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Alok Mishra

Drama

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Alok Mishra

Drama

वापसी की चाह

वापसी की चाह

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ये सब उल्टा-पुल्टा क्यों हो रहा है ? जो सोचा था वैसा तो कुछ भी नहीं लग रहा। न अंदर रुकने का मन करता है, न बाहर घूमने का। न टीवी देखने का मन करता है, न मोबाइल और न ही कुछ लिखन-पढ़ने का। उसके रहने पर दिन में भी खूब नींद आती थी, अब तो रात में भी जल्दी पास नहीं फटकती। कहाँ तो सोचा था कि...'उसके जाने के बाद ये सब जी भर करूँगा... न कोई टोकने वाला होगा न ही रोकने वाला। बच्चे भी साथ जा रहे हैं तो जिम्मेदारी भी खत्म। पूरे एक महीने खुलकर जिऊंगा अपने हिसाब से।'...पर सब व्यर्थ जा रहा है। आखिर खुश क्यों नहीं हो पा रहा हूँ मैं? रोजमर्रा की किच- किच से भी मुक्ति है। सास- बहू की रोज- रोज की तकरार और बीच में पिसूं मैं...खैर इस सब से तो सुकून है।

वैसे कितने दिन हुए आज उसे गये...एक, दो, तीन, चार...ऐं बस चार दिन हुए अभी। ऐसा लग रहा है जैसे चार बरस हो गये। अभी तो महीना पूरा होने में छब्बीस- सत्ताइस दिन है। ...करवट बदल लेता हूँ, तकिया भी ढंग का नहीं है ये।...लगता है माँ सो गई है अपने कमरे में...क्या करूँ...उठकर लाइट बंद कर आऊं...ए सब काम वो कर देती थी पता भी नहीं चलता था...जलने ही देता हूँ। कहीं माँ को रात में उठना हुआ तो अंधेरे में गिर- गिरा जाएगी। मुझे भी तो दस बजे तक नींद आ जाती थी... पर अब क्यों नहीं आ रही? रात के बारह तो बज चुके हैं। क्या करूँ...उसे फोन करूँ...नहीं नहीं...बड़ी मुश्किल से बच्चों को सुलाकर तो वो खुद सोई होगी...क्यों परेशान करूँ। सोने की कोशिश करता हूँ।

वैसे एक बात तो है बीबी और बच्चों का खर्चा बहुत है। पिछले चार दिन से कहाँ कुछ खर्च हुआ है। उनके रहने पर तो लूट मची रहती है...एक से बढ़कर एक फ़रमाइश। बार-बार दौड़कर दुकान या बाजार तक जाओ...सबसे मुक्ति है। दूध वगैरह तो माँ ही ले आती है... वरना तो ये भी रोज साथ लेने जाओ...जैसे कोई जरूरी परंपरा हो जो निभानी ही है।

वैसे खाने में तो कुछ समस्या आ रही है। वह अक्सर मेरे पसंद का ही बनाती है। माँ तो इस उम्र में जैसे-तैसे जो सूझता है बना देती है। स्वाद तो माँ के हाथों का लाजवाब है ... पर हाँ वो भी खाना बनाती बहुत अच्छा है। माँ से भी ज्यादा नई-नई डिस बनानी आती है उसे। मन कर रहा है कि कुछ चटपटा खाया जाये। तीन-चार दिन से जुबान उतर सा गया है। ...ओह पर सुबह तो बहुत काम है। कितने कपड़े इकट्ठे हो गये हैं धुलने को बाथरूम में । चार दिन के चार पैंट, चार शर्ट, उतने ही कच्छे बनियायन। अब माँ थोड़े ही धुलेगी इस उम्र में। एक- दो घंटा तो लगेगा ही धुलने में। दो-एक दिन में उसे वापिस आना होता तो न धुलता। पर एक महीने...इतने कपड़े कहाँ हैं पहनने को। रोज कैसे धुल लेती है वो सारे घर के कपड़े ...आज तक शिकायत भी नहीं किया। वैसे नियम ये होना चाहिए कि सब अपने-अपने कपड़े नहाते समय रोज धुल लें। इससे किसी एक को भुगतना भी नहीं पड़ेगा और मेहनत भी कम करनी पड़ेगी।

