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Kirti Prakash

Drama romance inspirational

1.0  

Kirti Prakash

Drama romance inspirational

रिवाज़

रिवाज़

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हाँ मै बस निकल चुका, कहते हुए रोहन ने गाड़ी स्टार्ट कर दी। रोहन को अपने पिता के व्यवसाय मेंं कोई दिलचस्पी नहीं थी। उसने अपने लिए अपने योग्यता को परखना ही ठीक समझा और उसको नौकरी मिल गई थी। दूसरे शहर मेंं अपने दम पर एक छोटा सा घर भी ले लिया था। हालाँकि दादी और पिता दोनों को ही उसका ये फैसला पसंद नहीं था और इसके लिए दोनों रोहन की माँ को दोषी मानते थे।

रोहन की दादी को दोपहर मेंं ज़रा घुटने मेंं दर्द महसूस हुई सो आज शहर के सबसे बड़े और महंगे हॉस्पिटल मेंं लेकर जा रहे हैं। रोहन के पिता उमाकांत जी ने अपने बेटे रोहन को कॉल किया।

चमचमाती कार जैसे ही हॉस्पिटल के गेट पे रुकी आकर, एक साथ 4 - 6 लोग कार के दरवाज़े की ओर दौड़े। दादी को अंदर ले जाया गया। वैसे कोई ख़ास बीमारी ना थी बस उम्र का असर था, फिर भी डॉक्टर्स को उमाकांत जी जैसे मिलिट्री की परेड की तरह लगाए हुए थे। ये बस उनके परिवार का रुतबा ही ऐसा था शहर मेंं। थोड़ी देर में रोहन पहुंच चुका था। दादी का लाडला जैसे ही पहुंचा दादी दोहरी हो गयीं देखकर। रोहन ने पूछा माँ नहीं आई, उमाकांत जी ने अजीब सी नज़रों से देखा और कुछ नहीं बोले। रोहन समझ गया, ये नई बात नहीं थी।

रोहन की माँ आशा इस अमीर परिवार की वैसे तो एकलौती बहू हैं लेकिन उनका इस परिवार में कुछ भी बोलने का हक़ कभी नहीं रहा। कारण था वो एक साधारण परिवार की बेटी थी। आशा के पिता का एक किराना स्टोर था पर उन्होने अपनी बेटी आशा को बहुत अच्छी शिक्षा दिलवायी थी। आशा का एक छोटा भाई 11 वर्ष की उम्र मेंं ही स्कूल से आते हुए एक दिन सड़क दुर्घटना का शिकार हो गया था। अब आशा ही बस अपने माता पिता की एकमात्र आशा थी। आशा भी पढ़ाई मेंं बहुत अव्वल थी लिहाजा माता पिता का एक सुनहरा सपना थी आशा। पर उन्ही दिनों उमाकांत जी का दिल अपनी सहपाठी आशा पर आ गया क्योंकि वो बहुत खूबसूरत भी थी और पढ़ाई मेंं अव्वल होने के कारण लोगों की नज़रों मेंं भी। उमाकांत के अमीर और व्यवसायी माता पिता ने अपने एकलौते बेटे के दिल को तोड़ना ठीक नहीं समझा और आशा इस परिवार की बहू बनकर आ गयी। बस वो दिन और आज तक आशा सिर्फ यहाँ रहती है पर एक खूबसूरत सामान की तरह। आशा का बहुत दिल करता कि कभी अपने मायके जाए अपने माता-पिता से मिले पर उसको इसकी इज़ाज़त बहुत कम ही मिलती। शुरूआत मेंं कभी 1 - 2 दिन रह आती थी पर रोहन के जन्म के बाद तो ये सिलसिला ख़त्म ही हो गया।

रोहन 5 साल का था जब आशा के पिता अचानक हार्ट अटैक से गुज़र गए। ससुराल मेंं कहा गया तुम जाओ पर रोहन को लेकर जाने की कोई ज़रूरत नहीं। ड्राइवर के साथ आशा को मायके भेज दिया गया और और फिर सारे संस्कार के ख़त्म होने के बाद ड्राइवर को भेज दिया था लाने। माँ को अकेले छोड़ कर आने का मन नहीं था आशा का लेकिन कुछ नहीं हो सकता था। हालांकि एहसान जैसा ही कुछ पर उमाकांत ने कहा था कि चाहो तो अपनी मां को यहां ले आना, इतनी बड़ी हवेली मेंं एक उनके रहने से हमें कोई दिक्कत नहीं है। पर आशा खुद अपने ही घर में ससुराल मेंं एक ख़ूबसूरत बहुमूल्य सामान से ज़्यादा कुछ ना थी ऐसे मेंं मां को लाना ये सोचना भी बेकार ही था। थोड़ा और रुकना चाहा तो सासु मां का फ़रमान जारी हो गया, वहीं रहो अब। आना ही पड़ा आशा को माँ को अकेला छोड़।

