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silent writer

Thriller

4  

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खामोशी रह गई बच्ची के दिल में

खामोशी रह गई बच्ची के दिल में

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रात बहुत ज़्यादा शांत थी। इतनी शांत कि उस शांति में उसकी अपनी साँसों की आवाज़ उसे अजनबी लगने लगी थी। कमरे की दीवारें अंधेरे से ढकी हुई थीं, जैसे किसी ने रोशनी को ज़बरदस्ती बाहर धकेल दिया हो। खिड़की से आती हल्की हवा भी आज सुकून नहीं दे रही थी— वह हवा भी जैसे कुछ कह रही थी, कुछ डरावना। वह सिर्फ 10 साल की थी। इतनी छोटी कि दुनिया को अभी ठीक से समझना भी शुरू नहीं किया था, लेकिन इतनी समझदार कि गलत और सही के बीच फर्क पहचान सके। वह बिस्तर पर चुपचाप लेटी हुई थी। अचानक उसे महसूस हुआ— कोई उसके बहुत क़रीब आ गया है। उस पल कोई आवाज़ नहीं हुई। बस एक एहसास। एक भारी साया, जो उसकी साँसों के साथ-साथ और क़रीब आता जा रहा था। उसका शरीर जैसे पत्थर का हो गया। हाथ-पैर सुन्न पड़ गए। दिल इतनी ज़ोर से धड़क रहा था कि लगा— यह आवाज़ पूरे घर को जगा देगी। उसके दिमाग़ में एक ही ख़याल घूम रहा था— “अगर मैं हिली, तो कुछ बहुत बुरा हो जाएगा।” उसी पल उसे समझ आ गया— यह कोई खेल नहीं है। यह कोई मज़ाक नहीं है। यह कुछ गलत, डरावना और गंदा है। उसकी साँसें जमने लगीं। गला सूख गया। आँखों में पानी भर आया, लेकिन वह रोई नहीं। शायद डर ने उसे रोने भी नहीं दिया था। अचानक उसने सारी ताक़त जुटाई। वह उठी, और बिना पीछे देखे अंधेरे को चीरती हुई अपनी माँ की तरफ भागी। उस रात उसने पहली बार जाना— डर कैसे इंसान के अंदर रेंगता है। कैसे वह बिना आवाज़ किए सीधे दिल में बैठ जाता है। अगले दिन माँ ने उस लड़के को बुलाया। सवाल हुए, आवाज़ें ऊँची हुईं। आख़िर में उसे बच्ची के पैर छूकर माफ़ी माँगनी पड़ी। सबने कहा— “अब सब ठीक है।” लेकिन कुछ भी ठीक नहीं था। उस दिन के बाद रातें उसकी दुश्मन बन गईं। हर साया उसे वही रात याद दिलाता। हर आहट उसके दिल की धड़कन तेज़ कर देती। हर बंद दरवाज़ा उसे डराता। वह सोती नहीं थी। बस आँखें बंद कर जागती रहती थी। चादर ओढ़े हुए, खुद को समेटे हुए, जैसे डर से बचने की कोशिश कर रही हो। उसका बचपन उसी अंधेरी रात दम घुटकर मर गया था। धीरे-धीरे उसने खुद को पढ़ाई में छुपा लिया। किताबें अब उसकी ढाल थीं। काग़ज़ों के शब्द उसे उस रात से थोड़ी देर के लिए दूर ले जाते। लेकिन ज़िंदगी ने उसे चैन से जीने नहीं दिया। उसी दौरान घर में एक और डर चुपचाप पनपने लगा। उसके भाई को एक गंभीर बीमारी हो गई। पहले दवाइयाँ आईं, फिर अस्पताल के चक्कर। अस्पताल की ठंडी दीवारें, दवाइयों की तेज़ गंध, और माँ की दबी हुई सिसकियाँ— सब मिलकर घर को एक ज़िंदा