जीवन की चाबी
जीवन की चाबी
जीवन की चाबी
Vijay Sharma Erry
सवाल यह नहीं कि चाबी कहाँ खोयी, सवाल यह है कि हमने कब से खुद को ताला लगा रखा है।
रामपुर की पुरानी हवेली में रहता था अवध बिहारी लाल, उम्र साठ के पार, दिल अभी भी किशोर। लोग उन्हें “बाबूजी” कहते थे। हवेली की सबसे ऊपरी मंजिल पर एक लोहे का संदूक था, जिसकी चाबी बाबूजी ने पचास साल पहले गँवा दी थी। संदूक में क्या था, कोई नहीं जानता था। नौकर बदलते रहे, बच्चे-पोतों ने सैकड़ों बार पूछा, पर बाबूजी हर बार मुस्कुरा कर टाल जाते – “जब सही वक्त आएगा, चाबी खुद मिल जाएगी।”
एक दिन दिसंबर की ठंडी सुबह थी। पोता अर्णव दिल्ली से छुट्टियाँ मनाने आया था। बीस साल का लड़का, आईआईटी का छात्र, दिमाग में सर्किट और कोडिंग। उसने संदूक को चुनौती समझ लिया।
“दादाजी, यह चाबी तो आपने कहीं फेंक दी होगी। अब तो लॉक तोड़ देते हैं।”
बाबूजी ने चाय की चुस्की ली और धीरे से पूछा, “तू लॉक तोड़ेगा या खुद को?”
अर्णव हँस पड़ा। उसने ऑनलाइन मंगवाया मास्टर-की सेट, ड्रिल मशीन, चुंबकीय पिक। तीन दिन तक संदूक से जंग लड़ता रहा। ताला नहीं टूटा। उल्टे उसका हाथ कट गया। खून देख कर बाबूजी ने पहली बार सख्ती से कहा, “बेटा, जो चीज जबरदस्ती नहीं खुलती, उसमें कुछ कीमती जरूर होता है। धैर्य रख।”
अर्णव चुप हो गया। उसे लगा दादाजी अंधविश्वास में जीते हैं। लेकिन रात को नींद नहीं आई। वह सोचता रहा – दादाजी इतने यकीन से कैसे कहते हैं कि चाबी मिल जाएगी? क्या वाकई कोई चाबी है या यह सिर्फ एक बहाना है खुद को कभी न खोलने का?
चौथे दिन हवेली में सालाना मेले का शोर शुरू हुआ। गाँव के बाहर रामलीला का मंच सजा था। बाबूजी शाम को हमेशा की तरह लाठी टेकते वहाँ चले गए। अर्णव भी साथ हो लिया। मंच पर जब हनुमान जी लंका दहन कर रहे थे, भीड़ में अचानक एक बूढ़ी औरत चिल्लाई, “अवध बिहारी! अभी भी जिंदा है तू?”
सब हँस पड़े। बाबूजी रुक गए। औरत करीब आई। चेहरे पर झुर्रियाँ, आँखों में पुराना गुस्सा। नाम था उसका – कमला बुआ। कोई साठ-सत्तर साल पहले की बात थी, जब कमला और अवध बिहारी एक-दूसरे को दिलोजान से चाहते थे। लेकिन जाति का फर्क, घरवालों का दबाव। कमला की शादी कहीं और हो गई, अवध बिहारी ने भी शादी कर ली। उसके बाद दोनों ने कभी एक-दूसरे से बात नहीं की।
कमला बुआ ने बाबूजी के सामने हाथ जोड़े और कहा, “मैं मरने से पहले एक बार तुझसे मिलना चाहती थी।”
बाबूजी की आँखें नम हो गईं। उन्होंने धीरे से पूछा, “क्यों आई हो?”
