सूखी टहनी
सूखी टहनी
दिसंबर की सुहानी शाम शुरू हो गई थी। वृक्षों की टहनियां सफेद दूधिया ऊन के स्वेटरों में लिपटी सी लग रही थी। पच्चीस दिसंबर का चिरपरिचित दिन अपने नाज नखरें समेटे आखिर आ ही पहुंचा। क्रिसमस की शाम नशे में नहाई जवानी की उमंग को लुटाती किसी चंचल नव- यौवना की तरह लग रही थी। रंग-बिरंगे बल्बों की चकाचौंध, रंगीन चमकते रीबनों की झालर, क्रिसमस- डे में करीने से सजे लाल, हरे, नीले, पीले गुब्बारे और लुभावने खिलौने सब मिलाकर यूं लग रहा था कि कोई जादू नगरी में आ गए हो।
आभा ने सीरिल के कहने पर आज सफेद जरीदार बनारसी साड़ी पहनी थी। उसकी सुराही दार गर्दन पर ऊंचा जूड़ा बहुत आकर्षक लग रहा था।उसके गोरे गोरे हाथों में उसने भर भर के चूड़ियां पहनी थी, जो कभी उसकी चाची ने उसे गिफ्ट दी थी और जिन्हें उसने अनदेखा कर एक तरफ रख दिया था परंतु आज उन्हें उसने अच्छी तरह से चमका लिया था। तैयार होकर आईने के सामने खड़ी हुई तो अचानक उसकी आंखें बीती यादों को याद कर भर अाई और ऐसा लगा कि मानो किसी ने बहुत सारे कांटे एक साथ चुभो दिए हो।
पार्टी से लौटकर उसने पीयूष को उसके कमरे में सुला दिया और कपड़े बदलने लगी तभी सिरिल ने दोनों बाहें फैला दी- अरे रहने भी दो, इसे मत बदलो, इस पोशाक में तुम शहजादी लग रही हो। धत_ बहुत बदमाश हो गए हो कहती हुई वह स्वयं सिरिल की बाहों में समा गई।रात गहरी हो चली थी। आभा सीलिंग में लगे पंखे पर नजरें गड़ाए कहीं खो गई। अभी वह बी.ए. फाइनल कर ही रही थी कि शादी तय हो गई और चट मंगनी पट ब्याह वाली कहावत चरितार्थ हो गई। भरा पूरा परिवार और पति के रूप में भूपेंद्र को पाकर वह बहुत खुश थी और जल्द ही दोनों के बीच उनके प्यार की निशानी पीयूष भी आ गया था।
चैत की बौराई हवा जैसे भांग पीकर मदमाती सी तनमन को गुदगुदा रही थी। उसे रह-रहकर भूपेंद्र की शरारतें याद आ रही थी। घड़ी की तरफ देखा तो अभी दो ही बजे थे और अभी भूपेंद्र को आने में पूरे चार घंटे थे। भूपेंद्र मैग्नीज माइंस में खान इंजीनियर थे। पर उसकी उम्मीद से अलग अचानक घंटी बजी, देखा तो सामने भूपेंद्र खड़े थे।
वह चौक गई अरे- आप... आप खुशी से झूम उठी। भूपेंद्र ने भी मुस्कुरा कर उसका हाथ पकड़ लिया क्यों नहीं आना था क्या मुझे? शरारत से पूछा तो वह शरमा गई। अरे पगली एक खुशखबरी लाया हूं। क्या? मुझे गवर्नमेंट की तरफ से एक साल के लिए विदेश भेजा जा रहा है। यानी मुझे एक महीने के अंदर इंग्लैंड पहुंचना है। सच में तुम मेरे लिए बहुत लकी हो, पहले मुझे पीयूष के जैसा प्यारा तोहफा दिया और अब ये, मिल गया है कहते हुए भूपेंद्र ने आभा को अपनी बाहों में भर लिया।
आभा की आंखें ये सोचकर ही भर आई कि भूपेंद्र उसे छोड़ कर इतनी दूर चले जाएगा। आभा की आंखों में आंसू देख वह बोल पड़ा पगली तुम रो रही हो, मैं कोई हमेशा- हमेशा के लिए थोड़ी जा रहा हूं वहां सेट होते ही तुम लोगों को बुला लूंगा और साल भर के अंदर ही आभा और पीयूष को उसने सच में ही बुला लिया था।
