पल दो पल
पल दो पल
कहानी का प्रारंभिक भाग
" तुम कब तक यूँ अकेली रहोगी?", लोग उससे जब तब यह सवाल कर लेते हैं और वह मुस्कुरा कर कह देती है," आप सबके साथ मैं अकेली कैसे हो सकती हूं।" उसकी शांत आंखों के पीछे हलचल होनी बन्द हो चुकी है। बहुत बोलने वाली वह लड़की अब सबके बीच चुप रह कर सबको सुनती है जैसे किसी अहम जबाब का इंतजार हो उसे। जानकी ने दुनिया देखी थी उसकी अनुभवी आंखें समझ रहीं थीं कि कुछ तो हुआ है जिसने इस चंचल गुड़िया को संजीदा कर दिया है लेकिन क्या? " संदली!, क्या मैं तुम्हारे पास बैठ सकती हूं?", प्यार भरे स्वर में उन्होंने पूछा। " जरूर आंटी, यह भी कोई पूछने की बात है।", मुस्कुराती हुई संदली ने खिसक कर बैंच पर उनके बैठने के लिए जगह बना दी। " कैसी हो ?क्या चल रहा है आजकल ? ", जानकी ने बात शुरू करते हुए पूछा। " बस आंटी वही रूटीन, कॉलिज- पढ़ाई", संदली ने जबाब दिया।" आप सुनाइये।" " बस बेटा, सब बढ़िया है। आजकल कुछ न कुछ नया सीखने की कोशिश कर रही हूं।", चश्मे को नाक पर सही करते हुए जानकी ने कहा। " अरे वाह! क्या सीख रही है इन दिनों?", संदली ने कृत्रिम उत्साह दिखाते हुए कहा जिसे जानकी समझ कर भी अनदेखा कर गई।
"पता है बुढ़ापे में पैसों को किस तरह व्यवस्थित करना है उसके लिए पेपर में एक विज्ञापन आया है, न्यू मार्केट में पांच दिन की अकाउंट क्लास लग रही है सोमवार से मैं वही सीखने जा रही हूँ" जानकी ने कहा "अरे आंटी, आपको क्या जरूरत है।"
"क्यों जरूरत नहीं एक तो रोज तैयार होकर जाऊँगी, उस पर पूरा दिन नए माहौल में, नए लोगों के साथ नई - नई जानकारी एकत्रित करूँगी और हो सकता है वहाँ से ही कुछ नए दोस्त बन जाए" जानकी ने उत्साह से कहा। "आंटी आपको यह सब अच्छा लगता है" हा संदली, जीवन को कभी भी निराश मत करो, सीमित भी मत करो, जो मिलता है उससे ही अपने को कुछ दिन ही सही व्यस्त रखो, अच्छा लगता है, तुम्हें पता नहीं है इसके पहले मैंने डांस क्लास शुरू की थी समर में, एक माह की, मैं मानती हूँ कि मुझे उतना नहीं आता और एनर्जी भी नहीं है लेकिन एक माह का वह जो समय था मेरा, इतना बेहतर था कि मन सोच कर आज भी खुश हो लेता है,
हर गर्मी में मैं अब क्लास ज्वाइन करूँगी, जानकी उत्साह से अतिरेक हो गई। "वाह आंटी, आप तो अपने आप को बहुत अच्छी तरह व्यस्त रखती हो, घर पर आपके बेटे बहू कोई दिक्कत तो नहीं करते" "अरे नहीं, उन्हें अपना जीवन जीना है, मुझे अपना, मैं समझ सकती हूँ कि अकेलेपन को दूर किस तरह जिया जा सकता है, स्वयं को व्यस्त ना रखो तो दिमाग में कोई अच्छे विचार नहीं आते, हर वक्त दूसरों पर नजरें गड़ी रहेंगी, आपना नजरिए घर की चार दीवारों तक ही सीमित रह जाएगा, मैं तो अपने अकेलेपन को भी मजेदार बना लेती हूँ।" "घर पर भी तो कुछ न कुछ आप करती रहती होगी न आंटी"संदली ने जानना चाहा।