रोहन जब थोड़ा बड़ा हुआ अक्सर दूसरे बच्चों से सुनकर अपने नाना नानी के पास जाने की बात करता। पर रोहन से कहा जाता कि कोई है ही नहीं कहाँ जाओगे। दादी दादा इतना प्यार करते थे रोहन को, कि धीरे धीरे रोहन नाना नानी जैसे शब्दों को भी भूल गया।

आशा के पिता के गुज़रने के बाद दुकान चलना थोड़ा मुश्किल होता जा रहा था। फिर भी आशा की माँ जबतक संभव था चलाती रही। एक नौकर भी रखा पर अकेली औरत जान वो भी बहुत कुछ इधर-उधर कर दुकान का आधा से भी ज़्यादा समान का चूना लगा गया। पास पड़ोस वाले कहते भी, इतना अमीर घराना है बेटी दामाद का, उनसे मदद क्यूँ नहीं लेती। आशा ने भी कई बार किसी ना किसी बहाने मदद करने की कोशिश की पर वही रिवाज़ की बेड़ियाँ थी पावों में। बेटी के घर का पानी भी नहीं पी सकती ये कह कर उन्होने कभी आशा की कोई मदद भी नहीं ली। आशा बहुत बार चाहती कि कुछ पैसे से ही माँ की मुश्किलें कम कर दूँ लेकिन समाज ने खोखले रिवाज़ों को इतना कूट पीस कर इंसान के दिमाग़ मेंं भरा है कि क्या कहा जाए। आशा ने ये भी कहा कि मां जो तुमने मुझे मेंरी शादी पर गहने दिए हैं कम से कम वही ले लो, वो तो मेरे ससुराल का नहीं है। पर माँ ने साफ़ इनकार कर दिया कि जो गहने बेटी को शादी पर दिए वो वापस लेने का पाप नहीं कर सकती। शादी शुदा बेटी के गहने ये तो घोर पाप है, मै नही कर सकती जीते जी ये पाप, माँ ने ना कह दी। आशा की माँ के हालात बद से बदतर होते जा रहे थे। रिश्तेदार कब किसका हुआ है, पड़ोसी भी उसके ही होते हैं जिनसे बदले मेंं कुछ उम्मीद हो। अकेली औरत और उसपे उम्र भी बढ़ती जा रही थी।

लोग कहते हैं औलाद ज़रूर होनी चाहिये लेकिन साथ ही इतने बेड़ियाँ भी दे देती है समाज कि फिर संतान होना य

ा ना होना दोनों एक सा ही हो जाता है। आशा की माँ जब तक संभव था दुकान का सामान बेच बेचकर काम चलाती रही। 4 - 5 वर्ष निकल गए। फिर रखी गयी थोड़ी बहुत जमापूंजी भी ख़तम हुई। अब घर के समान भी बिकने लगे। लेकिन कब तक। आख़िर दो रोटियों के भी लाले पड़ गए। कुछ ना सूझ रहा था। पर साँस जबतक है जीना तो पड़ता है। उम्र का अंतिम पड़ाव और कोई साथ नहीं। पति के बिना ज़िन्दगी क्या से क्या हो गयी। माना कि अमीरों से ठाट बाट ना थे लेकिन पति के सामने उनको खाने पीने पहनने ओढ़ने की कोई कमी ना थी। लेकिन अब सबकुछ बदल गया था।

रोहन घर आया तो माँ का उदास चेहरा था। बहुत पूछा रोहन ने पर माँ ने कुछ नहीं बताया। लेकिन आज रोहन ज़िद पे आ गया तो आशा ने बताया कि अभी एक पड़ोसी को अपनी माँ का हाल जानने के लिए फोन किया था और उनके हाल जानने के बाद ही बहुत दुखी है। माँ बुरे हालात मेंं आ गयी हैं पर मदद लेने को राज़ी नहीं। रोहन जानता ही कहाँ था कि उसकी नानी जीवित है और इस हाल मेंं। रोहन एक पल को सुन्न पड़ गया। लेकिन दूसरे ही पल कुछ फैसला लिया उसने।

आशा की माँ अपने हालात से लड़ने की कोशिश कर रही है। इंसान को कुछ चाहिए या नहीं लेकिन रोटी तो चाहिए जबतक ज़िन्दगी है। बचेख़ुचे कुछ रुपयों से बस यही संभव था। बच्चों के स्कूल के बाहर बेचारी खट्टी मीठी चूरन की गोलियाँ और दाने बेचना शुरू कर दी। आज भी उठकर सुबह सुबह वही तैयारी में लगी थी कि बच्चों के आने से पहले ये चूरन की गोलियाँ लेकर स्कूल के गेट पे पहुंच जाए। आँखो की रोशनी भी कम हो चली थी। बेचारी किसी तरह छोटी छोटी पाकेट बनाने मेंं जुटी थी जल्दी जल्दी। तभी गाड़ी रुकने की आवाज़ से चौंकी। एक लंबा चौड़ा संभ्रांत नवयुवक गाड़ी से निकलकर सामने आकर रुका।

