पतझड......

पतझड......

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ये पत्ते जल्दी सुखते भी नहीं......अगर सुख भी जायें तो,कई नये पत्तों को जनम दिये जाते हैं......अपना वजूद खोने से पहले,वसियत बना जातें हैं,नये पत्तो के नाम......वो ही एक कतरा मदत......आज फिर खिला हैं सुरज उसीं पत्तें पे जमीं ओस की बुंद पर......बूंदें सुख जाती हैं,लेकिन वो सुखा पत्ता,उसे तो डुबते सुरज का वो गुलाबी मंजर भी देखना होता हैं......कराहते हुए .....सुखें पत्तों की सरसराहट की कपकपाहट,दिल चीर देती हैं,जब तक नये पत्तों की बहार नहीं खिलती......पुराने,नये के बीच होती हैं खामोशी...... लंबी खामोशी...... जब सभी पत्ते झडते हैं,नये पत्तो की चाहत में......ये चाहत भी बडी लंबी होती हैं,तकलीफ भरी......पर कहते हैं ना......हर एक अंधेरी रात के बाद नया सवेरा होता है......वैसे ही जो पत्ता,पेड को छोड गया था बीच मझधार में......वो वापस लौट आता हैं,नई उमंग लेकर,नये वजूद के साथ शाम का सिंगार कर के फिर सजा हैं पेड पर,झूम उठा है,खुशबूओं के झोंके सा.......महकते हुए


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