"हां संदली, में शुरू से पापड़, अचार,बडियाँ, स्वेटर बनाना, क्रोशिया के काम करती रही हूँ, कोई खाएँ या ना खाएँ मेरे घर आने वाले रिश्तेदारों को ही बांट देती हूँ, और वह बड़े शौक से ले जाते हैं, मेरा समय भी कट जाता है और शौक भी पूरा हो जाता है," "हां आप सही कह रही हैं ।" एक बात पूछूं संदली, अगर तुम्हें उचित लगे तो बताना "। "हां पूछिए ना आंटी, तुमने क्यों निर्णय लिया अकेले रहने का" मौन "कहाँ से शुरू करूं आंटी जी" संदली ने हताशा से कहा। "देखो संदली, हमारे दिल में भी एक पोखर है, उसमें हमारे अच्छे बुरे सारे एहसास इकट्ठा होते रहते हैं, जब हम उन एहसासों को एक दूसरे से बांटते हैं तो कुछ नये अहसास एकत्र होते हैं और उस पोखर में बहुत समय तक एहसास ठहरता नहीं,वह चलायमान होकर नया भरता रहता है, लेकिन यदि हम हर एहसास जप्त कर लेंगे तो जानती हो धीरे-धीरे यही एहसास अपनी जड़े जमाने लगते हैं और फिर घाव का रुप ले लेते हैं, उन्हें शुद्ध हवा पानी नहीं मिलेगा तो वह विकृत होकर सड़े गले विचार ही उपजायेगे, ऐसे में ही तो मानसिक संतुलन गड़बड़ का डर रहता है, कोई भी बात इतनी बड़ी कभी नहीं होती कि उसका हल नहीं हो सकता,
समय ऐसी पाठशाला है जिसमें अपना रचा बसा ही पल-पल बदलता है, तुम बेझिझक होकर अपनी बात कह सकती हो"जानकी ने सहज करने के लिए एक लंबी भूमिका बना दी। " मैं आपको बताती हूँ आंटी, घर की जिम्मेदारियों से फुर्सत हुई तो उम्र गुजर गई और भाई बहनों को अपने संसार से फुर्सत नहीं, ऐसा नहीं था कि मेरे जीवन में दोस्त नहीं आया लेकिन मेरा इंतजार वह कर नहीं सका और वह आगे बढ़ गया, बस छोटी सी कहानी है आंटी" "अरे बेटा, पूरी जवानी छिपी है इस कहानी में" "आंटी जी, अब मुझे लगता है कि मैं अकेली ही रहूँ, किसी को कोई मतलब नहीं है मुझसे" कहते हुए वह उदास हो गई।"
यह नजरिया तुम्हें सोचने का बदलना होगा बेटा, देखो तुम बहुत ही भाग्यशाली हो, जो तुम्हें अपने परिवार का दायित्व उठाने का मौका मिला, तुमने अपनी जिम्मेदारी पूरी की, अब तो तुम्हें मौका मिला है जीने का, अपने लिए, हर वक्त परिवार की चिंता करना और उसके लिए क्या किया, क्या उन्होंने नहीं किया, सोचना छोड़ दो और अपने को नई उम्मीद से देखो और सोचो, अब पूरा वक्त, जिस तरह पूरा वक्त तुमने परिवार को दिया अब अपने को देना है समझी" जानकी ने स्नेह से पीट सहला दी।" इतने मीठे बोल सुनकर ही संदली के आंसू निकल आए, जानकी ने सलाया तो वह फफक पड़ी, जानकी ने अंक में भर लिया।
"मैं समझ रही हूं संदली, तुमने जो कहा उसे भी और जो नहीं कह पाई उसे भी, मैं समझ रही हूँ, तुम कॉलेज पढ़ने जाती हो, उसके बाद का समय अपने लिए रखो और वह करो जो तुम्हें अच्छा लगे" "आंटी, अब तो समझ ही नहीं आता कि मैं क्या कर सकती हूँ"थोड़ा संभलकर संदली ने कहा। "अच्छा बेटा, ऐसा करो कि पहले तो तुम इस पार्क में रोजा आना, मैं तुम्हें रोज मिलूँगी, यहीं से शुरुआत करें, यह मत सोचना कि आंटी को सब बता दिया तो मैं क्या सोचूँगी, अगर तुम रोज मुझसे मिलोगी तो मैं समझ जाऊँगी कि तुमने अपने सुनहरे भविष्य की तरफ कदम बढ़ाना शुरू कर दिया है।"