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तुम सब

तुम सब

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एक दफे की बात है सारी,

घूम रहे थे गलियों में हम,

हाथ में हाथ था इक दूजे के,

बारिश भी थी मद्धम मद्धम।

चलते फिरते, बातें करते,

तुमने यूँ ही पूछ लिया था,

बताओ तो! क्यों अच्छी हूँ मैं?

क्यों तुम मुझसे प्यार करते हो,

क्यों मेरी ख़ातिर लिख लिख कर,

ग़ज़लों से काग़ज़ भरते हो?

मैं कुछ भी न कह पाया था,

बस हल्का सा मुस्काया था,

एक तुम्हारे उस सवाल का,

जवाब तुम्हें मैं अब देता हूँ।

औरों के जैसे ही हो तुम,

तुम में कुछ भी अलग नहीं है,

पर जब तुम मेरे कहने से पहले,

मेरे आँसुओं का सबब समझ जाती हो,

तो अच्छी लगती हो।

 

हाँ तुमसे बहुत से गिलें हैं मुझको,

शिकायतें भी बहुत सारी हैं,

पर जब तुम मेरी आंखों के जज़्बात समझ कर,

आ कर मेरे गले लग जाती हो,

तो अच्छी लगती हो।

 

तुम नादान, नासमझ भी हो,

तुम्हें कुछ पता नहीं है दुनिया का,

पर जब मेट्रो स्टेशन पर भीख मांगती उस बुढ़िया को,

देख कर तुम यूँ ही बिलख कर, रो पड़ती हो,

तो अच्छी लगती हो।

 

तुम बेहूदा हो, बद्तमीज़ हो तुम,

ऐसा कहते हैं तुम्हारे घरवाले,

मगर जब शराब के नशे में,

तुम नुक्कड़ से सिगरेट की डब्बी लेने जाती हो,

गली के 'छोटू' को वहीं भीख मांगता पाती हो,

और डब्बी न खरीद कर, उन पैसों से,

उसे ढाबे का खाना खिला कर खुश होती हो,

तो अच्छी लगती हो।

 

तुम्हारी ख्वाहिशें आसमान छूती हैं,

तुम सब कुछ ही पाना चाहती हो,

तुम से तो सब्र भी नहीं होता,

तुम तो बस उड़ ही जाना चाहती हो,

और हर महीने, की दस तारीख़ को, 

तुम झट से फ्लिपकार्ट पे कुछ आर्डर करती हो,

पर फिर कुछ सोच कर उसको तुरंत कैंसल कर के,

इक नंबर डायल करती हो, 

'भाई तुझे कुछ चाहिए?' सवाल करती हो,

तो अच्छी लगती हो। 

 

तुम ज़िद्दी हो, अपने मन की करती हो,

तुम किसी की भी बात कहाँ सुनती हो,

पर जब 'वो' तुमसे शराब पीने को मना करता है,

और तुम उस रात शराब छोड़ कर, 'उससे' बातें करती हो,

तो अच्छी लगती हो।

तुम क्लास छोड़ कर सिगरेट पीती हो,

तुम्हें जैसा सही लगता है वैसे जीती हो,

तुम झुंझलाती हो, गुस्साती हो,

यूँ दुनिया भर से बेबाकी से मिलती हो,

पर मेरे ही आगे जो शर्माती हो,

तो अच्छी लगती हो।

 

मेरे उँगलियों के फासले अपनी उँगलियों से मिटाती हो,

तो अच्छी लगती हो।

 

छेड़ा भी जाता है तुम्हें सड़कों पर,

एसिड भी फेंके गए हैं न?

मगर तुम फिर भी मुस्कराती हो!

इतनी शक्ति कहाँ से है तुम में?

तुम तो बलात्कार भी सह जाती हो!!

और इतनी वेहशतों के बाद भी जीने की जो चाह दिखाती हो,

तो अच्छी लगती हो।

 

तुम माँ, तुम बहन भी हो,

तुम पत्नी हो, वेश्या भी हो,

तुम द्रौपदी हो, तुम सीता हो,

तुम दुर्गा हो, ज़ुलेख़ा हो,

तुम त्याग हो, तुम समर्पण हो,

तुम जिसकी हो, उसे अर्पण हो।

तुम मुहब्बत हो, ज़रूरत भी हो,

तुम किसी शख्स की आदत भी हो,

तुम वो हो, जो कोई नहीं होता, 

तुम ना हो, तो कुछ नहीं होता!

तुम हर जगह, हर कहीं तुम हो,

इस बात से भी तुम वाकिफ़ हो।

मगर फिर भी अपने महत्व को छुपाकर,

तुम जो यूँ ही सबके बोझ तले,

सब त्याग कर,

चुपचाप जीती जाती हो,

 

तो अच्छी लगती हो।

 


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