लालच बुरी बला

लालच बुरी बला

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बहुत साल पहले की बात है। हरीपूर नामक एक छोटा गाँव था। गाँव में व्यावसायिक, किसान और बहुत सारे मजदूर रहते थे। उसी गाँव में रमेश, आलोक, मोहन और मुरली ये चार मजदूर भी अपने-अपने परिवारोंके साथ रहते थे। चारों हररोज मजदूरी करके अपने परिवारोंका चरितार्थ करते थे। इस प्रकार चारोंका मेहनत-मजदूरी करते-करते अच्छा चल रहा था। हम सबको पता ही है की, कुदरत कब अपनी करवट बदलेगी ये कहा नहीं जा सकता। इसका अनुभव हरीपूर ग्राम को जल्दी ही आया। उस साल गाँव में बारीश कम होने से अकालसद्रुश्य स्थिती निर्माण हो गई।

गाँव के खेतों में पानी की कमी होने से किसानों ने उस साल फसल नहीं डाली। गाँव के खेतो में फसल ना होने के कारण काम ना मिलने पर सारे मजदूरों के उदरनिर्वाह का सवाल खडा हो गया। फिर सारे मजदूर काम पाने के लिए आसपास के गाँवो में स्थलांतर करने लगे। रमेश, आलोक, मोहन और मुरली को भी छह महिनों के लिए पास के गाँव में काम मिला। काम मिलने से वे चारों अब खुश थे।

उन दिनों आज के जैसे वाहतूक साधन उपलब्ध नहीं थे। एक गाँव से दूसरे गाँव में जाने के लिए पैदल जाना पडता था। इसी कारण से चारों को पडोसी गाँव में ही रहना पडनेवाला था। चारों ने फिर अपने -परिवारोंकी अगले छह महिनों के लिए व्यवस्था कर दी और काम के गाँव की ओर चारों चल पड़े। अब चारों का उस नये गाँव में दैनंदिन काम चलने लगा। चारों को काम करते-करते फिर एक महिना हुआ, दो महीने हुए, तीन महिने हुए और देखते-देखते छह महीने हो गए।

उधर का काम खत्म हो गया। फिर चारों अपने-अपने पैसे लेके अपने गाँव की ओर चल पड़े।

चलते-चलते फिर रास्ते में उन्हे एक जंगल लगा। दिन भर के थके होने से और दूर तक चलने से वे बहुत थक गएँ थे। थोडा विश्राम करने के लिए वे एक जगह पे बैठ गएँ। दिन के लगबग ४.३०-५.०० बजे थे। अभी आधा सफर तय करना था। अती थकाव के कारण उन्हें भूख भी लगी थी। अपने गाँव में वापिस जाने के उत्साह में वे खाने के लिए कुछ लेना भी भूल गए थे। फिर उन्होंने दोनों को खाने के लिए कुछ लाने के लिए वापिस उसी गाँव में भेजा जहाँ वे छह महीने काम कर रहे थे।


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