ये नींद कहाँ भाग गई ? सर में भी दर्द सा लग रहा है। अगर वह होती और उसे पता चल जाता तो तुरंत उठ सर में तेल लगाकर सहला देती। कितना हल्का हाथ है न उसका...ऐसा लगता है जैसे सर पर कोई फूल फेर रहा हो। वैसे जितना वो मेरे दुख- दर्द में तड़प उठती है और मेरी सेवा में लग जाती है उतना मुझसे क्यों नहीं हो पाता ? आखिर वो भी तो इंसान ही है।... कुछ भी हो उसके रहने से रौनक रहती है घर में । और वो दोनों शैतान...मेरी परियां...कितनी प्यारी हैं। दिनभर घर में चहकना, लड़ना, भिड़ना, बोलना...उनके पीछे-पीछे मैं भी थक जाता हूँ । शायद तभी थककर जल्दी सो जाता हूँ। उन दोनों को नहलाने, पढ़ाने, खेलने के लिए पार्क ले जाने जैसे कामों में भी तो टाइम देना होता है। दिन कब निकल जाता है पता ही नहीं चलता। उनके न रहने पर तो समय कट नहीं रहा।क्या करूँ...कल मूवी देख आऊँ क्या ? पर अकेले क्या मजा आएगा? दोस्तों को तो जैसे टाइम ही नहीं होता आज कल, दूसरे के लिए। जब भी बुलाओ कोई न कोई बहाना तैयार। अकेले क्या मजा आएगा ? उन सबको आने दो। सब एक साथ जाकर देख आएँगे...सब खुश हो जाएँगे। पर कल पूरे दिन करूँगा क्या? कैसे टाइम कटेगा? चलो मैं भी माँ के साथ घर की साफ-सफाई में लग जाऊँगा। कुछ समय तो कट जाएगा। किताबें तो काटने दौड़ती हैं। बिल्कुल पढ़ने का मन नहीं करता।

स्कूल पढ़ाने जाता हूँ तो फिर दिन का पता ही नहीं चलता। पर वो भी आजकल बंद हैं। स्कूल बंद हैं तभी तो वह भी जा सकी बच्चों को लेकर। वरना पूरे साल न उसे समय, न बच्चों को और न ही मुझे। अच्छा होता हर बार की तरह मैं इस बार भी साथ जाता। पर इस बार तो अकेले रहकर मजे करने का नशा चढ़ा था... अब भुगतो। फिर भी ये क्या कि गर्मियों की पूरी छुट्टी मायके में ही बिता दो। यहाँ हों तो मिलकर हम सब मस्ती न करें...घूमने जाएँ, सिनेमा देखें, बातचीत करें...मजा आ जाए। पर क्या करें...इन्हीं दिनों में तो उसे अपने माँ- बाप से मिलने, जन्मभूमि को देखने, सखी- सहेलियों से जुड़ने का मौका मिलता है। वैसे ये काम तो दस दिन रुककर भी अच्छे ढंग से हो सकता है। ऐसा करता हूँ कि सुबह उसे फोन करके कह देता हूँ कि 'महीने भर क्या हफ्ता दस दिन बहुत है। तैयार रहो... मैं पाँच-छह दिन में आ रहा हूँ सबको वापिस लिवा लाने के लिये।' आज तो माँ भी बच्चियों की फोटो देखकर उदास हो रही थी। लगता है उसे भी अकेलापन अनुभव हो रहा है। छुट्टियाँ कुछ दिन हम सबको यहाँ साथ- साथ बितानी चाहिए। जिस दिन छुट्टी पड़ी अगले दिन गाँव... ये कोई बात है ? ऐसा करता हूँ कि अभी सो जाता हूँ। सुबह उठकर सबसे पहले फोन भी करना है। सोऊंगा तभी तो आंख खुलेगी समय से।


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