वक़्त की रफ़्तार
वक़्त की रफ़्तार
सुबह से काँची आज किसी ख्याल में डूबे डूबे काम कर रही थी। वैसे तो आज छुट्टी का दिन था, रविवार, वो भी कोई ऐसा वैसा रविवार नहीं, मई के महीने का दूसरा रविवार। जी हाँ, आज तो मदर्स डे है। वक़्त उड़ ही जाता है, पता नहीं इतनी जल्दी कैसे। भरा पूरा परिवार है आज कांची का। सास, ससुर,पति और दो बच्चे। जेठ-जेठानी अमेरिका में अपने परिवार के साथ खुश। बच्चे हमेशा मदर्स डे पर कांची को ख़ास महसूस करने का कोई मौका नहीं छोड़ते, फिर भी आज के दिन थोड़ा उदास रहती ही है कांची।
बचपन से ही माँ बाबा के साथ नहीं रही, कारण वो और कुशल दोनों जुड़वाँ हुए, फिर माँ और बाबा के काम के साथ दो-दो बच्चों को संभालना बहुत ज़िम्मेदारी का काम इसलिए बाबा ने फैसला किया कि दादीमाँ-दादाजी और बुआ के साथ रहेगी कांची। उसे कभी महसूस नहीं हुई माँ की कमी, माँ से पहले बुआ बोलना सीखा उसने। बुआ भी कम लाड नहीं लड़ाती थी। विद्यालय जाती थी पढ़ाने कांची की बुआ और पोलियो होने के बावजूद कभी हार नहीं मानी। कांची को नहलाना,उसके दिन में ३-३ बार कपडे बदलने फिर सुंदर सी गुड़िया बना के उसे तैयार रखती थी, दोनों एक दूसरे की जान थे।
जैसे जैसे कांची बड़ी हुई, फिर बड़ी पढाई और फिर बाबा का विचार कि अब दादाजी के जाने के बाद बुआ और दादीमाँ के साथ कांची का रहना मुश्किल होगा इसलिए अब तीनो आ गए थे माँ बाबा के साथ रहने।
वक़्त उड़ ही रहा था मानों जैसे रेगिस्तान में तूफ़ान आने पे रेत उड़ती है, ठीक वैसे ही। बुआ की तबियत बिगड़ रही थी दिन-ब-दिन। डॉक्टर ने कैंसर बताया था, कांची कुछ कर नहीं पा रही थी, उसकी नौकरी लग गयी थी गुजरात, उसे तो जाना ही था। बुआ भी नहीं चाहती थी की कांची रुके। कांची को कुछ समझ नहीं आया, वो चली गयी, २ दिन बाद बुआ भी चली गयी।
यही सब उसके दिमाग में बस गया है। हर मदर्स डे पे उसे अकेला महसूस होता है और याद आती है बुआ की। कांची की जिन्दगी में सब कुछ हैं पर जिसने उसे यहाँ तक पहुंचाया, वही नहीं हैं।
सच में, वक़्त उड़ ही रहा है।