जानकी ने जिस दार्शनिक अंदाज में कहा, संदली मुस्कुराए बिना नहीं रह पाई। दोनों के बीच बहुत सारी बातें हुई कल अपने इसी समय मिलने का कह कर विदा हुई। संदली की चाल आज औज से भरी है, घर वापसी उदास नहीं बल्कि कल पुनः मिलने के लिए है, घर पहुँच कर, मुँह हाथ धो कर चाय लेकर बालकनी में आकर बैठ गई। पांच साल हो चुके हैं उसे यहाँ के कॉलेज में पढ़ाते, लेकिन आज की शाम उसकी बालकनी से सुरमई हो उठी है, इतने गौर से उसने कभी सड़क की ओर नहीं देखा, यहाँ के रहने वालों पर भरपूर नजर नहीं डाली थी, आज मन कर रहा हैं कि कितना सुंदर हैं यह सब, सड़क की चहल-पहल अच्छी लगने लगी, ऊँची - ऊँची इमारतों की बालकनी में सूखते कपड़े, रंग-बिरंगे तोरण से प्रतीत हो रहे हैं जैसे हम पन्दरह अगस्त या छब्बीस जनवरी पर झंडा वंदन के समय लगाते हैं, कुछ बालकनी में महिलाएँ, बच्चे, पुरुषों के चेहरे नजर आ रहे हैं, कितना सुखद है ना यह सब, आज चूकि उसका नजरिया बदला तो हर तरफ से उसे रंगीनियाँ नजर आने लगी। ऐसा नहीं है कि कॉलेज के सहयोगियों के साथ कहीं आती जाती नहीं लेकिन हमेशा लगता क्या करूँगी घर जाकर भी चली जाती हूँ, मन में विवशता का भाव सदा बना रहता था कई सहयोगी यह भी कह देते थे कि अकेली हो क्या करोगी, कोई पूछने वाला तो है नहीं, यह तंज अंदर तक दहकते अंगारे सा उतर जाता, कितनी फालतू हो गई हूँ मैं इन लोगों की नजरों में।
जब से ट्रांसफर होकर आई हूँ, मजाल है किसी पड़ोसी से परिचय बढ़ाया हो, अक्सर बचती रहती हूँ कि लोगों का एक ही सवाल होगा अकेली क्यों रहती हो? इसी सब से बचने के लिए मेल मिलाप ही करना उचित नहीं लगा। पिछली गर्मी में छोटी बहन रिया आई थी परिवार सहित, उसका आना अच्छा तो लगा पर जाने के बाद लगा कि खर्च की इंतहा हो गई और पूरे अधिकार से अपनी खरीदारी करवाती रही और वह करती नहीं । जरा भी उसे लगता में पैसा खर्च करने में सोच रही हूँ, तो झट से कह देती मां पिताजी के नहीं रहने पर आप ही तो बड़ी हो हमारी, हम अपनी इच्छाएँ कहां कहे। कभी किसी ने मेरी इच्छा का नहीं सोचा, नहीं कभी चाहा कि मेरे लिए ही कुछ ले आती, बस अपना बक्सा भरा और यह जा वह जा कर निकल गई। मन कितने दिनों तक दुखी रहा, कभी लगता कि मैंरे जीवन का क्या है? मां पिताजी थे तब भी जिम्मेदारी मेरी ही तो थी, अब भी कहां जाएगे भाई बहन, सोचकर स्वयं ही संत्वना दे लेती हूँ। अपना सोचने को था ही क्या स्वयं कोई निर्णय ले ही नहीं पाती। मन उदास हो रहा था इसलिए तो पार्क चली गई । आंटी मेरी कोई नहीं लगती, पर मेरी उदासी ने उन्हें विचलित किया, उन्हें मेरा उदास बैठना बुरा लगा, घोर आश्चर्य, इस युग में जहाँ सगे भाई बहन अपको कर्तव्य की वेदी कर पर झोककर इतिश्री कर दिए हो, वहाँ एक अनजान आपकी उदासी से दुखी, उस पर अपना हमदर्द बना लेने की पेशकश, कितना अच्छा लगा, जब वह यह सब बोल रही थी। मैंने भी तो वादा कर लिया है कल फिर जाऊँगी मिलने, बिल्कुल जाऊँगी, क्यों न जाऊं, मुझे नीरसता को अब उतार फेंकना होगा और मेरे वह सपने जिन्हें मैंने आंखों में ही कैद कर लिए थे, कभी सपनों में भी आने की इजाजत नहीं दी उन्हें तलाशूंगी क्योंकि इतने वर्षों में जाने कहाँ जा छुपे हैं सारे सपने। चाय खत्म हुई तो वह उठकर अंदर चली गई। नहा कर बढ़िया सा खाना बनाया