इंग्लैंड में समय काटने आभा ने भी बहुत सारे कोर्स ज्वाइन कर लिए और अब तो पीयूष भी स्कूल जाने लगा था। इन तीन सालों में भूपेंद्र की फिर से पदोन्नति हो गई और वह वापस आकर अपने अवाई वतन मध्यप्रदेश के बालाघाट जिले में रहने लगे। अब पीयूष भी फस्ट में जा पहुंचा था।
आभा ने जल्दी-जल्दी पीयूष और भूपेंद्र का टिफिन तैयार किया और ड्राइंग रूम में आ गई भूपेंद्र किसी से फोन में बात कर रहे थे और काफी टेंशन में थे। फोन रखते ही आभा से बोले आभा आज पीयूष को तुम स्कूल छोड़ देना प्लीज! मुझे इमरजेंसी है। क्या हुआ? आप इतने परेशान क्यों हैं ? बस कुछ नहीं खदान में शायद कोई हादसा हुआ है मुझे फौरन जाना पड़ेगा। मैं आता हूं फिर नाश्ता साथ करेंगे। कहकर भूपेंद्र कार स्टार्ट कर चला गया।
इधर आभा ने भी पीयूष को स्कूल छोड़ा और घर समेटने लगी। तभी बरामदे में तेज चीख-पुकार सुन उस के कदम ठिठक गए, वह किसी अनजानी आशंका से घबरा उठी, उसने तेजी से वॉचमैन को आवाज लगाई वीर सिंह.... वीर सिंह क्या हुआ? यह कैसा शोर है? क्या कहे मेम साहब यह शंकर आया है कह रहा है कि साहब जिस खदान में गए रहे वह पूरी तरह धसक गई है, सब लोग अंदर ही फंस गए हैं।
क्या.. नहीं… नहीं.. निर्ममता से बोथरे चाकू से रेते जा रहे मेमने की तरह एक दर्दनाक चीख निकल कर मनहूस हवाओं में खो गई और आभा बेहोश होकर गिर पड़ी। कुछ देर बाद उसने अपने को सास, ननंद, देवर,जेठ सभी से घिरा पाया। सभी की आंखें आंसुओं में डूबी थी। सासु मां दहाड़े मार-मार कर रो रही थी। पीयूष भी रोते-रोते उससे लिपट गया अपने आसपास की परस्थिति देख आभा समझ गई थी कि उसका सब कुछ लुट चुका है। समय गुजरता गया।सभी भूपेंद्र की मौत का दर्द भूलने लगे, मगर उसके हृदय का जख्म अब तक एक बड़ी खाई के रूप में बदल चुका था जिसे पाटना बहुत मुश्किल था।
उसे तो अब ये लगने लगा था कि दिनरात कोई विषधर है जो उसे हर वक्त डसते ही रहना चाहते हैं। उसे कितनी भयानक लगती थी यह सूनी कलाइयां, सूनी मांग। कभी कोशिश भी करती की सब भूल जाऊं तो यादों के डंक किसी बिच्छू की तरह डस जाते और रही सही कसर पीयूष के सवाल पूरे कर देते। आखिर इन सब से बचने के लिए उसने अपनी सखी नीरा के कहने पर स्कूल की नौकरी ज्वाइन कर ली कि कम से कम दिल तो लगा रहेगा।
वह जी रही थी क्योंकि सांसों की धोकनी अभी चल रही थी। उसका धड़कना अभी बंद नहीं हुआ था। हंस रही थी तो यंत्रवत सी जैसे कोई दस्तूर। कभी चाहा कि खुले आकाश तले चंद सांसे ले, ले तो जन्मजात संस्कार किसी काले नाग की तरह डसने लगते।
सिरिल सामने वाली चाची का मौसेरा भाई था। गोरा छरहेरा, मस्त प्रवृत्ति का। वह छुट्टी में आया था। पूरा घर तो जैसे उसका दीवाना था और पीयूष तो उससे ऐसा घुल मिल गया था की दिनभर अंकल अंकल कहते उसकी जबान न थकती थी।
आभा अपने आप में डूबी हुई थी कि कॉल बेल बज उठी।
