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Omza T

Drama

2  

Omza T

Drama

वचन

वचन

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चितनगर के राजमहल में कोहराम मचा हुआ था।

दास - दासियाँ सारे रोने की आवाज़ की और जा रहे थे, जो राजा के कमरे से आ रही थी। कमरे में रानी साहिबा राजा के मृत शरीर के बगल में बैठे विलाप कर रही थी। सारे मंत्री-गण पहले ही वहाँ पहुँच चुके थे। सबके सिर झुके हुए थे। पूरे कमरे में रानी के रोने की आवाज़ गूँज रही थी। किसी ने कुछ नहीं कहा, कहते भी क्या ? सब जानते हैं की अपराधी क्रांतिकारी विजयसिंह या उसका कोई साथी ही है।

जब से राज्य में राजा के विरुद्ध आंदोलन छिड़ा है, तब से राजमहल की सुरक्षा दोगुनी कर दी गयी है। परंतु इसके बावजूद वो लोग राजा की हत्या करने में सफल हो गये ।

मैं इस समय, अपनी पहरेदारी की बारी पूरी करके, अपने कमरे की ओर जा रहा था। तभी बाहर से नारों की आवाज़ें आने लगी।

 “बाहर आइए रानी साहिबा !”

मैं जैसे ही अपने कमरे तक पहुँचा, मैंने अपने साथी को दरवाजे के बाहर देखा।

“ सेनापति जी का आदेश है - सारे सैनिक नीचे पहुँचे। क्रांतिकारियों की बड़ी टोली आ रही है। हालत के बेकाबू होने की आशंका है।”

“ जी।”

इसी के साथ मैं उसके साथ नीचे गया। नीचे कुछ 100 – 200 सैनिक तैयार खड़े थे।

                       तुम लोग सोच रहे होगे कि मैं कौन हूँ और सारा मामला क्या है। तो इसके लिए चलिए समय के चक्र को थोड़ा पीछे घुमाते है -

 

चंद्रकुमार चितनगर के राजा हैं और मैं वासु उसी राज्य का एक मामूली-सा सिपाही। चंद्रकुमार ने कुछ समय पहले ही धोके से हमारे पुराने राजा और अपने भाई सूर्य कुमार को मारकर सिंहासन पर अधिकार कर लिया था। तब से उनके अत्याचारों से तंग आकर कुछ लोगों ने उनके खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया।

कल रात मैं हमेशा की तरह राजमहल के प्रवेश द्वार पर पहरा दे रहा था और सोच रहा था कि क्या मैं सच में ऐसे राजा के लिए काम चाहता हूँ ? सारे सैनिकों को महल में रहने की अनुमति है और हमारी सारी जरूरतों का भी पूरा ख्याल रखा जाता है।

राजा के दुष्कर्मों का ज्ञान मुझे तब हुआ जब मैं महल के बाहर अपने पुराने दोस्तों से मिलने गया। मैंने वहाँ राजा का असली रूप देखा जो महल के अंदर रह रहे लोगों से छुपा हुआ था।

मैं यह सब सोच ही रहा था की मैंने दूर एक झाड़ी में कुछ हलचल देखी। मैंने अपने साथी पहरेदार की और देखा, वो शांत खड़ा आगे की और देख रहा था।

मैं फिर से सोचने लगा और मैंने एक निर्णय लिया - नहीं मैं ऐसे राजा की सहायता नहीं करूँगा। ऐसा सोचते हुए मैं भी अपने साथी की भाँति सामने देखने लगा। उसे लगा मैंने उसे नहीं देखा, पर मैंने उसे देख लिया था , गुप्त मार्ग से महल के भीतर प्रवेश करते हुए। मैंने कुछ नहीं कहा, मैंने विजयसिंह  को भीतर जाने दिया।

 

इसलिए अब हम इस स्थिति में हैं। जिन सैनिकों ने प्रजा की रक्षा का संकल्प लिया था, वही सैनिक आज अपनी प्रजा के विरुद्ध खड़े हैं।

“ आक्रमण !”

क्रांतिकारियों और राजकीय सैनिक के बीच युद्ध छिड़ गया।

एक और मेरे साथी सैनिक, जिनके साथ मैंने अपनी जिंदगी बितायी है, तो दूसरी और वह प्रजा, जिनको सेवा व सुरक्षा का मैंने वचन दिया है।

मैंने निर्णय ले लिया। गले में लटका का राजा चंद्रकुमार दिया माणिक मैंने उतार फेंका और अपना वचन निभाया।

 


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