वो सतरंगी पल
वो सतरंगी पल


ये उन दिनों की बात है, जब हम गाँव में रहा करते थे। पढ़ने में तो मेरा कोई खास मन लगता नहीं था पर मैं स्कूल नंगे पैरों से दौड़ती हुई चली जाती थी। इसी वजह से स्कूल में मेरा दाखिला एक वर्ष पहले यानि 4 साल की उम्र में पहली कक्षा में करवा दिया गया। अब मैं खुशी-खुशी स्कूल जाने लगी पर पढ़ाई से अब भी दूर-दूर तक कोई नाता नहीं था। मुझे आज तक समझ नहीं आया जब पढ़ाई नहीं करनी थी तो स्कूल क्यों जाना होता था मुझे? खैर छोड़िए मुझे आज भी याद है अधिकतर मेरे "0" (शून्य) अंक ही आते थे और मैं दूर से ही चिल्लाते हुए आया करती थी "आज मुझे अण्डा मिला है।" घर आकर मेरे दादाजी अक्सर मुझसे कहा करते थे - "बेटा ऐसा नहीं कहते, सब सुनते हैं घर आकर बता दिया कर।" मैं रोज कहती - "ठीक है दादाजी, कल से नहीं कहूँगी", पर मुझे कभी याद ही नहीं रहता था। चिल्लाने क
े बाद याद आता था कि दादाजी ने मना किया था, फिर घर आकर तुरंत मैं दादाजी से माफी माँग लेती और कहती दादाजी मैं भूल गई पर कल से पक्का याद रखूँगी पर वो कल कभी आया ही नहीं।
बचपन में अक्सर हमारे दादाजी ही हमें पढ़ाया करते थे और एक बात हमेशा कहा करते थे :
"बच्चो पढ़ना है सुखदाई, सभी इसी से मिली भलाई, पहले थोड़ा कष्ट उठाना, फिर सब दिन आनन्द मनाना।"
तब तो न मैं इस बात को समझ पाई और न ही इस बात का कोई महत्व था मेरे लिए पर अब जब भी इस बात को याद करती हूँ तो मेरे चेहरे पर अनायास ही एक मुस्कान ठहर जाती है। मेरी ज़िन्दगी में बचपन के ये पल किसी इंद्रधनुष से कम नहीं। जब ज़िन्दगी के रंग बिखरने लगते हैं, तब बचपन के ये पल चुपके से आकर अपने रंग बिखेरते हैं और फिर एक बार मुझे मुस्कुराने की वजह दे जाते हैं।