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Gaurav Gupta

Inspirational

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Gaurav Gupta

Inspirational

मिलन

मिलन

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आस्था बचपन से ही एक संस्कारी,सुशील और विलक्षण प्रतिभा वाली लड़की थी। स्कूल में वह अपनी क्लास में हमेशा प्रथम आती थी। पढ़ाई के साथ-साथ कढ़ाई,बुनाई,नए-नए चित्र बनाना व खाना पकाने में भी वह कुशल थी।

घर में किसी चीज की कमी नहीं थी।पिता जी कॉलेज में प्रोफेसर थे और माताजी बैंक में मैनेजर।आस्था बहुत प्रतिभाशाली लड़की थी। सब उसकी सराहना करते थे।

सम्मान मिलता था,सराहना मिलती थी,लोगों की हमदर्दी भी मिलती थी।लेकिन आस्था को वह स्थान नहीं मिल पाता था।जो एक आम लड़की को मिलता था।क्योंकि आस्था आम लड़की नहीं थी।वह एक पैर से अपाहिज थी।उसे प्यार तो मिलता था। मगर लोगों की हमदर्दी के साथ,उनकी दया के साथ।

स्कूल से कॉलेज और कॉलेज के बाद,अब आस्था बैंक में मैनेजर थी।आस्था ने अपनी काबिलियत से साबित कर दिया था।अपाहिज होना आपकी सफलता में रुकावट नहीं बन सकता।अब लोग उसका सम्मान करते थे, सराहना करते थे। इस उपलब्धि के लिए, आस्था को राज्य सरकार की तरफ से पुरस्कृत भी किया गया।

एक लक्ष्य तो आस्था ने प्राप्त कर लिया था। लेकिन एक कमी उसे अभी भी खलती थी।

अभी भी कॉलेज की बातें याद कर,उसका मन दुखी हो जाता था।कैसे कॉलेज में उसे दया भरी दृष्टि से देखा जाता था। उसकी सहेलीयों के बॉयफ्रेंड थे। कभी उसकी सहेलियां जब आस्था से,अपने बॉयफ्रेंड की बातें करतीं।कि हम यहां घूमने गए।हम ने मूवी साथ देखी वगैरा-वगैरा। आस्था उनके सामने तो उनकी बातें सुनकर मुस्कुरा देती थी। तब उसे इस बात से ज्यादा तकलीफ भी नहीं होती थी।क्योंकि तब उसका लक्ष्य खुद को साबित करना था। लेकिन अब उसने सफलता प्राप्त कर ली थी। अपना सपना भी साकार कर लिया था। लेकिन अब उसे उन बातों को याद कर,दुख भी होता था।अब उसे लगने लगा था, कि जीवन में एक साथी की भी जरूरत होती है। मगर वह तो अपाहिज है।उसे भला मनचाहा साथी कैसे मिलेगा?इस बात का दुख उसे अब सताने लगा था।

वह सोचती थी काश वह भी सामान्य लड़की होती।तो उसका भी कोई साथी होता। जिससे वह अपना दुख दर्द बांट पाती। अपने मन की बातें उससे कह पाती।उसे बता पाती, वह भी खुले आसमान में पतंग की भांति उड़ना चाहती है। 

कई जगह से आस्था के लिए रिश्ते की बात भी चली। लेकिन उसके अपाहिज होने की वजह से बात न बन सकी।

रिश्ते वाले आते,आस्था को देखकर उसकी मां से कहते- हमें आपसे बहुत हमदर्दी है।'मगर' ? 

इस 'मगर' के आगे कोई कुछ न कहता, और 'मगर' का मतलब समझ में आ जाता था।

आस्था को अब इस हमदर्दी से चिढ़ होने लगी थी।अगर कोई भी उसके अपाहिज होने की वजह से,हमदर्दी प्रकट करता था।आस्था उस पर नाराज हो जाती थी।

इसमें दोष आस्था का नहीं था।वह भी एक लड़की थी। उसके अंदर भी एक दिल था। उसके भी अपने सपने थे।अपने अरमान थे।वह भी अपनी जिंदगी बाकी लड़कियों की तरह जीना चाहती थी।

मेरा नाम सिद्धार्थ है।उन्हीं दिनों मैं आस्था से पहली बार मिला था। अक्सर ऑफिस से छुट्टी के बाद,मैं शाम को मंदिर जाता था। मुझे मंदिर जाना अच्छा लगता था।मुझे वहां दिन भर की थकान के बाद,सुकून व शांति का अनुभव होता था।

