Dr Manisha Sharma

Inspirational

4.5  

Dr Manisha Sharma

Inspirational

वो लड़की अनजानी

वो लड़की अनजानी

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एक मेरी कहानी

चौदह दिन का वनवास पूरा करके आज मुझे फिर से अपने घर लौटना है । घर, जिसकी हर ईंट, पत्थर से लेकर हर ज़र्रे में हमारा जीवन बसा होता है । वही घर आज मेरे स्वागत के लिए बाहें फैलाये खड़ा होगा । बहुत प्रसन्न हूँ मैं भी लेकिन कहीं किसी कोने में एक उदासी है । कुछ छूटा जा रहा है इस अस्पताल में। आपको लग रहा है ना कि निरी मूर्ख हूँ मैं। भला अस्पताल से भी कोई मोह पालता है ? आप मेरी कहानी सुनेंगे तो आप भी द्वंद्व में होंगे। जब राम जी चौदह वर्ष के वनवास के बाद अपनी सारी कुशलताओं और प्रसन्नताओं को साथ लेकर अयोध्या लौटे होंगे तो उनके मन में भी ऐसी ही पीड़ा रही होगी।

    उस दिन सुबह से ही तेज़ बुखार था मुझे। रात के करीब दो बजे रहे होंगे जब अचानक मेरी तबीयत बिगड़ने लगी । ऑक्सीजन लेवल नीचे गिर रहा था । पति, बेटा, बहू सभी घबराए हुए थे लेकिन मुझे हिम्मत देने की कोशिश कर रहे थे । बेटे ने गाड़ी में बैठाकर जब गाड़ी स्टार्ट की तो मैंने कातर दृष्टि से पति और बहू को देखने के साथ अपने घर को भी देखा । एक सवाल था भीतर कि क्या फिर से देख पाऊँगी इन्हें या....?अस्पताल पहुंचते पहुंचते तबीयत लगातार गिरती सी लग रही थी मुझे। शायद शरीर से ज़्यादा मन बीमार हो गया था। सारी आशा छोड़ चुकी थी मैं। युद्ध क्षेत्र में जाने से पहले ही अर्जुन की तरह अस्त्र छोड़ दिये थे मैंने । सोच लिया था इस युद्ध में विजयी नहीं हो पाऊँगी मैं। सही कहा किसी ने 'मन के हारे हार है मन के जीते जीत' और मैं मन से हार स्वीकार कर चुकी थी। अस्पताल जाते ही वहाँ के स्टाफ ने बड़ी तत्परता से मुझे संभाला। पीपीई किट में वे सब ऐसे लग रहे थे जैसे किसी दूसरे ग्रह से आये हों । ना उनके चेहरे दिखाई दे रहे थे ना चेहरे पर आए हुए भाव। वे यंत्रवत अपने अपने काम में लग गए थे। उन सब के प्रयासों के थोड़ी देर बाद मेरी तबीयत कुछ सम्भल चुकी थी। डॉक्टरों और नर्सों की वो फौज वहाँ से जा चुकी थी। अब उस वार्ड में बस दो सिस्टर रह गईं थीं । इतनी देर बाद मेरा ध्यान पड़ा कि वहाँ मैं ही अकेली नहीं हूँ और भी बहुत सारे लोग हैं मेरे जैसे बुजुर्ग भी, युवा भी और छोटे छोटे बच्चे भी। पर मुझे सिर्फ़ मैं ही दिखाई पड़ रही थी और सब मेरे लिए अस्तित्वहीन था। नींद आँख मिचौली खेल रही थी मुझसे। समझ ही नहीं आ रहा था कि सोई हुई हूँ या जाग रही हूँ। कमरे की खिड़की में से आती रोशनी से पता लगा कि सुबह होने लगी थी । उनमें से एक नर्स ने आकर पूछा "माँ जी, अब कैसी हो आप? आराम है ना ? चिंता मत करना बिल्कुल भी । जल्दी से ठीक हो जाओगी आप । अभी मेरी ड्यूटी ख़त्म हो गयी है मैं शाम को आऊँगी तब हम बात करेंगे खूब सारी। " और मेरे माथे को अपने दस्ताने वाले हाथों से सहलाकर वो चली गयी। दस्तानों के कारण उसके हाथों का स्पर्श नहीं पहुँचा मुझ तक और चेहरे पर पहनी शीट के कारण आँखों में अपनापन भी नहीं देख पाई मैं, फिर भी कुछ तो था जो अंश भर मुझ तक पहुँचा था।

