गाँव - 3.5
गाँव - 3.5
हवेली में सब जल्दी उठ जाते थेह पौ फ़टते ही नीले-से अँधेरे में, जब झोंपड़ियों में चूल्हे जल जाते, भट्टियाँ गरम की जातीं और चटखन के बीच से धीरे-धीरे गहरा दूधिया धुँआ ऊपर उठता और जमी हुई भूरी खिड़कियों वाले घर के पार्श्व में इतनी ठण्डक हो जाती जितनी ड्योढ़ी में, जो कुज़्मा को जमा देती। दरवाज़े पर होती खड़खड़ाहट और जमे हुए, बर्फ से ढँके हुए फ़ूस की सरसराहट, जिसे कोशेल स्लेज से घसीटता हुआ ले जा रहा था। सुनाई दे रही थी – उसकी हल्की भर्राई हुई आवाज़, ऐसे आदमी की आवाज़, जो जल्दी उठ गया हो, भूखे पेट ठण्ड़ में जम गया हो। समोवार के पाइप को खड़खड़ाते हुए कठोर फ़ुसफ़ुसाहट से दुल्हन कोशेल के साथ बातें कर रही थी। वह नौकरों वाले हॉल में नहीं, जहाँ तिलचट्टे हाथों-पैरों से खून चूसा करते थे, बल्कि सामने वाले कमरे में सोया करती थी, और पूरे गाँव को विश्वास था ऐसा यूँ ही नहीं करती है। गाँव अच्छी तरह जानता था कि दुल्हन पर पतझड़ में क्या गुज़री थी। ख़ामोश तबियत वाली दुल्हन किसी ‘नन’ से भी ज़्यादा कठोर और दयनीय हो गई थी। मगर इससे क्या? कुज़्मा को अद्नाद्वोर्का से पता चल गया था गाँव में क्या बातें हो रही हैं, और, हमेशा, उठते हुए, वह शर्म और घृणा से इस बारे में सोचता। उसने दीवार पर खटखट की, यह बतलाने की नीयत से कि उसे समोवार का इंतज़ार है, और खखारते हुए वह सिगरेट पीने लगा : इससे उसके दिल को शान्ति मिली, सीने में हल्कापन महसूस हुआ। वह भेड़ की खाल ओढ़े सोया था और गर्माहट से निकलने के बारे में फ़ैसला न करते हुए, कश लगा रहा था और सोच रहा था, “बेशर्म हैं लोग! मेरी बेटी उसकी उम्र की है। ” यह बात कि दीवार के उस पार जवान औरत सोई है उसे सिर्फ पितृवत् भावनाओं से परेशान कर जाती थी; दिन में वह गम्भीर रहा करती, मुश्किल से कोई लफ़्ज़ कहती, जब सोती, तो उसके चेहरे पर कुछ बच्चों जैसा, दुखभरा अकेलापन दिखाई देता। मगर क्या गाँव इन भावनाओं पर यकीन करेगा? तीखन इल्यिच भी विश्वास नहीं करता था। कभी-कभी वह अजीब तरह से हँसता। वह तो हमेशा ऐसा ही था – किसी पर भरोसा न करने वाला, शक्की, अपने शक को फ़ूहड़पन से प्रकट करता और अब तो अपना विवेक भी खो बैठा था। उसे कुछ भी कहो, उसके पास एक ही जवाब होता :
“सुना, तीखन इल्यिच? ज़ाक्रेझेव्स्की, कहते हैं, नज़ले से मर रहा है, ओरेल ले गए हैं उसे। ”
“बकवास! जानते हैं हम उसके नज़ले को!”
“मुझे तो कम्पाउण्डर ने बताया। ”
“तो तू उसी की बात सुन। । । ”
“अख़बार ख़रीदना चाहता हूँ,” उससे कोई कहता है। “मुझे मेहेरबानी करके मेरी तनख़्वाह में से दस रूबल दे दे। ”
“हुम्! शौक चर्राया है आदमी को दिमाग़ में बकवास भरने का। हाँ, मगर मेरे पास तो सिर्फ पन्द्रह कोपेक ही हैं, मुश्किल से बीस निकलेंगे। । । ”
दुल्हन आती, पलकें झुकाए :
“आटा, तीखन इल्यिच, हमारे पास चुटकी भर ही बचा है। । । ”
“ऐसा कैसे – चुटकी भर? ओय, बकवास कर रही है, लुगाई!”
