परवरिश
परवरिश
बात कल दोपहर की है।
स्कूल के समय के हम ४ मित्र गण लखनऊ में इकट्ठा हुए। पिछली बार जब मिले थे तब जवानी पूर्णतः प्रसफुठित नहीं हुई थी और अब जो मिले तो अधपके बाल साफ इशारा कर रहे थे कि जवानी के दिन अब लदने को है।
कौन क्या कर रहा है, कौन स्कूल में किस पर मरता था और अब जीवन में मारने वाली कौन है इन सब के बीच कब चार घंटे बीत गये इसका पता ही न चला। बात बच्चों की आई तो दो तथ्य सामने आये।
एक ये कि अगर बाबा दादी साथ हो तो बच्चे की परवरिश बहुत ही बेहतर होती है और दूसरी ये कि बच्चा कुछ भी करे अगर बाबा दादी के सामने डाँटा तो शामत आप ही की आनी है।
ये कहते हमारे माँ बाप को देर नहीं लगती की सुनिये मिस्टर आप हमारे पोते को हमारे सामने कुछ नहीं कहेंगे और ज्यादा दिक्कत हो रही हो तो निकल जाओ इस घर से, हम तुम्हारा लड़का पाल लेंगे। बड़े आये अपने लड़के पर हक जताने वाले। मन में रह रह कर यह प्रश्न उठता है की जब हमको तबीयत से कूटा करते थे तब अपने माँ बाप के दिल पर क्या गुजरती होगी इसका तो कभी ख्याल न किया होगा ? पर इस डर से कि कहीं चप्पलों से हमारी पूजा फिर न हो जाये हम कुछ नहीं पूछते। समय कब किसके लिए रुका है सो शाम ढलते ढलते यह एहसास हुआ कि अब कल की तैयारी करनी है सो जाने का वक्त आ गया है।
न जाने कब ये दोपहर फिर नसीब होगी और फिर से इतनी स्वछंदिता से ठहाके लगा पायेंगे ? पर ये दोपहर, कई वर्षों तक, हम सबके चहरे पर मुस्कराहट लाती रहेगी।