मेरा इलाज बदस्तूर जारी रहा। उसके जाने के बाद उसकी ड्यूटी दूसरी नर्स ने संभाल ली थी। समय समय पर सब काम हो रहा था डॉक्टर का आना, नर्स का दवा, इंजेक्शन देना, वार्डबॉय का खाना देना सफाई करना। सभी अपने अपने कर्तव्यों का बख़ूबी पालन कर रहे थे एक निश्चित दूरी रखकर । ये बीमारी ही ऐसी है कि आपको एक दूरी बनानी ही होगी । दवाओं का कितना असर हो रहा था मुझे पता ही नहीं कह रहा था क्योंकि मैं तो विश्वास कर चुकी थी अपने ना बचने का । ये अब कह पा रही हूँ मैं कि दवा भी तभी असर करती है जब आपके मन में यह विश्वास हो कि वो असर करेगी किन्तु उस समय यह सब नहीं सूझ रहा था मुझे। खाना बिल्कुल घर जैसा था लेकिन मैंने बहुत थोड़ा सा खाकर सरका दिया । लग रहा था कि हलक से उतर ही नहीं रहा। ऐसे ही पड़े पड़े शाम हो गयी और फिर नर्स इंजेक्शन लगाने आई। उसने आते ही कहा "माँ जी नमस्ते, ठीक हो ना अब।" मुझे उस पर खीज आने लगी । मैं सोचने लगी कि इसे क्या पता मैं किस हालात से गुज़र रही हूँ। बातें करना आसान है इस तकलीफ़ को झेलने वाला ही जानता है। उसने मेरे सिर पर फिर हाथ फेरा वही दस्तानों का स्पर्श, उसी तरह भीतर कुछ पहुँचा फिर से । "माँ जी बिल्कुल परेशान मत हो । आप जल्दी ठीक हो जाओगी। घर में सब इंतज़ार कर रहे हैं आपका । वो लोग हर थोड़ी देर में फोन पर आपका हाल पूछते रहते हैं । आप भाग्यशाली हो इतना प्यार करने वाला परिवार मिला है आपको। "उसकी यह बात सच्ची थी या झूठी मुझे नहीं पता लेकिन उस समय मैंने इस पर संदेह भी नहीं किया । मेरे मन में फिर से कुछ जगा था । अपने परिवार के लोगों का चेहरा दिखने लगा था सामने। सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्, न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम् की जीती जागती मिसाल पेश की थी उसने। उसने इंजेक्शन लगाया और मेरी ओर एकटक देखती रही कुछ पल। मैं उसकी तरफ़ देख नहीं रही थी बस उसका देखना महसूस कर रही थी । मन के भीतर फिर कुछ जगा था तब। " अच्छा मैं सबको देखकर आती हूँ फिर हम बातें करेंगे" कह कर वो कमरे के दूसरे मरीजों की तीमारदारी में लग गयी। ना चाहते हुए भी उसकी आवाज़ मेरे कानों से होकर दिल तक पहुंच रही थी जबकि कमरे के इतने शोर में भी मुझे कोई आवाज़ सुनाई नहीं दे रही थी।

   पता नहीं क्यों मैं आँखें बंद किये हुए भी उसे एक से दूसरे मरीज़ तक जाते देख रही थी और इंतज़ार कर रही थी कि कब आख़िरी मरीज़ को देखकर वो मेरे पास आएगी। अपने आपसे ही एक बहस चला रखी थी मैंने । एक मन उसकी बकबक को सुनना नहीं चाह रहा था और दूसरा उसकी प्रतीक्षा कर रहा था।

         शायद एक घण्टा हुआ हो या दो घण्टा पर मुझे लगा सदियों बाद वो मेरे पास आई है। उसने आते ही पूछा "बताओ माँ जी, खाना खाया आपने आज? कैसा लगा ? भरपेट खाया ना? " वो बोलती रही मैंने कोई उत्तर नहीं दिया। मैं समझ नहीं पा रही थी कि उसका बोलना मुझे अच्छा लग रहा है या नहीं । वो पास होती तो लगता ये कब जाएगी और दूर जाती तो लगता कि कब आएगी। वो मुझसे कुछ दूर बैठ गयी और ना जाने क्या क्या बातें करती रही। दूसरी नर्स अपना काम करके चली जातीं, आराम करतीं, मोबाइल पर बतियातीं या कुछ और। पर वो मेरे पास बैठ जाती और किस्से सुनाया करती । धीरे धीरे दिन बीतते जा रहे थे और उसके प्रति मेरे मन में कुछ उमड़ने लगा था। मैं जब अस्पताल के लिए निकली थी तो यही सोचकर कि अब घर वापिस नहीं लौट पाऊँगी लेकिन उसने मेरे मन में कब और कैसे जीवन के प्रति आस जगा दी थी ये पता ही नहीं लगा। अब उसकी ड्यूटी ख़त्म होने पर मैं उदास होने लगी थी और उसके आने पर मेरे होंठों पर मुस्कान बिखर जाती थी।

