SHASHI SHEKHAR MISHRA

Drama

4.9  

SHASHI SHEKHAR MISHRA

Drama

मेरे बाबूजी

मेरे बाबूजी

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ग्रीष्म  ऋतु का आगमन हो चूका था। बड़े बेटे के कॉलेज की चंद दिनों की छुट्टियां हुई थी। कॉलेज खुलने के दिन से ही वार्षिक परीक्षा शुरू होने वाली थी। फिरभी बाबूजी और माँ बेटे के आने का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे। क्योंकि बड़ा बेटा घर से दूर एक शहर के कॉलेज के हॉस्टल में रह कर ग्रेजुएशन की पढाई कर रहा था। माँ पिताजी के अप्रदर्शित उम्मीदों का संसार था बड़ा बेटा | होता भी क्यों नहीं, होनहार भी तो था। और पहली बार घर से कोई हॉस्टल में रह कर पढाई करने दूसरे शहर गया था। इन्ही खुशिओं के बीच बड़े बेटे का आगमन हुआघर के सभी सदस्य मिलजुल कर खुशीआं बाँटने में तल्लीन हो गए थे। किसी को समय का पता ही नहीं चला और आखिर वो दिन भी आ गया जब बड़े बेटे को वापस हॉस्टल जाना था। परीक्षा जो शुरू होने वाली थी अगले दिन से। सुबह से ही माँ तरह तरह के पकवान बना कर खिलाने और बैग भर कर देने की तैयारी कर रही थी। धीरे धीरे समय बीतता गया और शाम होने को आई।

जैसे जैसे सूरज ढलने लगा घर के सभी सदस्य के चेहरे पर बेटे के वापस जाने के दुःख की लकीर साफ साफ दिखने लगी थी। माँ तो रसोई से लेकर आंगन तक अपने दर्द को छुपाने के लिए अकेली अपने आँचल से कभी न रुकने वाले आँशु को पोंछने का प्रयास कर रही थी।

आज बेटे के जाने के दिन एक ओर माँ के आँखों के आँशु थमने का नाम नहीं ले रहे थे और बाबूजी का उदास चेहरा भी बदलने को तैयार नहीं था। उधर ईश्वर ने भी दिन से ही घटाओं को आसमान में छाने की आज़ादी दे दी थी। शाम होते होते हल्कि  बूंदा बांदी भी शुरू हो चुकी थी। चिंता लगी थी की बेटे के जाने के समय यदि बारिश तेज हो गयी तो बस स्टैंड तक पहुंचना मुश्किल हो जायेगा और कहीं बस न छूट जाये। कल से परीक्षा भी तो शुरू रही है। सवारी के नाम पर अपनी साइकिल या साइकिल रिक्सा के अलावा शयद ही किसी के पास स्कूटर था। स्कूटर मिल भी जाता तो चलाना किसी को नहीं आता। ले दे कर अपनी साइकिल का ही साथ था।बस के जाने का समय रात के ९ बजे का था। लेकिन आसमान में बादल घने होते जा रहे थे और ७ बजते बजते अच्छी खासी बारिश भी शुरू हो चुकी थी। घर में सभी की चिंता बढ़ गयी थी। तभी बाबूजी ने माँ से कहा, अब कोई रास्ता नहीं है , जाना भी जरूरी है। मैं कोई उपाय देखता हूँ कह कर आँगन में चले गए। तभी आसमान में बिजली चमकने और बदल के गर्जन की तेज आवाज सुनाई दी और अंधकार छा गया। शायद बिजली गुल हो चुकी थी।

बाबूजी ने अपनी साइकिल निकाली और बेटे से कहा अपना बैग उठाओ। माँ को कहा पुराना चादर दो , एक खुद ओढ़ी एक बेटे को दी, क्यों की बरसाती थी नहीं | अपना छाता लिकाला और साइकिल के हैंडल पर एक बाल्टी टांगी। घर में टॉर्च नहीं थी , बाबूजी ने लालटेन जलाई और बाल्टी के अंदर रख लिया ताकि रास्ते में अंधेरे का सामना किया जा सके। बेटे को साइकिल के पीछे बैठाया और बस स्टैंड की ओर उस अंधेरी रात में लालटेन के सहारे निकल पड़े| अंधेरी रात , बारिश , सर्द हवाओं के बीच सुनसान सड़क पर बाबूजी साइकिल चलाते हुए बस स्टैंड पहुँच गए। बेटे को बस में बिठाया और नम आँखों और भारी मन से बेटे को आशीर्वाद दे कर विदा किया। बारिश और भी तेज हो चुकी थी , वापस जाना संभव नहीं था , अतः बस स्टैंड के शेड के निचे रात बितायी। इधर माँ भी रात भर बाबूजी की राह देखती रहीं। जब सुबह बारिश रुकी तब बाबूजी घर की ओर निकले।

बस में बैठे बैठे बीती रात की घटना बार बार बेटे की आँखों के सामने आती रही और आँखें नम होती रही। बार बार मन में यही ख्याल आता की पिता के स्नेह का शायद यह चरम है , क्या मैं बाबूजी एवं माँ को वापस कर पाउँगा ?


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