एक दिन मैंने देखा।एक लड़की बैसाखी के सहारे चल कर,अपनी सहेली के साथ मंदिर आ रही थी। वह एक पैर से अपाहिज थी।सुंदर मुख,घने काले बाल,बड़ी-बड़ी काली आंखें और अंधेरे में प्रकाश कर देने वाली चमक थी उसके मुख मंडल पर। मासूम चेहरा,भोली सूरत,सादगी भरे कपड़े और किसी को भी मोह लेने वाली मीठी मुस्कान।उसे देख कर,मैं मन ही मन भगवान को कह रहा था।हे ईश्वर आपने इतनी सुंदर,इतनी भोली,मासूम लड़की बनाई।फिर उसे एक पैर से कमजोर क्यों बनाया?अगर उसके दोनों पैर आप सही बना देते।तो आपका क्या जाता। ऐसा क्या गुनाह किया बेचारी इस लड़की ने,जो यह सजा भोग रही है?

वह धीरे-धीरे अपनी सहेली के साथ,मंदिर की सीढ़ियां चढ़ रही थी। मैं उसी की ओर दया भरी दृष्टि से देखे जा रहा था।

उस दिन के बाद,वह रोजाना शाम को अपनी सहेली के साथ मंदिर आती थी। मैं रोजाना उसे देखता और मेरा मन भर आता था। सोचता था काश मेरे बस में होता। तो इस लड़की को ठीक कर देता।मगर मैं भगवान नहीं हूं। यह सोचकर बेबस रह जाता।

एक दिन उसकी सहेली उसके साथ नहीं आई। उस दिन उसे अकेले मंदिर की सीढ़ियां चढ़ने में परेशानी हो रही थी। उसे परेशान देख,मैंने उसे हाथ देकर सहारा देने की कोशिश की। मगर वह स्वाभिमानी लड़की थी। 

उसने कहा-नहीं।मैं स्वयं ही धीरे-धीरे चढ़ जाऊंगी।

मैंने फिर उस से कुछ कहा तो नहीं।लेकिन उसे बिना सहारा दिये।उसके साथ-साथ ही चल रहा था। अगर उसे कोई परेशानी हो तो,मैं उसकी मदद कर सकूं।वह धीरे-धीरे मगर पूरी सीढ़ियां चढ़ गई थी।

उसने मंदिर में भगवान के दर्शन किए,भगवान की आरती कराई।कुछ देर बैठ कर,भगवान का ध्यान किया।

उसे देखकर लगता था,मानो कोई देवी ध्यान मग्न बैठी हो।ध्यान करने के बाद उसने भगवान को प्रणाम किया और अपनी बैसाखी उठाकर,मंदिर से बाहर निकल आई।मैं भी उसके साथ ही बाहर आ गया था।वह धीरे-धीरे सीढ़ियां उतरने लगी। उसे उतरता देख,मैं डर रहा था।डरता था कहीं उसे चोट न लग जाए। 

इसी ख्याल से मैंने उससे कहा-सुनिए!मैं आपकी मदद करूं? मुझे डर लगता है।कहीं आपको चोट न लग जाए।

आस्था ने कहा-आपका बहुत-बहुत धन्यवाद। लेकिन मैं उतर जाऊंगी।

(आस्था ने विनम्रता से कहा)

मैंने फिर कहा-सीढ़ियां ज्यादा हैं।और फिर आज आपकी सहेली भी तो नहीं है साथ में।

आस्था-मैंने कहा न मैं उतर जाऊंगी।

(इस बार आस्था के स्वर में थोड़ा क्रोध था।) 

"मुझे बुरा जरूर लगा।मगर इसमें दोष आस्था का नहीं था।आज के समाज के हालात ही ऐसे हैं। कि कोई भला लड़का ही क्यों न हो। भले चाहे नेक दिल से मदद करना चाहता हो। कोई भी लड़की उस पर यकीन करने से पहले सोचेगी। वही आस्था ने भी किया। वह मुझे जानती नहीं थी,फिर यकीन कैसे कर पाती।"

फिर मैंने उससे कुछ कहा तो नहीं।लेकिन मैं उससे थोड़ी दूरी बनाकर,उसके साथ-साथ चलता रहा।अगर कोई बात हो तो,मैं उसकी मदद कर पाऊं।वह धीरे-धीरे सीढ़ियां उतर गई।वहां से हम दोनो अपने-अपने रास्ते चले गए।