उस दिन जब वो मेरे पास बैठी तो मैंने उससे उसका नाम पूछा । उसने कहा "वत्सला" । यथा नाम तथा गुण वाली वो सच में प्यार देने वाली एक बेटी बन चुकी थी मेरी। अब उसके मुँह से अपने लिये "माँ जी" सुनकर मुझे बहुत आनन्द मिलता था। हमेशा से ही एक बेटी चाहती थी मैं लेकिन ईश्वर ने बेटा ही दिया बेटी नहीं । आज जैसे वो कमी पूरी सी हो गयी थी।

  एक दिन जब उसकी ड्यूटी का समय होने पर भी वो नहीं आई तो उसकी जगह किसी दूसरी नर्स को ड्यूटी पर लगा दिया गया। मैंने उससे पूछा "आज वत्सला क्यों नहीं आई" तब उसने बताया कि "आज वत्सला की माँ की बरसी है वो इस दिन वृद्धाश्रम में जाकर बुजुर्गों के साथ समय बिताती है उनकी सेवा करती है। " मैं उदास थी कि वो आज नहीं आई लेकिन ख़ुश थी उसके ना आने का कारण जानकर। मैंने कभी वत्सला के अलावा किसी से कभी अपनी बीमारी के अलावा कोई बात नहीं की थी लेकिन आज मेरा मन हुआ कि इस नर्स से मैं वत्सला के विषय में बात करूँ । मैंने उससे पूछा" तुम वत्सला को कब से जानती हो " उसने कहा "पाँच छः सालों से। " फिर मैंने पूछा " क्या वो तब से ही इतनी बातें किया करती थी?" "बातें ?वो तो बातें करना जानती ही नहीं है । बस अपने काम में लगी रहती है और ड्यूटी ख़त्म होते ही घर चली जाती है । हम लोग कितनी बार कहते हैं चलो कोई मूवी देखने चलें किसी होटल में चलें पर वो कभी हाँ नहीं करती। वो भली और उसकी उदासी भली। " मुझे समझ नहीं आ रहा था कि ये नर्स क्या बोल रही है मैं जिसकी बात कर रही हूँ वो वत्सला तो कितनी खुशमिजाज और बातूनी है। मैंने उससे कहा "तुम किसकी बात कर रही हो? मैं जिसके लिए पूछ रही हूं वो तो हमेशा खुश रहती है"। "हाँ, वो सिर्फ़ आप लोगों के सामने, "वो बोली। "हम लोगों के सामने? मतलब?" मैंने पूछा "उसने कुछ बेरुख़ी से उत्तर दिया "मरीज़ों से बतियातीं है पर ना अस्पताल में किसी से बात करती है ना घर में करती होगी। तभी तो अकेली रह गयी है " मेरे मन में नए नए प्रश्न उठ रहे थे "अकेली? क्या इसके परिवार में कोई नहीं है? पति या बच्चे ?शादी हुई नहीं क्या इसकी ?"मैं सब जान लेना चाहती थी। " हुई थी ना बहुत बड़े घर में हुई थी,पर कुछ सालों बाद ही पति ने छोड़ दिया इसे। "उसके उत्तर में जैसे एक कड़वाहट थी। मेरे पूछे जाने पर उसने बताया कि पति ने क्यों छोड़ दिया " गरीब घर की लड़की थी । पिता पहले ही नहीं थे । माँ भी नर्स थी। इसकी शादी से कुछ समय पहले उन्हें कैंसर हो गया था सारी जमापूंजी इलाज में निकल गयी। शादी बहुत साधारण हुई इसकी। शादी के कुछ समय बाद ही माँ का देहांत हो गया। ससुराल वाले कहते थे ना किसी की सेवा करती है ना किसी का आदर । कहते हैं पति ने चरित्रहीन कहकर घर से निकाल दिया। ये भी इतनी ज़िद्दी कि मुड़कर उस घर को फिर नहीं देखा। अस्पताल में नौकरी करती है और अपना जीवन चलाती है। हर रविवार वृद्धाश्रम में बिताती है। जब से कोरोना हुआ है अस्पताल में ही लगी है। वृद्धाश्रम भी नहीं जा पाती। पता नहीं कैसी। अजीब ज़िंदगी जीती है। मेरे प्रश्न का उत्तर देकर नर्स चली गयी मेरे भीतर अनेक उथलपुथल छोड़कर।

