सौदागर
सौदागर
कल शाम, एक सौदागर आया मेरी गली। घर-घर उसने अपनी फेरी लगाई, मगर मेरे दरवाज़े पर वो रुका नहीं । मैं, अपने ख्यालों का ताना –बाना बुनते हुए, उस वक़्त छत पर टहल रहा था। यकबयक मेरी नज़र चली गयी उसकी ज़ानिब । आख़िर ये कौन तौर, कहाँ का तरीका है ? सारी गली में इक मेरा ही घर अनदेखा करना कहाँ तक वाज़िब है ।
गौर से देखा तो एक पुरानी मैली सी झोली उठाये, वो कमज़ोर सा दिखने वाला अधेड़, बड़ी जोर जोर से आवाज़ लगा रहा था, “ख्व़ाब ले लो ख्व़ाब” । उसकी आवाज़ सुन मैं ठिठका, और हैरानी से उसकी ओर देखा, “कौन है जो ख्व़ाब बेच रहा है । शायद मासूम, भोले-भाले लोगों को ठग रहा है”। छत की मुंडेर से मैं उसे गौर से देखने लगा और मन ही मन तोलने लगा ।
“चटख सुर्ख हैं और निरे स्याह भी।”
“मिलेंगे ऐसे रंगीन खवाब कहीं नहीं।”
“भैया ! इनमे ज्यादा तो टूटे हुए हैं”“बीबी जी ! बड़े नाज़ुक होते हैं ये।”
मैं ध्यान से उसकी और पड़ोस की महिला की बातें सुन रहा था और कहीं न कहीं परेशान भी हो रहा था, कि आख़िर कौन है यह ? ख्व़ाब कैसे बेच रहा है ?उनका सौदा होते देख, मैंने आवाज़ लगाई, “ज़रा इधर ऊपर आओ भाई”।
कुछ ठहर के, पलटा वो और मुझे देख कर मुस्कराया। इक अदा से उसने हाथ हवा में घुमाया, और बोला "चीज़ ये आपके मतलब की नहीं साहब"
"नींद लाज़मी है आने को ख़्वाब।"