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Deepanshu Tyagi

Abstract

5.0  

Deepanshu Tyagi

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तुम्हारे होने का सच

तुम्हारे होने का सच

2 mins
461


मैं हर बार जानना चाहता हूं

तुम्हारा सच

कि क्या तुम मंदिर में

पत्थर के रूप में बैठे हुए भी

सुनते हो मेरी मन की वेदना को

कि क्या तुम महसूस कर सकते हो।


हर उस उथल पुथल को 

जो हर समय होती रहती है

मेरे मन के अंदर

मैंने कई बार जानना

चाहा है तुम्हारा सच

और इस खातिर चक्कर लगाता

रहता हूं तुम्हारे घर के

हां तुम्हारा घर।


जहां तुम पत्थर की मूरत के

रूप में विद्यमान हो

तुम्हारा घर जहां तुम

सूली पर चढ़े हुए हो 

और लोग मोमबत्तियां

जलाते हैं तुम्हारे सामने

हां वही घर

तुम्हारा घर जहां नमाज

अदा करने के लिए भी गया हूं मैं,


और चिल्ला चिल्ला कर

तुमको लगाई है मैंने आवाज

हां वही घर 

जहां तुम्हारे घर के बाहर बैठे हुए

बच्चे बिलखते रहते हैं भूख से

और सेठ अपनी मन्नतें पूरी होने पर।


तुम्हारी उस पत्थर की मूर्ति के

सामने रखकर जाते हैं अपार धन

इन दृश्यों को देखकर कई बार मैंने

जानना चाहा है तुम्हारा सच

क्यों तुम साक्षात आकर नहीं कहते

कि मैं रिश्वत नहीं लेता।


क्यों तुम नहीं कहते कि

मेरे घर के बाहर बैठे बिलखते बच्चे को

ज्यादा जरूरत है उस पैसे की

क्या तुम सच में स्वर्ग में बैठे रहते हो

जहां अप्सराएं करती रहती हैं तुम्हारे सामने नृत्य

या फिर छीर सागर में निद्रा में तल्लीन

तुम दृश्य देखते रहते हो इस संसार के

क्या तुम वही हो जो कैलाश पर

बैठा रहता है हमेशा।


और नहीं आना चाहता इस संसार में

यह सब देख कर एक बार मेरा मन नहीं मानना

चाहता तुम्हारा सच 

मुझे लगता है तुम सिर्फ एक कल्पना हो

इससे बढ़कर कुछ नहीं

पर जब घिरा रहता हूं मैं चिंताओं से

और मुसीबतों से निकलने का कोई रास्ता

मुझे दिखाई नहीं देता।

 

तब मैं भी याद करता हूं तुम्हें 

और वह समय होता है 

जब मैं जानता हूं तुम्हारा सच 

कि तुम हो मेरे आस-पास 

एक सत्य के रूप में 

एक अदृश्य शक्ति के रूप में 

जो हर मुसीबत के समय

थाम लेता है मेरा हाथ।


जब भटक जाता हूं मैं कर्तव्य पथ पर

तो मेरा पथ प्रदर्शित करने के लिए

सबसे पहले तुम ही तो आते हो हर बार

तब फिर एक बार मैं सोचता हूं 

कि तुम्हारे सच को स्वीकार ना करना

 तो मेरी कल्पना है

 तुम रहते हो हमेशा आसपास मेरे 

 बस यही है तुम्हारा सच !


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