बचपन के दिन
बचपन के दिन
बचपन के दिन थे कितने सुहाने ,
चलो फिर चले उन दिनों को वापस लाने ,
जहाँ थी मस्ती , थी जहाँ नादानी ,
थोड़ा सा गुस्सा , थोड़ी सी मनमानी ।
वो तीन पहियों वाली साईंंकिल भी कितनी प्यारी थी ,
अपने खिलौनें की हिफाजत की कितनी बड़ी ज़िम्मेदारी थी
वो दिन भी थे कितने अच्छे ,
वो गलियाँ , वो मोहल्ले के बच्चे ।
होली के उन रंगों में भी तो कुछ बात था ,
मकरसंक्रांति के उन पतंगों में ज़ज़्बात था ,
दीवाली की फुलझड़ियों को हम कैसे भूले ,
वो नीम के पेड़ पर खुद के लगाए हुए झुलें ।
रिश्तेदारों के जाने का होता था इंतजार ,
उनसे कमाए हुए पैसों से था जो प्यार ,
उन्हीं पैसों को लेकर दुकान दौड़ जाना ,
रबड़ी , चूरन और चाँक्लेट फिर मिलकर खाना ।
टूटे हुए दाँत रखकर सोने में भी मजा था ,
जिंदगी जीने का एक अनोखा वजह था ,
जानवरों का आवाज़ भी तो निकालना था ,
नए खिलौनों से अपने दोस्तों जलाना था ।
मेले का वो दृश्य भी था कितना लुभाना ,
नए खिलौनों को खरीदने था हमें जाना ,
याद है मुझे पापा की पीठ की सवारी ,
दोस्तों के साथ वो कट्टी -पक्की वाली यारी ।
लुक्का-छिप्पी और बर्फ-पानी का वो खेल ,
पटरी पर चलने वाली मेरी खुद की रेल ,
गर्मी की छुट्टी भी स्वर्ग की प्राप्ति से कम नहीं थी ,
माँ भी मुझे ड़ाटते-ड़ाटते थकती नहीं थीं।
बारिश के दिनों में कीचड़ में कूद जाना ,
ठंडी के दिनों में पहाड़ लगता था नहाना ,
स्कूल ना जाने के लिए तैयार थे सौ बहाने ,
बचपन के दिन थे कितने सुहाने ।
बीमार पड़ने पर माँ वो कड़वी दवा पिलाती ,
जिसे पिलाने के बाद उसके जान में जान आ जाती ,
याद हैं वो जिद , वो हठ , वो नादानी और मनमानी ,
किसी पाठ्यक्रम से कितनी प्यारी थीं दादी-नानी की कहानी ।
छल , कपट का पाठ तो हमने कभी सिखा हीं नहीं
झूठ और फ़रेब को हमने जाना ही नहीं था ,
गणित के पहाड़े , और हिंदी की कविता ,
दिन देखो कितना जल्दी-जल्दी था बीतता ।