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Incomparable Atul Srivastava

Abstract Children

4.9  

Incomparable Atul Srivastava

Abstract Children

बचपन के दिन

बचपन के दिन

2 mins
330


बचपन के दिन थे कितने सुहाने ,

चलो फिर चले उन दिनों को वापस लाने ,

जहाँ थी मस्ती , थी जहाँ नादानी ,

थोड़ा सा गुस्सा , थोड़ी सी मनमानी ।


वो तीन पहियों वाली साईंंकिल भी कितनी प्यारी थी ,

अपने खिलौनें की हिफाजत की कितनी बड़ी ज़िम्मेदारी थी 

वो दिन भी थे कितने अच्छे ,

वो गलियाँ , वो मोहल्ले के बच्चे ।


होली के उन रंगों में भी तो कुछ बात था ,

मकरसंक्रांति के उन पतंगों में ज़ज़्बात था ,

दीवाली की फुलझड़ियों को हम कैसे भूले ,

वो नीम के पेड़ पर खुद के लगाए हुए झुलें ।


रिश्तेदारों के जाने का होता था इंतजार ,

उनसे कमाए हुए पैसों से था जो प्यार ,

उन्हीं पैसों को लेकर दुकान दौड़ जाना ,

रबड़ी , चूरन और चाँक्लेट फिर मिलकर खाना ।


टूटे हुए दाँत रखकर सोने में भी मजा था ,

जिंदगी जीने का एक अनोखा वजह था ,

जानवरों का आवाज़ भी तो निकालना था ,

नए खिलौनों से अपने दोस्तों जलाना था ।


मेले का वो दृश्य भी था कितना लुभाना ,

नए खिलौनों को खरीदने था हमें जाना , 

याद है मुझे पापा की पीठ की सवारी ,

दोस्तों के साथ वो कट्टी -पक्की वाली यारी ।


लुक्का-छिप्पी और बर्फ-पानी का वो खेल , 

पटरी पर चलने वाली मेरी खुद की रेल ,

गर्मी की छुट्टी भी स्वर्ग की प्राप्ति से कम नहीं थी ,

माँ भी मुझे ड़ाटते-ड़ाटते थकती नहीं थीं।


बारिश के दिनों में कीचड़ में कूद जाना ,

ठंडी के दिनों में पहाड़ लगता था नहाना , 

स्कूल ना जाने के लिए तैयार थे सौ बहाने ,

बचपन के दिन थे कितने सुहाने ।


बीमार पड़ने पर माँ वो कड़वी दवा पिलाती ,

जिसे पिलाने के बाद उसके जान में जान आ जाती ,

याद हैं वो जिद , वो हठ , वो नादानी और मनमानी ,

किसी पाठ्यक्रम से कितनी प्यारी थीं दादी-नानी की कहानी ।

छल , कपट का पाठ तो हमने कभी सिखा हीं नहीं

झूठ और फ़रेब को हमने जाना ही नहीं था ,

गणित के पहाड़े , और हिंदी की कविता ,

दिन देखो कितना जल्दी-जल्दी था बीतता ।

       


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