आप आशा की माँ है ?-उसने पूछा।

एक क्षण को वो हैरान रह गई। इस तरह से बरसों के बाद किसी ने 'आशा की माँ' कहा था। अपनी बेटी के होते हुए भी उन्होंने अपना जीवन लंबे वक़्त से अकेले ही गुज़ारा था। और बेटी का अमीर परिवार की बहू होने के कारण वो उसका नाम भी नहीं लेती थी, नहीं चाहती थी उसकी दयनीय स्थिति के कारण बेटी को ससुराल मेंं हंसी का पात्र बनना पड़े।

उसने हैरानी से नवयुवक की ओर देखा।

तुम किस आशा के बारे मेंं पूछ रहे हो बेटा। वैसे तो मेरी बेटी का नाम भी आशा है।

नवयुवक ने बढ़कर उस वृद्ध हाथों को थाम लिया। आप, आप - आपको ही (उसकी आवाज़ गले मेंं ही रूंधने लगी) ढूंढने आया हूँ अम्मा।

उनकी आंखे फटी रह गयी.

मुझे ? ?

हाँ नानी माँ.. आपको।

नानी माँ - तो तुम रोहन हो ?

हाँ आपका रोहन।

उनका हाथ रोहन के सर की तरफ उठा। लेकिन गरीबी का एहसास इंसान को अपनी भावना को प्रकट करने की भी इजाज़त कहाँ देता है। अपना हाथ उन्होने नीचे कर लिया।

रोहन ने उनकी स्थिति को समझते हुए कहा - आपने तो बचपन से आजतक मुझे कुछ दिया ही नहीं। आज कुछ मांगने आया हूँ।

अचरज मेंं पड़ गयीं वो - बेटा तुम्हें देने के लिए क्या है मेरे पास। मै गरीब बेबा तुम्हें आशीष के अलावा क्या दे सकती हूं।

तबतक रोहन के आँखो से आँसू बह चले थे अपनी नानी के हालात पर। शायद रोहन को दिल और एहसास अपनी माँ से मिला था। अपनी नानी माँ के दोनों हाथों को थामकर बोला एक वचन दो तो कुछ मांगू। नानी ने कहा अगर मेरे पास हुआ तो मै मना नहीं करूंगी।

तो आप अभी इसी वक़्त मेरे साथ चलिए। अब आप घर चल कर बात करना। बस आप चलिए मेरे साथ।

लेकिन बेटा मै कैसे जा सकती हूँ। मै अपने बेटी के घर कैसे जा सकती हूँ। आज तक ऐसा नहीं हुआ। हमारे समाज मेंं ब्याहता बेटी के घर तो पानी भी पीना मना है।

नानी माँ क्या आपके समाज मेंं नाती को खाली हाथ लौटाया जा सकता है ?

बेटा समझने की कोशिश करो। हमारे यहां ये रिवाज़ नहीं है।

कौन सा रिवाज़ नानी मां ? वो रिवाज़ जो मुझे पल पल पश्चाताप मेंं झुलसा कर मार दे, क्या ये रिवाज़ आपको ज़्यादा प्रिये है।

नानी के आंसू बह चले।

नानी माँ आपके आशीर्वाद से मै ख़ुद नौकरी करता हूँ और मेंरा दूसरे शहर में एक छोटा सा घर है।

आप बेटी के घर मेंं नहीं रह सकती ना। लेकिन क्या मै आपका कुछ नहीं। आपको अपनी बेटी के घर नहीं जाना है नानी माँ। वहाँ मै आपको ले भी नहीं जाऊंगा जहाँ आपकी इज्ज़त ना हो। आपको अपने साथ अपने छोटे से अलग घर मेंं ले जाने आया हूँ। ये मेंरा कर्तव्य है क्यूँकि जिसने इस संसार मेंं मुझे जनम दिया, आप तो उनकी जन्म दात्री हैं। वो आपकी बेटी ना होतीं तो मैं इस संसार में ही ना होता। जिनके कारण मेंरा वज़ूद है उनको कैसे ऐसे छोड़ जाऊँ मै नानी माँ। आप कहो आपको इस हाल मेंं देखकर कैसे ख़ुश रहूँगा मै। क्या आप चाहते हो नानी माँ आपका ये बेटा जीवन भर दुखी रहे।

नानी माँ के आंखो से अविरल धारा बह चली। रोहन ने उनका हाथ थाम लिया। रिवाज़ों की बेड़ियाँ सालों तक पहनी थी नानी माँ ने। बस अब और नहीं। रोहन ने नानी को गाड़ी में बिठाकर दूसरे शहर मेंं अपने छोटे से घर की तरफ़ गाड़ी मोड़ दी।


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