अपनी साडी ठीक करते हुए उसने दरवाजा खोला तो आवाज आई क्या मैं अंदर आ सकता हूं ? यह सीरिल था। आइए- आइए कहकर वह एक और हट गई। पर अंदर ही अंदर उसका दिल धड़क उठा। इतनी दोपहर और सूने मकान में वह अकेली, जी चाहा कह दे अभी टाइम नहीं है पर कुछ ना कह सकी। सिरिल सोफे पर जा बैठा। वह सोच में पड़ गई कि क्या करें। तभी सीरिल बोला- मैंने आज पिक्चर के लिए खबर भेजा था, आप क्यों नहीं आई ? सुनकर उसके विचारों को झटका लगा। बस यूं ही थोड़ी साफ सफाई करनी थी। छुट्टी का एक ही दिन तो मिलता है ना।
कॉफी पीते हुए औपचारिक चर्चा होती रही। बीच-बीच में उसने आभा के बारे में जानना चाहा पर आभा ने कोई दिलचस्पी नहीं ली और बड़ी उदासीनता से विषय को बदल दिया। चलते समय सिरिल ने कहा कि कल शाम आप यदि मेरे साथ फिल्म देखें तो मैं शुक्रगुजार रहूंगा। अरे पियूष को अकेला कैसे छोडूंगी। अरे उसे क्यों छोड़ेंगे, वह भी साथ जाएगा। अब बोलिए चलेंगी ना? या कोई एतराज है मेरे साथ जाने में! नहीं नहीं ऐसी कोई बात नहीं है मैं तैयार रहूंगी उसने बात को संभाला।
फिल्म से लौटकर होटल में खाना खाकर सीरिल दोनों को घर छोड़कर चला गया पर जाते-जाते बहुत भावुक हो गया था। परसो शाम मेरी फ्लाइट है मैं चला जाऊंगा। पर बहुत याद आयेगी आप। अगर मुझसे अनजाने में कोई गलती हुई हो तो माफ कीजिएगा। शुभ रात्रि कह पीयूष को प्यार करके चला गया।
आभा पूरी रात ना हो सकी। उसे सिरिल की आंखों में एक कसक और प्यास दिखाई दी थी। कैसी अजीब सी निगाहें थी उसकी, जो रात के सन्नाटे में भी उसका पीछा करती रही। सिरिल चला गया। वहां पहुंचते ही उसने उसे पत्र लिखा- बिना परमिशन लेटर लिख रहा हूं माफी चाहता हूं। आपके साथ बीते पल याद आते हैं। चाची जी से आप के विषय में जानकर बहुत दुख हुआ। आपका दुख बांटना चाहता हूं। आप अपने दिल पर जानबूझकर वजनी पत्थर रखकर उसे कुचल देना चाहती हैं। पर मेरा मन आपकी उदासी देख बेचैन हो उठता है, दिल चाहता है कि आपके निर्दोष कोमल होंठों पर हंसी के तरन्नुम गूंज उठे। आप नाराज मत होना मैं आपको हमेशा खुश देखना चाहता हूं बस। आपका सिरिल।
पत्र पढ़ते ही आभा रो पड़ी। सिरिल छोड़ दो मुझे मैं सिर्फ रोने के लिए ही बनी हूं। मेरे होठ अब ना हंस पाएंगे। क्योंकि वह हालात के लौह शिकंजे में कैद पंछी की तरह सिर्फ फड़फड़ाना और तड़पना जानते हैं और अपनी वेदना अंदर ही अंदर पीते हैं। मैं दर्द पीने के लिए ही बनी हूं, मुस्कुराने के लिए नहीं, वह रोती रही और तकिया भिगोती रही। वक़्त अपनी रफ्तार से बढ़े चला जा रहा था।आभा ने सब कुछ भुलाकर अपनी नौकरी और पीयूष की परवरिश पे ध्यान लगा लिया था।कभी कुछ याद भी आता तो वह उसे झटक देती। उसने अब इसे है अपनी नियती मान लिया था।