तो आज खाना भी स्वाद दे रहा है। कुछ गुनगुनाने का मन कर आया तो टीवी चालू कर पुराने गाने सुनने लगी, साथ-साथ गुनगुनाते हुए किचन समेटा, सुबह की सब्जी लेकर बैठ गई, काट कर रख देगी सुबह जल्दी नहीं रहेगी, पूरी तनमयता से अपने अंदर आए उत्साह को जी कर वह सो गई । सुबह बेहद सुहानी, कुनकुनी धूप में जब पर्दे हटाए तो सूर्य का मुलायम टुकड़ा उसके चेहरे पर चस्पा हो गया, हटी बालक सा मचला तो आंखें बंद हो गई,
हाथ से उस टुकड़े को रोकते हुए खिड़की से बाहर झांका तो सड़क पर एक दो वाहन और सुबह की सैर करने वाले लोग नजर आए, शांत पड़ी फिजा ठंडी लग रही थी मानो अपने आलस को आहिस्ता आहिस्ता दूर करेगी, अंगड़ाई लेती जान पड़ी पेड़ों की पत्तियाँ थोड़ी सी हवा खाते ही सरसरा उठी, उन्हीं के बीच से होती सूर्य की किरण दिन की रोशनी में भी टार्च का काम कर रही थी, संदली को लगा आज उसके भीतर का भी जंगल इसी तरह अलमस्त हो रहा है तभी तो बाहर की यह छवी उसे अच्छी लग रही है। एक भरपूर नजर डाल वह अंदर पलट गई, घर को भरपूर नजर भरकर देखा और झटपट उलटफेर करने लगी।
सोफा, टेबल, गमलों को साफ करती, तो कभी जगह बदल देती, छोटे सोफे की कुर्सियाँ उठाकर खिड़की के पास लगा दी, कमरे का नक्शा बदल गया, हाथ झाडते हुए संदली अपने बदले हुए कमरे के रूप को देख मुस्कुरा दी । अब उसने गुसलखाने की ओर रुख किया, कॉलेज की भी तो जाना है। कॉलेज में पूरा दिन शाम को आंटी से मिलने की उत्सुकता में गुजर गया, ऐसा लग रहा था कि क्या बता दे, क्या छुपा ले, फिर मन करता उन्हें मेरे परिवार के बारे में क्या पता, पूरा कुछ बता भी दूँगी तो क्या है कोई बात परिवार वालो तक तो जाएगी नहीं, इसी उधेड़बुन में पूरा दिन निकल गया। शाम को मिलने की बैचेनी हो रही थी कि कब पार्क पहुँचे, उस बेंच पर नजर गई तो आंटी विराजमान, उत्साहतिरेक में वही से आवाज लगा दी आंटी जी आंटी ने हाथ हिला दिया लगभग दौड़ती ही पहुँची, हाफती हुई बैठ गई। " वाह संदली आ गई, मुझे अजीब ही ख्याल आ रहे थे। ं "आपको लग रहा होगा ना आंटी, कि मैं नहीं आऊँगी" "नहीं, पर असमंजस तो था,तुमसे कभी पहले कभी वादा नहीं किया जो था इसलिए।
"कोई नहीं आंटी जी, वादा किया था आ गई, आपके पूछने के पहले ही मैं अपने बारे में बताना चाहती हूँ "अरे वाह बताओ" "आंटी जी, मेरे पापा जी की इतनी कमाई नहीं थी, मैं दसवीं से ही ट्यूशन पढ़ाने लगी, मेरी दो बहनें और एक भाई है, धीरे-धीरे में अपनी पढ़ाई के साथ-साथ भाई बहनों का खर्चा उठाते - उठाते कब घर का खर्च भी उठाती चली गई पता ही नहीं चला। छः वर्ष पहले मम्मी पापा जी का देहांत हुआ और एक-एक कर भाई बहनों की पढ़ाई पूरी करवा कर शादी कर दी, अब अकेली हूँ। "एक बात पूछूँ, जवानी में कोई चाहने वाला नहीं मिला। "मिला था, पर मेरी जिम्मेदारी ने मुझे आगे बढ़ने ही नहीं दिया।
