प्यार, दाग और आग
प्यार, दाग और आग
एक कमरा है। नायिका नहाने जा रही है। तभी कमरे में नायक का प्रवेश होता है। नायिका को देख ठिठक जाता है। जाने को मुड़ता है, तभी नायिका बोल उठती है, कहाँ जा रहे हो? रुकोगे नहीं?
नायक कहता है-ये जो साड़ी है, यह हम दोनों के बीच दीवार बन कर खड़ी हो जाती है। डर लगता है, यह बाधक बन जाती है।
नायिका जवाब देती है-पगले डर गया इस साड़ी से। मुझमें और तुममें तो कोई फ़ासला रहा ही नहीं है कभी।
नायक- हां, लेकिन मुझे पसंद नहीं, कोई हम दोनों के बीच आए।
नायिका: तो लो, देख लो। अब डर तो नहीं लग रहा। लेकिन सुनो, कहीं दाग तो न लगा दोगे?
नायक- आग तो न लगा दोगे ? नहीं, नहीं।
नायिका: दाग तो न लगा दोगे ? क्या तुम सच्चा प्यार करते हो ?
हड़बड़ाते हुए नायक: हं हां हां। न नहीं तो। नहीं, तुम आग लगा रही हो, फिर कहती हो दाग तो न लगा दोगे?
नायिका: सच कहो, कहीं, दाग तो न लगा दोगे? क्या तुम मुझे सच्चा प्यार करते हो ?
नायक खामोश हो जाता है चुप्पी निःशब्द
तभी नायिका की चीख निकल उठती है बचाओ बचाओ।