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नवल पाल प्रभाकर दिनकर

Children Drama

4.0  

नवल पाल प्रभाकर दिनकर

Children Drama

घुघ्घी वाली चिड़िया

घुघ्घी वाली चिड़िया

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एक बार एक चिडि़या थी । जिसके सिर पर एक लम्बी सी घुघ्घी थी । उसका घौंसला एक जमींदार के खेत मे खड़ी जांटी पर था । तथा वह चिडि़या हमेशा अपने घौंसले में रहती थी । भूख लगती तो वह वहीं खेत में पड़े दाने आदि चुगकर अपनी भूख का निवारण कर लेती । और पानी के लिए वहीं जमींदार के बर्तनों में रखे पानी को पी लेती । इस प्रकार से उस निठल्ली चिडि़या का सारा दिन व्यतीत होता ।

एक दिन उस चिडि़या को उस जमींदार के खेत में एक पैसा पड़ा हुआ मिला । चिडि़या उस एक पैसे को पाकर बहुत खुश हुई और गाना गाती फिरती - हम पैसे वाले हो गये जी, हम पैसे वाले हो गये जी, हम पैसे वाले हो गये जी ।

एक दिन जमींदार ने यह सुना तो उसने उस एक पैसे को उठा लिया । चिडि़या अब तो बस जमींदार सिर उड़ती रही और बार-बार यही कहती रही-कोई भूखा मरता ले गया जी, कोई भूखा मरता ले गया जी, कोई भूखा मरता ले गया जी ।

जमींदार ने सोचा यह चिडि़या नही मानेगी, सो उसने वह पैसा वापिस उसी घौंसले में रख दिया । अब जब भी वह चिडि़या उस जमींदार को देखती तो कहती- कोई डरके वापिस धर गया जी, कोई डरके वापिस धर गया जी, कोई डरके वापिस धर गया जी ।

जब उस जमींदार ने उस चिडि़या की ये बातें सुनी तो उसे बहुत गुस्सा आया और पास में खडे़ एक पेड़ की लम्बी छड़ी तोड़़ी और उस चिडि़या को मारी मगर वह जरा भी नही हिली । किसी तरह से न बच पाने की दशा में वह चिडि़या की टांग पर लगी और उसकी टांग से खून बहने लगा । इस पर वह चिडि़या घबराई नही, और ना उसे पीड़ा का अनुभव हुआ बल्कि उसके मुंह से अब भी गीत ही निकल रहा था । कोई दूध का प्याला पी लो जी, कोई दूध का प्याला पी लो जी, कोई दूध का प्याला पी लो जी ।

कुछ दिनांे बाद चिडि़या के उस पैर में मवाद पड़ गया । इस पर भी चिडि़या दुखी नही हुई और खुशी-खुशी कहती फिर रही थी- कोई दही का प्याला पी लो जी, कोई दही का प्याला पी लो जी, कोई दही का प्याला पी लो जी ।

फिर एक दिन ऐसा भी आया जब उसके उस पैर में कीड़े पड़ गये और पैर गलने लगा । अब भी वह चिडि़या कहीं से दवाई लाने की बजाए मस्ती में झूम रही थी और गाना गाती फिर रही थी । वह जब भी जमींदार को देखती तो गाती -हम बच्चों वाले हो गये जी, हम बच्चों वाले हो गये जी, हम बच्चों वाले हो गये जी ।

जब उस चिडि़या के पूरे बदन में कीड़े पड़ गये और अपने घौसंले में पड़ी रहती तब भी उसका हौंसला ज्यों का त्यों था । जब उसका अंतिम समय आया तो वह उस जमींदार का इंतजार बड़ी बेशब्री से करने लगी । जब वह जमींदार सुबह खेतों में टहलने के लिए आया तो चिडि़या आज भी उसी स्वाभिमानी अंदाज में कहने लगी - हम रामजी के घर चले जी, हम रामजी के घर चले जी, हम रामजी के घर चले जी ।

यह कहकर वह चिडि़या मर गई और जब उस चिडि़या का शौर सुनाई ना दिया तो जमींदार उसके घौंसले के पास गया । और उसके घौंसले में चिडि़या को मरा हुआ पाया । चिडि़या अब सचमुच में मर चुकी थी । वह सही में राम के घर जा चुकी थी । मगर चिडि़या ने उस जमींदार का हृदय परिवर्तन जरूर कर दिया था । अब उस जमींदार के हृदय में भावना की हिलोंरे उठने लगी थी जो कि रोके से भी नही रूक रही थी । और आंखों के जरिए बाहर आने लगी थी । बड़ी मुश्किल से उसने उस चिडि़या को उठाया और एक गडढा खोदकर उसमें उस चिडि़या को उसमें दफनाया।

और उस चिडि़या यह सीख ली कि किसी भी परिस्थिति में वह अपने स्वाभिमान को नही छोड़ेगा और स्वाभिमान के साथ ही जीयेगा ।


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