"क्या वह इंतजार कर रहा है"। " नहीं आंटी, उसकी शादी भी हो गई।" "तुम्हें दुख हुआ उसका" " पता नहीं आंटी, इतने वर्षों में कई वजह लगती, कभी लगा प्यार था या प्यार जरूरत के अनुसार बदलता रहा है या प्यार कठपुतली बना देता है या फिर हमारे घर वालों की इच्छा है कि शादी करो, जाने क्या-क्या आंटी जी, अब तो ऐसा कुछ लगता भी नहीं।" "लेकिन तुम जिस हिसाब से उदास रहती हो, उससे तो लगता है कि तुम्हें गहरा आघात लगा है" "नहीं आंटी, मेरी तो चाहत शुरू भी नहीं हुई थी, यह प्रस्ताव उसी का था, मुझे जिम्मेदारियों ने इस कदर जकड़ा था कि मेरी सोच ही कुंद पड़ी थी।" "चलो छोड़ो, आब सुनो हम पैदा अकेले हुए, पले, बढ़े तो फिर हमें किसी सहारे की जरूरत क्यों? हां कोई साथी मिलता है तो अच्छी बात है लेकिन अगर वह साथ ही नहीं है तो क्या, "हम अपने होने को बोझ क्यों समझे, नहीं संदली, तुम अपने जीवन को उत्साह में बदलो, छुट्टियाँ लो और अकेले ही भ्रमण पर निकलो, अपने शौक जो मन करे करो, अपने दायरे को बढ़ाओ, दोस्त बनाओ, अपना समय अपने पर खर्च करके देखो, तुम्हें पता भी नहीं चलेगा कि तुम्हारे अंदर इतनी सुंदर संदली भी मौजूद है,
अब तुम्हें रिश्तों को ढोने की जरूरत नहीं हैं, न ही किसी को जवाब देना है, ओर जवाब देना भी सीखो, अपने समय को अपने अनुसार जियो, जिंदगी पल दो पल की है, यह कभी मत सोचना कि यह कर लूँगी तो क्या होगा, वह कर लूँगी तो क्या होगा, कभी ऐसा मत सोचना, बस करते रहना है जहाँ जैसा भी जीना पड़े तो तुम हर हाल में खुश रहोगी "जानकी सांस लेने को रुकी। "अप ठीक कह रही है", संदली ने स्वकृति में सर हिलाया।
"तुम अपना एक वजूद लेकर पैदा हुई हो और जब जाओगी तो कोई नहीं जाएगा साथ समझी, कितना भी गहरा रिश्ता क्यों ना हो, सब को अकेले ही जाना पड़ता है, क्योंकि यह सत्य है, अकेले आए हैं । किसी का होना न होना मायने नहीं रखता, समझ रही हो ना हमारा होना मायने रखता है", " हां आंटी समझ आ रहा है।" " यह शरीर के कर्तव्य निभाना और इस शरीर का सम्मान करना हमारा काम है इसे कोई दूसरा नहीं करेगा इसलिए जितना खुश रहोगी और क्रियाशील यह मन शरीर उतना ही प्रफुल्लित रहेगा, काम हर इंसान करता है पर कितना प्रतिशत समर्पण के साथ", जानकी ने गौर से संदली को देखा।
"ठीक बात है अंआटी जी, इतनी गहराई से कभी सोचा जो नहीं", "तुम्हें ईश्वर का शुक्रगुजार होना चाहिए, जिन्होंने तुम्हें इतनी सुंदर काया दी और ऊपर से इतनी सारी जिम्मेदारी से नवाजा, कम लोगों को ही यह सब मिलता है, ईश्वर का धन्यवाद अदा किया करो, अब तुम्हारी जिम्मेदारी खुद की खुद से है निभाओ इमानदारी से", जानकी थोड़ा चुप हो गई। "आंटी जी, इतना कुछ तो कभी सोचा नहीं इसका मतलब तो यह हुआ कि मैंने इतने वर्ष व्यर्थ गवा दिए",संदली ने भोलेपन से पूछा। "नहीं बेटा, जब जागो तभी सवेरा, अभी देर नहीं हुई, दृढ़ संकल्प कर लो और शुरू हो जाओ, तुम्हारे में आये परिवर्तन को घर वाले, ऑफिस वाले हजम नहीं कर सकेंगे लेकिन तुम्हें विचलित नहीं होना है, अपने पथ पर बढ़ते रहना । उसी तरह जिस तरह हाथी गाँव में आ जाता है तो कुत्ते भौंकना शुरू कर देते हैं लेकिन हाथी अपनी चाल नहीं बदलता, ठीक उसी तरह ", "आंटी जी, आपसे कल बात करके ही मैं उत्साहित हो गई थी आज तो आपने नई रहा दे दी, मुझे कभी किसी ने इतनी बात ही नहीं की कभी, जीवन जीने का यह पहलू तो मुझे पता ही नहीं था,
