसके लफ़्जो को,

चीखों में बदलता देखू

आखिर देखूँ तो कैसे !


इस्लिए ये फकिर दुआ में,

बस इतना अर्ज़ करती है,

कि फिर कोई औरत,

कभी जाने अनजाने

उस खबर का इंतज़ार न करे,

जो सरहद पार से आती हुई,

किसी कि, मौत का दर्दनाक

किस्सा सुनाती हो।


कही जश्नन की आग हो,

तो कहीं कोई औरत,

फूट फूटकर आंसू बहाती हो।


कि फिर कोई जवान पैदा हो,

तो अपनी जान सिर्फ,

अपने लिख कर लाए,

कि कोई औरत,

अपने माथे का सिंदूर यू न मिटाए।


और वो माँ बाप न महसूस करे असहाय,

वो औलाद जो कभी पिता का,

चेहरा देख तक न पाए,

ये सरहदें जो नाम कि है,

कही मिटृटी में मिल जाए,

कही मिट्टी में मिल जाए।


और अपनी क्या सुनाऊ दास्तां,

ये तो पहले से ही तय हो चुका था,

एक जान जाएगी तो एक जान आऐगी,

और उस दिन भी एक जान गई,

पर बदले में सिर्फ एक,

छोटा सा खत आया।


वो कहता था मैं आऊँगा,

कहता था मैं आऊँगा,

लेकिन वो फिर कभी नहीं आया,

कभी नहीं आया।


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