तारीख ईकत्तीस
तारीख ईकत्तीस
तारीख ईकत्तीस थी.....
सर्दियों का मौसम.....,
और दिसम्बर का महिना था....
सूरज ढल रहा था.....,
और अंधेरा बढ़ रहा था.....
चाँद - तारों कि चमक कुहरा निगल रहा था....
हर तरफ़ ओश कि बारिस थी
ना कहीं अलावा और ना कहीं रैन बसेरा था....
मगर फिर भी जाते साल का हिसाब और नए साल का टार्गेट फ़िक्स करने को....
अस्सी घाट पर जोड़ो का मेला था....
क्योंकि तारीख ईकत्तीस थी....
हर जोड़ा गुफ्तगु मे मशगूल था....
कोई आँखो ही आखों में....,
तो कोई हाथो मे हाथ रख कर मशगूल था....
वहीं सीढ़ियों पर बैठा एक नवयुवक....
जिंदगी को धुवें मे फूंक रहा था....
बड़ी सिद्दत से सिगरेट के धुवें के छल्ले..,
बनाकर उन्हे दूर जाता देख रहा था....
मानो अपने खवाबों कि सहज़ादी को..,
सिगरेट के धुवें के छल्लो मे ढूंढ रहा था....
महज आधे घंटे मे वो चार सिगरेट फूँक चूका था...
अचानक बेचैन-सा वह अपनी जेब मे कुछ ढूंढ रहा था....
मानों अपना खोया दिल ढूंढ रहा था....
बेचैनी उसकी देखी गई नही मुझ से...
पास जाकर मैंने पूछ लिया.....
क्या खो गया हैं..?
जिसे ढूंढ रहे हो...?
उसका र्दर्द शब्दों मे फुट पड़ा था...
मानो उसकी दुखती रग पर मैंने हाथ रख दिया था...
बोला आज तारीख ईकत्तीस हैं....
जिसे देखो दुकेला हैं....
मैं आज भी अकेला हूँ....
सुनकर उसका दर्द मैं मुस्कुरा रहा था....
वो कातर नजरो से मेरी तरफ़ देख रहा था...
उसके कुछ बोलने से पहले हि मैं बोल पड़ा था....
कि अच्छा हैं....
जो अकेले हो....
जो दिख रहे हैं आज दुकेले...
वो तुम्हारा वहम हैं....
और जो महसूस कर रहे हैं...,
हमराही एक दूजे को...,
वो उनका भ्रम हैं....
जो आज साथ-साथ हैं...,
वो कल भी साथ थे....,
और कल भी साथ होंगे....
फर्क बस इतना हैं....
कल वो किसी दूसरे के साथ थे...
और कल फिर किसी दूसरे के साथ होंगे...
क्योंकि इनका साथ होना जरूरत पर निर्भर हैं....
और इनका साथ इच्छा से चलता हैं....
पर जरूरतें कभी पूरी नही होती.....
और इच्छाएं कभी खत्म नही होती....
इसलिए इनका साथ लंबा नही....,
छोटा होता हैं....,
और एक समय अंतराल पर रोना, लड़ना शुरू होकर...,
इनका अलग-अलग होना तय होता हैं...,
ताकि फिर कोई साथी साथ आए...,
फ़िर किसी के साथ होने का भ्रम पाला जाए....
इनके जीवन मे 36 आते और जाते हैं....,
पर असली वाला इनके मम्मी-डैडी ही लाते हैं....
मालूम होता हैं इन्हे यह सब मगर फ़िर भी इनको...,
किसी के साथ होने का भ्रम पालना अच्छा लगता हैं....
आख़िर मसला जो जरूरतों और इच्छाओं का हैं....
इसलिए अच्छा हैं....,
जो अकेले हो....
ऐसे साथ या हमसफर से अच्छा..,
तो अकेला होना अच्छा हैं...
तुम्हारे दुकेले होने से अच्छा...,
तुम्हारा अकेला होना अच्छा है...
सुन मेरी बात वो हुआ प्रसन्न....
फेका सिगरेट का डिब्बा..,
और उसने चूम लिया माचिस का डिब्बा...
यह देखकर मैं हैरान हुआ...
और पूछ लिया...,
फ़ेक दिया तुमने सिगरेट का डिब्बा..,
पर क्यो नही फेका माचिस का डिब्बा...?
ऐसे क्या कोई चूमता हैं माचिस का डिब्बा...?
वो बोला जो नही खत्म होती माचिस कि तिलिया...
फूँक चूका होता पुरा सिगरेट का डिब्बा....
ना मिलते कविवर आप मुझे....
ना मिलता यह अद्भुत ज्ञान मुझे....
जिंदगी को धुवें मे अबतक फूंक रहा था....
जिंदगी मे अब कुछ कर जाऊँगा....
अकेला होना...,
ऐसे दुकेले होने से अच्छा हैं...,
यह सबको बतलाऊंगा....
जब असली वाला मम्मी-डैडी ही लाएंगे...
तो ऐसे दुकेले होने का भ्रम क्यों पाला जाए...?
यादगार हो गई ये तारीख ईकत्तीस....
चरण स्पर्श करता हूँ कविवर...
अब चलता हूँ अपने घर...
जाते साल का हिसाब और नए साल का टार्गेट फ़िक्स करना हैं...
मम्मी-डैडी इंतजार कर रहे होंगे....
क्योंकि आज तारीख इकत्तीस हैं l