अब वह मंदिर रोजाना अकेले ही आती थी। लेकिन जब वह सीढ़ियां चढ़ती,तो मैं उसके साथ-साथ ही चलता और जब वह वापस आती थी,तब भी मैं उसके साथ-साथ ही आता था। लेकिन हम दोनों एक दूसरे से कुछ बात नहीं करते थे। ऐसे ही लगभग एक महीना बीत गया था। 

एक दिन आस्था जब सीढ़ियों से उतर रही थी,उसकी बैसाखी फिसल गई। वह गिरने ही वाली थी।मैंने उसका हाथ पकड़ लिया। उसकी बैसाखी सीढ़ियों से नीचे गिर गई थी। मैंने उसका हाथ पकड़ा,और धीरे-धीरे हाथ का सहारा देते हुए,उसे सीढ़ियों से नीचे उतार लाया। मैंने उसकी बैसाखी उठाई और उसके हाथ में पकड़ा दी।

मैंने घबराए हुए आस्था से पूछा-आपको चोट तो नहीं लगी?

आस्था- मैंने आपसे मना किया था न।मुझे आपकी मदद नहीं चाहिए। फिर मुझे आपने गिरने से क्यों बचाया?पिछले कुछ दिनों से देख रही हूं।जब भी मैं सीढ़ियां चढ़ती या उतरती हूं। आप मेरे साथ रहते हैं।मैं जानती हूं।आप एक अच्छे इंसान हैं।आप मेरी मदद करना चाहते हैं। मगर मुझे आपकी मदद की जरूरत नहीं है।आप मेरी मदद कब तक करेंगे?यहीं कर देंगें न? सीढ़ियां चढ़ते या उतरते। मगर मेरी जिंदगी की सीढ़ियां मुझे अकेले ही चढ़ना है। वहां कौन आएगा मेरी मदद करने?आप भी हमेशा तो नहीं रहेंगे न मेरे साथ,मेरी मदद करने के लिए? इसीलिए आपसे प्रार्थना करती हूं।मुझे मेरे हाल पर छोड़ दिजिए। मुझे किसी की हमदर्दी की जरूरत नहीं है।

कहते-कहते आस्था की आंखें भर आई थीं। आंसू बाहर न आ जाएं।इसलिए उसने अपने दुपट्टे से,आंखों से छलकते हुए आंसुओं को पोंछ लिया था। उसके छलके हुए आंसुओं ने, उसके मन का दर्द बयां कर दिया था। मैं उसके मन की पीड़ा को,भली भांति समझ पा रहा था। वह जिस साथ की बात कर रही थी।वह साथ एक जीवन साथी ही दे सकता था।मगर मैंने कभी भी आस्था को उस नजर से नहीं देखा था।अभी मेरे पास उसके प्रश्नों का उत्तर नहीं था

हो सके तो मुझे माफ कर दीजिएगा। हाथ जोड़ते हुए मैंने उससे कहा।

फिर मैं वहां से चला आया।

एक जमाने में आस्था की मां भी ईश्वर की अनन्य भक्त थीं।मंदिर जाती थीं,व्रत भी रखती थीं। हर पूजा,पाठ में विधिवत हिस्सा लेती थीं। लेकिन जब रोग की वजह से,आस्था का एक पैर खराब हूआ।तब से मां ने ईश्वर से झगड़ा कर लिया। इसलिए वह आस्था के साथ मंदिर नहीं जातीं। लेकिन उन्होंने आस्था को ईश्वर भक्ति करने से,कभी मना नहीं किया।

आस्था की मां ने शाम का खाना टेबल पर लगा दिया था। मां सोच रही थी कि आज आस्था को क्या हुआ?जब से वह मंदिर से आई है।अपने कमरे में ही है।आस्था को देखने के लिए मां आस्था के कमरे में गई। मां ने देखा आस्था रो रही थी। मां देखकर घबरा गई

मां ने आस्था के सिर पर हाथ रखते हुए पूछा- क्या हुआ बेटा?तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न?