   एक लड़की जो मुझ जैसे हताश निराश व्यक्ति के मन में फिर से ज़िंदगी की आस पैदा कर सकती है वो कैसे अपने ससुराल वालों के द्वारा आरोपित की जा सकती है । जो दूसरों की सेवा सुश्रुषा के लिए अपनी उदासी पर मुखौटा लगाकर हंसती रहती है वो चरित्रहीन कैसे हो सकती है? जो अपनी। माँ की बरसी बुज़ुर्गों की सेवा में बिताती हो वो लापरवाह कैसे हो सकती है? मन में बहुत कुछ उमड़ घुमड़ रहा था और अब तस्वीर मेरे सामने थी। एक लड़की जो अपनी शादी से अपने ससुराल की तिजोरियां भर नहीं पाती वो ऐसे ही चरित्रहीन घोषित कर दी जाती है। बिना अपराध के जब वो समाज का तिरस्कार सहन करती है तो अपने आप को उदासी और अकेलेपन की चादर में छिपा लेती है। लेकिन उसके भीतर का प्रेम सूख नहीं पाता और वो उस प्रेम को वहाँ सींचती है जिनके भीतर आस का पानी रीत चुका होता है। अपने प्रेम को उसने संचित कर रखा होता है ऐसी सूखी, जर्जर पड़ी जड़ों के लिए । उन सूखी जड़ों को पता ही नहीं लगता कि क्या कीमत दे रही होती है वो उनमें अंकुरण करने की।

   आज तक वत्सला से प्रेम कर रही थी मैं एक बेटी के समान लेकिन अब मुझे उसमें माँ का रूप दिखाई देने लगा था । उसके प्रति आदर से मेरा सिर झुक गया था।

   डॉक्टर ने सुबह ख़ुशख़बरी दी कि आज मुझे अस्पताल से छुट्टी मिल रही है। पति, बेटे और बहू से फोन पर बात हुई तो महसूस किया कि वे सब कितने खुश थे। 'हम आ रहे हैं आपको लेने, दोपहर का खाना हम सब घर पर इकट्ठे खाएंगे" बेटे ने बड़े उत्साह से कहा था। लेकिन मैं आज खुशी में भी उदास थी । वो तो शाम को आएगी और मैं तो दोपहर में ही चली जाऊँगी। अब कैसे उससे मिलना हो पायेगा कभी उससे उसका पता या फोन नम्बर पूछा ही नहीं। ना ही। अस्पताल के स्टाफ के पास से कुछ मिल पाया। " हे ईश्वर! तू कैसा निर्दयी है । ये जीवन जिसकी देन है उसके दर्शन के बिना ही मुझे भेज रहा है" मैंने अपने मन में सोचा ।

  मेरी कहानी यहीं ख़त्म हुई । मैं बुझे मन से अपना सामान समेट रही हूँ और सोच रही हूँ काश उससे उसका पता पूछ लिया होता या फोन नम्बर या उसको अपने भीतर की कृतज्ञता ही भेज दी होती। पर अब सोचने के अलावा कुछ शेष नहीं रह गया है। वो एक कागज़ जिस पर मैंने कुछ लिखा था उसके लिये मेरी मुट्ठी में सिसक रहा है । बेटे ने मेरा सामान गाड़ी में रखना शुरू कर दिया है, मैं गाड़ी का दरवाजा खोलकर बैठ रही हूँ अब विदाई है इस अस्पताल से । एक बार मुड़कर इसे देख तो लूँ। मैं मुड़ी हूँ और क्या देख रही हूँ वो दौड़ती हुई आ रही है मेरे होठों पर मुस्कुराहट और आँखों में नमी आ गयी है । वो पास आकर एक क्षण रुकी और दूसरे ही पल उसने मुझे कसकर गले लगा लिया। " आपको विदा किये बिना कैसे भेजती " उसने कहा । मैअपनी पीठ पर उसके स्नेहजल की गर्माहट महसूस कर रही हूँ और अपने भीतर से टूटा हुआ बांध। मैंने धीरे से उसकी मुट्ठी में वो कागज़ का टुकड़ा थमा दिया और गाड़ी में बैठ गयी । आज इस अस्पताल से नई जिंदगी के साथ ही कुछ और भी लेकर जा रही हूँ। मेरी कहानी फिर ख़त्म हुई।

अरे आप जानना चाहते हैं ना कि उस कागज़ पर मैंने क्या लिखा था । उस पर मैंने अपना फोन नम्बर लिखा था और लिखा था हैप्पी मदर्स डे............।



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