आज चाची जी के यहां महा लक्ष्मी पूजन था। वह सुबह से कई बार आभा को बुला चुकी थी। आभा ने भी सोचा आज स्कूल की छुट्टी है चले ही जाती हूं। पीयूष का मन भी बहल जाएगा और चाची जी भी खुश हो जाएंगी।वह जल्दी से नहा कर तैयार हो गई।आभा को अाया देख खुशी से चाची ने लिपटा लिया।आभा को भी उनके यहां बहुत अच्छा लगता था। ऐसा लगता था की जैसे वह मायके में आ गई हो। पीयूष तो जाते ही कार्टून लगा कर टीवी के सामने बैठ गया। तभी चाची के बड़े पोते ने कहा दादी सिरिल चाचा को अभी आधा घंटा और लगेगा।
सिरिल का नाम सुनते ही आभा का चेहरा सुर्ख हो गया। उसने सवालिया निगाहों से चाची की तरफ देखा और शिकायत की आपने मुझे नहीं बताया कि सिरिल भी आ रहे हैं? तो चाची जी हंस पड़ी- अरे बेटा अब उसका आना और ना आना बराबर है। एक पैर यहां है तो दूसरा सरकारी क्वार्टर में। सरकारी क्वार्टर में ? आभा ने आश्चर्य से पूछा, हां... हां सरकारी क्वार्टर। अरे तुझे शायद नहीं मालूम, पिछले बार जब वह यहां आया था तो पता नहीं किस लड़की को अपना दिल दे बैठा और ठीक तीन माह बाद ही उसने उदयपुर छोड़ यहां नौकरी ज्वाइन कर ली थी। वो आता ही होगा पास में ही तो है उसका क्वाटर कहते हुए चाची जी पंडित जी से बात करने लगी।
आभा आवाक खड़ी रह गई उसके कानों में चाची के शब्द गूंज रहे थे। बेटा सीरिल किसी लड़की को यहां दिल दे बैठा है तो क्या मैं ही हूं वो? जिसके पीछे सीरिल ने अपनी इतनी अच्छी नौकरी छोड़ दी। क्या कोई इस तरह भी किसी को चाह सकता है कि अपना सब कुछ कुर्बान कर दे? उसकी आंखों की कोरें भीग गई। दिल फिर सवाल कर उठा क्या सीरिल आज भी उसके जवाब का इंतजार कर रहा है? क्या आज भी वह अपनी मोहब्बत से उसके बेजान शरीर में प्राण फुंकना चाहता है ?तभी पीयूष की आवाज ने उसकी तंद्रा तोड़ी - सिरिल अंकल सिरिल अंकल कहता हुआ पीयूष उसकी गोदी में समा गया था सिरिल ने भी उसकी ढेर सारी किस्सी ली और बहुत सारे चॉकलेट और खिलौने उसे पकड़ा दिए और दूसरे ही पल पीयूष मगन था अपने खिलौनों में, कभी मोटर भगाता, कभी बंदर, तो कभी हवाई जहाज। तभी सिरिल ने चुपचाप खड़ी आभा की तरफ एक पैकेट बढ़ा दिया। अगर ऐतराज ना हो तो मेरी तरफ से यह छोटी सी भेंट स्वीकार कीजिए। बहुत खूबसूरत शॉल था। धन्यवाद देती हुई आभा ने कहा इतनी महंगी नहीं लानी थी फिजूल में इतना पैसा खर्च किया। सीरिल की आंखों में दर्द की एक गहरी लकीर सी उठी, बेबसी से उसे देखते हुए उसने कहा तुम्हारे सामने यह तो कुछ भी नहीं है मैं यदि आसमान के तारे भी तोड़ लाऊं तो वह भी कम है। कहते-कहते उसका गला रूंध गया।
आभा आवाक सी उसे देखती रही और कहां मेरे लिए इतना ना करो मैं बहुत आभागी हूं। जो पेड़ सूख गया है उसे हरा करने की कोशिश ना करो। व्यर्थ परेशान होगे कोई फायदा ना होगा।सिरिल तड़प के बोल उठा- आभा तुम जानबूझकर अपने आप को मार रही हो। तुम जीना क्यों नहीं चाहती।
