पुनः लौट आई हैं यामिनी
पुनः लौट आई हैं यामिनी
अस्त हुआ जा रहा रवि , संध्या बेला आई है ।
बसंत ऋतु में खग पखेरु , झूम झूम हर्षायी है ।
समेट रहा सब किरणे भास्कर , जल्दी से घर जाने को ।
नभ ओढ़ता चांदनी चादर , अमृत धारा बरसाने को ।
नभ में गर्जन लाई है दामिनी ।
पुनः लौट आई है यामिनी ।।
गया प्रभावी प्रभात जल्द ही , गई आलसी भरी दुपहरी ।
गई मौन धरी संध्या बेला , लौट आई पुनः विभावरी ।
लौट रहे सब जल्दी जल्दी , अपने घर जाने को ।
नभ से खग लौट रहे , लिए चोंच में दाने को ।
नभ में फैल गई है चांदनी ।
पुनः लौट आई है यामिनी ।।
चले गए सभी गहरी निंद्रा में , स्वप्नों के भूल भुल्लैया में ।
पर भूल गए यह बात सभी , कोई जाग रहा हैं दुनिया में ।
जाग रहे अभी भी कुछ लोग , पेट की आग बुझाने को ।
जाग रहे है बड़े लोग भी , व्यथित मन बहलाने को ।
दूर जल रही निर्दयी जठरागिनी ।
पुनः लौट आई है यामिनी ।।
सरहद पर देखा हैं रजनी ने , वीर जवानों को जगते ।
कृषकों को देखा है रातों में , फसलों की पहरेदारी करते ।
जाग रही ममता की लोरी , अपने मुन्ने को सुलाने को ।
लूटा रही सम्मान वो नारी , रात तलब कुछ पाने को ।
सज सवरकर बैठी वह कामिनी ।
पुनः लौट आई है यामिनी ।।
छुपछुप कर रातों में ही , प्रेम के पुष्प खिलते हैं ।
तड़प रही विरहिणी के साजन , ख्याबों में ही मिलते हैं ।
अंधेरी और गहरी ये रातें , आई है फिर से जाने को ।
फिर से लौट आएगा रवि , आशा की नव ज्योत जलाने को ।
चली पुरवइया बनके गामिनी ।
पुनः लौट आई है यामिनी ।।