आस्था मां से लिपट कर, जोर-जोर से रोने लगी।

रोते-रोते वह अपनी मां से कहती है- मां मेरा क्या कसूर है?सब मुझ अपाहिज पर सिर्फ हमदर्दी दिखाते हैं। मगर मुझे ऐसी हमदर्दी की जरूरत नहीं है मां।

आस्था की मां नहीं समझ पा रहीं थीं।कि आस्था को क्या हुआ है।

मां ने आस्था के आंसू पूछते हुए कहा-चुप हो जा बेटा, रोते नहीं हैं। किसने कहा मेरी बेटी अपाहिज है। अपाहिज तो वह होते हैं।जो बहादुर नहीं होते। पर मेरी बेटी तो बहुत बहादुर है।

मां के समझाने पर भी आस्था के आंसू नहीं रुक रहे थे।वह रोए जा रही थी।

मां- बेटा मुझे बता तो सही क्या बात है?

आस्था-मां! क्या अपाहिज का दिल नहीं होता या उन्हें तकलीफ नहीं होती?

आस्था की बात मां की समझ में,अब आ गई थी।

मां ने उसे समझाते हुए कहा- बेटा मैं समझती हूं,मैं तुम्हारी मां हूं। मैं आज तुमसे कहती हूं, देखना एक दिन तुम्हारे भी हर ख्वाब पूरे होंगे।तुम्हें भी तुम्हारे हिस्से की खुशियां जरूर मिलेंगी बेटा।

आस्था ने रोते हुए कहा- वह दिन कभी नहीं आएगा मां।

मां ने आस्था के सिर पर हाथ रखते हुए कहा- बेटा मां कभी झूठ नहीं बोलती। वहा दिन जल्द ही आएगा।

आस्था ने मां के गले लग कर कहा- सच मां?

मां ने आस्था के सिर पर हाथ रख कर,अपनी सहमति प्रकट की।।

आस्था सपना देखा रही थी।वह किसी का हाथ पकड़,मंदिर की सीढ़ियां चढ़ रही है।वह सपने में ही बोल रही थी।तुम मेरा हाथ कभी छोड़ोगे तो नहीं?

तभी आस्था के सिर पर हाथ रखते हुए मां ने कहा- बेटा सुबह हो गई है।तुम्हें ऑफिस नहीं जाना है क्या?

आस्था-क्या मां। आपने सुबह-सुबह जगा दिया।

मां घड़ी की ओर इशारा करती हैं। 

घड़ी देख आस्था जल्दी-जल्दी तैयार होती है।और ऑफिस के लिए निकल जाती है।

उस दिन मुझे बैंक में पैसे जमा करने जाना पड़ा।मैं पैसे जमा करने के लिए लाइन में लगा हुआ था। लाइन लंबी थी और मैं अपनी बारी का इंतजार कर रहा था।अगर बीच में कोई कहता कि उसे जल्दी है।तो मैं उसे अपने से आगे कर देता और स्वयं उसके पीछे खड़ा हो जाता था।आस्था उसी बैंक में मैनेजर थी।आस्था ने मुझे लाइन में लगा देख लिया था। लेकिन मैं इस बात से बेखबर अपनी बारी का इंतजार कर रहा था।

वह अपनी केबिन मे थी,केबिन के अंदर से बाहर तो दिखता था।लेकिन बाहर से अंदर नहीं दिखाई देता था। वह अपने काम के बीच में मुझे देख लेती थी।एक बार उसने सोचा कि वह स्वयं,मेरे पैसे जमा करादे। तभी किसी क्लाइंट का फोन आ गया। फिर वह क्लाइंट के साथ बात करने में व्यस्त हो गई।जब आस्था फ्री हुई, उसने अपने केबिन से बाहर देखा।तब तक मैं पैसे जमा कर,वहां से जा चुका था। आस्था को इस बात का बुरा लगा,कि वह मेरी मदद नहीं कर पाई।

उस शाम मुझे अचानक काम की वजह से दिल्ली जाना पड़ गया। मैं उस शाम मंदिर नहीं जा सका। जब आस्था शाम को मंदिर गई। उसकी नजरें मेरी प्रतीक्षा कर रही थीं। उसने हमेशा की तरह सोचा,कि जब वह सीढ़ियों तक जाएगी। तब तक मैं वहां उसे देख आ जाऊंगा। वह इसी उम्मीद से सीढ़ियों तक गई। जब वहां पहुंचने तक भी उसे मेरी आहट न हुई।तब उसने पीछे मुड़कर देखा।मैं वहां नहीं था।फिर उसने चारों तरफ अपनी नजर घुमाई।जब मैं उसे कहीं नहीं दिखा।तो वह बहुत दुखी हुई और खुद को कोसने लगी। उसे लगा कि मैं उसके कल के बर्ताव से नाराज हो गया हूं।इसीलिए मैं मंदिर नहीं आया।