“वह चाबी लौटाने आई हूँ जो तूने मुझे दी थी।”
भीड़ चुप। अर्णव के कान खड़े हो गए। कमला बुआ ने अपनी पुरानी साड़ी के पल्ले से एक छोटी-सी जंग लगी चाबी निकाली और बाबूजी के हाथ पर रख दी।
“उस दिन तूने कहा था – जब तक मैं यह चाबी लौटाऊँगी, तब तक हमारा प्यार जिंदा रहेगा। मैंने कभी लौटाई नहीं। आज लौटा रही हूँ। अब मरने दे।”
बाबूजी कुछ देर चाबी को देखते रहे। फिर अर्णव का हाथ पकड़ कर बोले, “चल बेटा, घर चलें। आज संदूक खुलने का वक्त आ गया।”
रात के दस बजे थे। हवेली में सन्नाटा। सिर्फ दीया जल रहा था। बाबूजी ने खुद सीढ़ियाँ चढ़ीं। अर्णव ने संदूक के सामने घुटने टेके। चाबी घुसी। एक हल्का-सा क्लिक। ताला खुला।
अंदर था – एक मोटा-सा रजिस्टर, कुछ पुराने खत, एक टूटा हुआ चाँदी का कंगन, और सबसे ऊपर एक छोटा-सा लिफाफा। बाबूजी ने लिफाफा खोला। उसमें एक कागज था, जिस पर कमला की लिखावट में सिर्फ दो लाइनें थीं:
“अवध,
अगर यह चाबी कभी वापस आए, तो समझना मैंने सारी जिंदगी तुझसे ही प्यार किया।
तू कभी संदूक मत खोलना जब तक मैं खुद न लौटाऊँ।”
बाबूजी की आँखों से आँसू टपकने लगे। अर्णव चुप था। उसने पहली बार महसूस किया कि कुछ ताले लोहे के नहीं, दिल के होते हैं।
बाबूजी ने रजिस्टर खोला। उसमें हर साल की एक तारीख पर सिर्फ एक लाइन लिखी थी –
“आज भी कमला की याद आई।”
पहली एंट्री थी १४ फरवरी १९६८ की, आखिरी एंट्री इसी साल की। पचास साल। हर साल। एक ही वाक्य।
अर्णव ने धीरे से पूछा, “दादाजी, आपने दादीजी से कभी प्यार नहीं किया?”
बाबूजी मुस्कुराए, “किया ना? बहुत किया। लेकिन प्यार एक ही बार पूरी तरह होता है। बाकी सब साथ निभाना होता है। मैंने निभाया। कमला ने भी निभाया। हम दोनों ने कभी एक-दूसरे को दोष नहीं दिया। बस यह चाबी हमारे बीच एक वादा बन कर रह गई थी।”
फिर उन्होंने संदूक में से वह टूटा कंगन निकाला। कहा, “यह कमला का था। शादी के दिन मैंने तोड़ दिया था गुस्से में। उसने कहा था – जब तक यह जुड़ेगा नहीं, हम नहीं जुड़ेंगे। मैंने कभी जोड़ने की कोशिश नहीं की। आज जोड़ दूँगा।”
अगली सुबह बाबूजी और अर्णव रामलीला मैदान गए। कमला बुआ वहीं थीं। बाबूजी ने उनके सामने घुटने टेके और टूटा कंगन जोड़ कर उनकी कलाई में पहना दिया। कमला बुआ रो पड़ीं। भीड़ तालियाँ बजा रही थी जैसे राम-सीता का मिलन हो रहा हो।
उस रात अर्णव ने दादाजी से पूछा, “तो असली चाबी क्या थी?”
बाबूजी ने कहा, “इंतजार। और यह यकीन कि एक दिन वह जरूर लौटेगी। चाबी तो सिर्फ बहाना थी।”
अर्णव आज भी कभी-कभी सोचता है – हम कितने संदूक अपने अंदर बंद करके रखते हैं। कितने ताले खुद ही लगा लेते हैं। और कितनी चाबियाँ हम दूसरों के पास छोड़ आते हैं, यह उम्मीद में कि एक दिन कोई आकर हमें खोल देगा।
शायद जिंदगी की सबसे कीमती चाबी “खोयी हुई” नहीं होती।
वह बस सही हाथों का इंतजार करती है।
(कुल शब्द – १४९२)