कब्र में बदल रहे थे। पिता ने हाल ही में घर बनाया था। सारी पूँजी उसमें लग चुकी थी। अब पैसे नहीं थे, बस चिंता थी। तीन भाइयों की वह इकलौती बहन, उम्र से पहले ज़िम्मेदार बन गई। वह घर के कामों में हाथ बँटाने लगी। भाई का ध्यान रखने लगी। और माँ की चुप्पी को समझने लगी। जब भाई के ऑपरेशन के लिए माता-पिता बड़े शहर गए, तो घर में एक अजीब सन्नाटा भर गया। ऑपरेशन सफल हुआ, लेकिन माँ-पापा की कमी दीवारों से टकराकर और भारी हो जाती। पढ़ाई बिगड़ गई। ध्यान नहीं लगता था। जैसे-तैसे क्लास पास हुई। फिर वह आठवीं में पहुँची। उस दिन उसने घर को देखा— और खुद को भी। उसने पहली बार महसूस किया— अगर वह अब नहीं संभली, तो यह डर उसे पूरी तरह तोड़ देगा। उसने तय किया— अब डर के साथ जीना नहीं है। उसने दिन-रात पढ़ाई शुरू की। थकान थी, डर था, लेकिन उसने सबको पीछे छोड़ दिया। दसवीं अच्छे अंकों से पास हुई। ग्यारहवीं में उसने मैथ्स, फिज़िक्स और केमिस्ट्री ली। बिना किसी ट्यूशन के। लोगों ने कहा— “यह बहुत मुश्किल है।” उसने कुछ नहीं कहा। बस पढ़ती रही। और पास हो गई। अब उसे पता था— बिना प्रोफेशनल डिग्री ज़िंदगी और डरावनी होगी। उसने क्रैश कोर्स किया। परीक्षा दी। और सेलेक्ट हो गई। सरकारी कॉलेज में दाख़िला मिला। उस रात वह देर तक छत को देखती रही। डर अभी भी था— लेकिन अब उस डर के सामने वह खड़ी थी। कॉलेज में उसने खुद को साबित किया। मेहनत, अनुशासन और चुप्पी। वह कॉलेज टॉपर बन गई। लेकिन ज़िंदगी फिर अंधेरा लेकर आई। भाई की तबीयत फिर बिगड़ने लगी। इंटरनशिप के लिए उसे पहली बार घर से बाहर जाना पड़ा। कॉलेज में एक लड़का था। वह उसे परेशान करता था। धीरे-धीरे बातें शुरू हुईं। फिर उसके बारे में गलत बातें फैलने लगीं। उसने दूरी बना ली। उसी समय भाई को खून की ज़रूरत पड़ी। उसी लड़के ने खून दिया। लेकिन भाई नहीं बचा। उस दिन घर की दीवारें जैसे और क़रीब आ गईं। वह बोलती नहीं थी। बस हर रात छत को घूरती रहती थी। दर्द उसे अंदर से खाता रहता। रिज़ल्ट आया— वह फिर टॉपर थी। आगे की पढ़ाई के लिए वह बाहर रहने लगी। पिता छोड़ने आए। वह लड़का फिर हदें पार करने लगा। इस बार वह चुप नहीं रही। शिकायत हुई। मामला परिवार तक पहुँचा। बैठक हुई। मामला सुलझा। डिग्री पूरी हुई। और फिर— उसे बैंक में नौकरी मिल गई। शादी हुई। लेकिन शादी के बाद डर ने नया चेहरा ले लिया। उसका पति अपने अतीत को भूल नहीं पाया था। यह दर्द चिल्लाता नहीं था— बस धीरे-धीरे उसकी रूह को खोखला कर रहा था। जब उसकी पुरानी प्रेमिका की शादी हुई, तब जाकर ज़िंदगी ने थोड़ी साँस लेने दी। उसने काम सीखा। खुद को बदला। और आगे बढ़ी। लेकिन यह कहानी यहाँ खत्म नहीं होती। क्योंकि असली लड़ाई अब शुरू होने वाली है…


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