इसीलिए कि मेरे हिस्से की खुशी मैं जी चुकी हूं अब मुझे इसकी परमिशन नहीं।नहीं यह गलत है।तुम अपनी भावनाओं को कुचल रही हो।तुम उन पर कुंडली मारकर बैठ गई हो। अपने आसपास तुमने एक आवरण से बना रखा है और हर पल अपनी भावनाओं का गला घोट तुम कभी किस्मत को दोष देती हो कभी वक्त को। तुम किसी की आवाज नहीं सुनना चाहती ना मेरी, ना पीयूष की, ना अपनी आत्मा की? क्यों मैं सच कह रहा हूं ना सिरिल ने कहा- तो उसकी बात बीच में ही काटते हुए आभा रो पडी, प्लीज... मुझे अकेला छोड़ दो मैं पहले ही बहुत दुखी हूं मुझे और दुखी मत करो।
माफ करना आभा तुम्हें तकलीफ नहीं देना चाहता था। पर क्या करूं दिल से मजबूर हूं। मैं जान देकर भी तुम्हारी खुशी वापस लाना चाहता हूं। अपने प्यार और खून से सींच कर सूखे पेड़ पर फूल खिलाना चाहता हूं, तुम्हें हंसता हुआ देखना चाहता हूं यदि तुम्हें कोई एतराज ना हो तो।
बिना कुछ बोले आभा ने सिरिल की तरफ अपनी भीगी पलके उठा दी जैसे पूछ रही हो, कर सकोगे इतना त्याग अपने समाज से लड़ कर एक अनजानी परदेसी लड़की के लिए, इतना बड़ा खतरा मोल ले पाओगे? दे सकोगे जवाब इस समाज को, रिश्तेदारों को ?
आभा और सीरिल कहां हो जल्दी से आ जाओ खाना तैयार है चाची की आवाज ने दोनों को चौका दिया। आभा के हाथ में रखा शॉल चाची को बहुत पसंद आया उन्होंने सीरिल की पसंद की जी भर के तारीफ की और शाल निकाल कर आभा को ओढ़ा दिया। अपने इर्द-गिर्द लिपटा शॉल आभा को सिरिल की मजबूत बांहों सा लग रहा था मानो उसको ठोकर लगते ही संभाल लेगा।
वह सोचने लगी क्या करें वह झटक दे इन मजबूत बांहों को या फिर स्वीकार कर ले क्योंकि वो भी महसूस कर रही थी कि सीरिल ने उसकी मृतआकांक्षाओ को फिर से जीवित कर दिया है, वरना वह तो एक जिंदा लाश ही रह गई थी जो हंसना और जीना बिल्कुल ही भूल गई थी। वह इन दस सालों में जान चुकी थी कि, कितना असहनीय होता है जिंदा लाश बन के रहना। जहां लोगों को किसी की विधवा से कोई सरोकार नहीं होता। जहां लोग किसी की जिम्मेदारी नहीं उठाना चाहते, सिर्फ उपदेश देना व दबाना चाहते हैं। संस्कारों की दुहाई दे जिंदा ही दफन कर देना चाहते हैं।
तभी सीरिल बोल उठा- आभा क्या मैं कभी तुम्हें हंसा पाऊंगा, तुम्हें और पीयूष को एक नई जिंदगी दे पाऊंगा ? दे पाओगे नहीं दे चुके हो कहते हुए आभा ने अपनी डबडबा आई आंखें पोछी और सिरील के हाथों पर अपना हाथ रख दिया। हां सिरिल मैंने अपने आप से बहुत लड़ाई लड़ी और जीत तुम्हारी हुई। देखो मेरे जीवन में भी बसंत ने फिर से दस्तक दे दी है चारों तरफ सरसों के पीले पीले फूल खिल उठे हैं। सरोवरों के कमलों पर भ वं रे गुंजायमान हैं। ऋतुराज बसंत जैसे खुद मेरे स्वागत में तैयार खड़े हैं।फिर तुम्हारे निश्चल प्यार और अपनेपन ने तो आज मुझ जैसे ठूंठ में भी नई कोपलें उगा दी हैं और अब यह सूखी टहनी भी हरि होना चाहती है। बस इसमें मेरा एक स्वार्थ और जुड़ा है और वह है मेरा पियूष ! नहीं आभा तुम्हारा नहीं हमारा पीयूष कहते हुए सिरिल ने आभा को गले से लगा लिया। और पर्दे के पीछे खड़ी चाची मंद मंद मुस्कुरा रही थी।