वह दुखी मन से मंदिर की सीढ़ियां चढ़ रही थी। लेकिन उसका मन मेरे बारे में सोच रहा था। वह धीरे-धीरे सीढ़ियां चढ़कर,मंदिर में पहुंच गई। 

आस्था ने कृष्ण भगवान के सामने हाथ जोड़कर कहा - हे भगवान आप तो सबके मन की बात जानते हैं।मैं मानती हूं,कि मैंने कल जो उनके साथ बर्ताव किया।वह गलत था।अगर वह यहां होते,तो मैं उनसे स्वयं माफी मांग लेती। लेकिन वह मुझसे नाराज होकर आज आए ही नहीं।भगवान उनसे कह दो,कि मैं उनसे माफी मांगना चाहती हूं।मैंने आपसे कभी कुछ नहीं मांगा,आज मांग रही हूं।उन्हें भेज दो भगवान।मैं उनसे माफी मांगना चाहती हूं। कहते-कहते आस्था की आंखें नम हो गई थीं। यह प्रेम अश्रु आस्था की आंखों से बह रहे थे।

मैं ट्रेन में बैठा आस्था के बारे में सोच रहा था। भगवान करे उन्हें आज सीढ़ियां चढ़ते या उतरते समय कोई परेशानी न हो। मुझे आस्था की बार-बार याद आ रही थी। मुझे उसकी फिक्र हो रही थी।यही फिक्र मुझे एहसास करा रही थी,कि मुझे आस्था से प्यार हो गया है।

किसी तरह वह दिन गुजरा।मैं अपना काम खत्म कर,दूसरे दिन वापस आ गया।

शाम को मैं समय पर मंदिर पहुंच गया। मैं मंदिर के बाहर बैठा,आस्था का इंतजार कर रहा था। कुछ समय बाद आस्था भी आ गई । उसने मुझे मुख्य द्वार से ही देख लिया था। वह सीधा मेरे पास आई और उसने मुझसे कहा- मैं परसों के अपने व्यवहार के लिए, आपसे माफी मांगती हूं।मुझे माफ़ कर दीजिए।

मैंने कहा- नहीं। माफी तो मुझे मांगना चाहिए। मैं जो आपको बिना बताए कल चला गया।

आस्था- मैं जानती हूं।आप मुझसे नाराज थे,तभी तो बिना बताए चले गए।

मैंने कहा- एसी बात नहीं है।कुछ जरूरी काम आ गया था।इसीलिए जाना पड़ा। आपको पता है।रास्ते भर आपके बारे में ही सोचता रहा। आपकी बहुत फिक्र हो रही थी मुझे।

आस्था- अगर मेरी फिक्र होती,तो क्या बिन बताए जाते आप?

मैंने कहा- अच्छा इस बार मुझे माफ कर दो, आगे से गलती का मौका नहीं दूंगा।

आस्था ने व्यंग करते हुए कहा- अच्छा जी ठीक है।वैसे भी मुझे गलती करने वाले लोग पसंद नहीं है।

आस्था की इस बात पर हम दोनों ही मुस्कुरा दिए। इस एक दिन की दूरी ने,हम दोनों के फासले मिटा दिए थे।हम दोनों ऐसे बात कर रहे थे। जैसे एक-दूसरे को बहुत पहले से जानते हों। जैसे हम कभी अजनबी थे ही नहीं। हम दोनों ही एक-दूसरे से दिल की बात कहना चाहते थे।लेकिन कौन पहल करे,इसकी हिम्मत दोनों ही नहीं जुटा पा रहे थे। हम धीरे-धीरे मंदिर की सीढ़ियों की ओर बढ़ रहे थे।

सीढ़ियों के पास जाकर, मैंने हिम्मत कर अपना हाथ आस्था की ओर बढ़ाते हुए कहा- मैं अपने जीवन की हर सीढ़ि,आपके साथ चढ़ना चाहता हूं। क्या आप मेरे जीवन की सीढ़ियां चढ़ने में मेरी मदद करेंगी? क्या आप मेरा सहारा बनेगीं?

आस्था ने अपना हाथ मेरे हाथ पर रख दिया। और हम एक-दूसरे का सहारा बन, मंदिर की सीढ़ियां चढ़ रहे थे।

आप सभी पाठकों का बहुत आभार। 

धन्यवाद।

गौरव गुप्ता 


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