आप मुझ में परिवर्तन देखेंगे आंटी जी, इतना विश्वास दिलाती हूँ", संदली ने भी उत्साहित हो अपनी बात रखी।
"मुझे तुम पर पूरा विश्वास है बेटा, अब चलती हूँ, कल फिर मिलेंगे"कहती जानकी उठने लगी । संदली भी गेट तक साथ आई, दोनों ने कल मिलने का वादा किया। आपने - आपने घर की ओर निकल गई। संदली को तो मानो संपूर्ण संसार की एक ऐसी चाबी मिली हैं कि वह आश्चर्य में है, अगर ठान लिया जाए तो क्या नहीं हो सकता, यही सब पढ़ाती भी है लेकिन कभी अपने पर लागू नहीं किया, इतनी बड़ी डम्बों हूँ मैं।
संदली ने अपने में परिवर्तन लाना तो कल से ही शुरु कर दिया था लेकिन आज तो इतना गहरा जान गई है कि लगा गुनाह ही तो कर रही थी अब तक अपने साथ, उसने डायरी पेन उठाया, आज की तारीख डाली और आंटी के कहे वाक्य टाकती चली गई । अब जब - जब भी में भटकूगी इसे पढ़ लिया करुँगी । कितनी खरी बात कही है ना आंटी जी ने, मन श्रद्धा से भर आया, हर बात का निश्चित समय होता है तभी वह आपके जीवन में आती है, शायद यह ज्ञान प्राप्त होने का यही समय ईश्वर ने निर्धारित किया होगा मेरे लिए, ईश्वर का कोटि-कोटि धन्यवाद, संदील ने दोनों हाथ जोड़ माथे पर लगा लिए । ज्ञान की संपन्नता थी या समझ की गहराई का दूसरा दिन बेहद हसिन शाम होते ही पार्क की ओर मुड़ गए कदम, गेट से ही बेंच पर नजर पड़ी अभी नहीं आई थी आंटी, वह बहुत देर तक इंतजार करती रही आंटी तब भी नहीं आई शाम ढलने को थी वह उठकर चल दी, शायद किसी वजह से नहीं आई होंगी। कल मिल लूंगी सोचते हुए गेट से निकल बाई तरफ की बिल्डिंग के पास से गुजरते हुए देखा, दूसरी बिल्डिंग में काफी भीड़ जमा है,
कुछ हुआ होगा सोच कर आगे बढ़ने लगी, तो उसी समय हॉस्पिटल की एक सौ आठ सायरन बजाती उसी भीड़ के पास आकर रुकी, अब संदील से रहा नहीं गया, कौन हो सकता है ? कोई बीमार होगा सोच कर थोड़ा नजदीक चली गई । एंबुलेंस के रुकते ही रुदन का स्वर बढ़ गया कई औरतें एंबुलेंस की ओर दौड़े पुरुष उन्हें रोक रहे थे वह भी थोड़ा नजदीक चली गई देखा सफेद चादर में लिपटा कोई इस दुनिया को छोड़ गया है मन में उसकी आत्मा की शांति के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते संदल पलटने को हुई कि किसी चेहरे से चादर खींची, एक जोरदार चीख उभरी स्त्री रुदन का गगन भेदी स्वरसंदली जड़ हो गई, उसे विश्वास नहीं हुआ।
आंखें मल -मल कर देखा, वही चेहरानहीं - नहीं ऐसे कैसे मैं शायद इंतजार करती रही हूँ इसलिए वही चेहरा दिख रहा है, लेकिन जब बार-बार पलके बन्द खोल कर देखा तोजानकी आंटी। शांत बिलकुल शांतइस दुनिया की सारी झंझटों से दूर सूंदूर में कहीं चली गई सहसा सन दिल को लगा उसकी पीठ पर आंटी के हाथ क्या वही स्पर्श है और वही शब्द गूंज रहे हैं यह जीवन पल दो पल का है इसलिए किसी का होना ना होना मायने नहीं रखता हम ही हैं यही मायने हैं अपनी जिम्मेदारी खुद लो दोनों आंखों से अविरल अश्रु बह रहे थे और संदील आंटी से किए वादों को दोहरा रही थी, आप ने सच कहा था आंटी आप ने सच कहा था आंटी जी।