और वह भौंहे नचाता। यह साबित करते हुए कि आटा अभी कम से कम तीन दिन और चलना चाहिए था, जल्दी से कभी कुज़्मा पर, तो कभी दुल्हन पर नज़र डालता। एक बार तो हँसते हुए पूछ भी बैठा :
“नींद कैसी आती है आप लोगों को, ठीक है, गर्माहट है?”
और दुल्हन सुर्ख़ हो गई और सिर झुकाकर बाहर निकल गई, शर्म और गुस्से के मारे कुज़्मा की उँगलियाँ सर्द हो गईं।
“शर्म कर, भाई, तीख़न इल्यिच,” वह बुदबुदाया, खिड़की की ओर देखते हुए। “और ख़ासकर तब, जब तूने ख़ुद ही मुझ पर भेद खोला। ”
“तो फ़िर यह लाल क्यों हो गई?” कड़वाहट, परेशानी और खिसियानी हँसी से तीखन इल्यिच ने पूछा।
सुबह सबसे अप्रिय काम था हाथ मुँह धोना। सामने वाले कमरे में जमे हुए फूस के कारण ठण्डक थी, तसले में टूटे हुए शीशे की तरह बर्फ तैरती रहती। कभी-कभी कुज़्मा सिर्फ हाथ ही धोकर चाय पीने बैठ जाता और नींद से उठने पर बिल्कुल बूढ़ा प्रतीत होता। गन्दगी और ठण्ड के कारण इस पतझड़ में वह बहुत दुबला गया और उसके बाल भी सफ़ेद हो गए। हाथ पतले हो गए, उनके ऊपर की खाल पतली और चमकीली हो गई, छोटे-छोटे बैंगनी धब्बों से भर गई।
सुबह भूरी-भूरी सी थी। कड़े भूरे बर्फ़ से ढँका गाँव भी भूरा ही दिखाई दे रहा था। छत के नीचे शहतीर पर लटके हुए कपड़े भी जमी हुई भूरी छाल जैसे लग रहे थे। झोंपड़ियों के पास सब कुछ जम गया था – धोवन का पानी उँडेला जा रहा था, और राख फेंकी जा रही थी। फ़टे चीथड़े पहने बच्चे झोंपड़ियों और छपरियों के बीच बनी सड़क से होकर स्कूल जा रहे थे, बर्फ़ के टीलों पर भागकर चढ़ते, उनसे फ़िसलते अपने फूस के जूतों पर, सबकी पीठ पर टाट के झोले थे जिनमें स्लेटें और डबल रोटी रखी रहती। उनके सामने से आता कावड़ पर दो बाल्टियाँ लटकाए, झुका हुआ, अपने फ़ूहड़, कड़े लकड़ी बन चुके, सुअर की खाल के पैबन्द लगे फूस के जूते पहने, बेतरतीबी से पैर रखता, एक पुराने मोटे कपड़े की कमीज़ पहने, बीमार, काले चेहरे वाला चुगूनक; एक टीले से दूसरे टीले पर घिसटती, पानी छलकाती, फूस से ढाँकी गई किसी की पानी वाली गाड़ी; औरतें गुज़रतीं, जो एक दूसरे से कभी नमक, तो कभी बाजरा, कभी चुटकी भर आटा माँगतीं, पैन केक या पुडिंग पर छिड़कने के लिए। खलिहान खाली थे, सिर्फ याकव के दरवाज़े से धुँआ उठ रहा था, वह अमीर किसानों की नकल करते हुए सर्दियों में गाहने का काम करवाया करता था। खलिहानों के उस पार, घरों के आँगनों में लगे नंगे पेड़ों के पीछे निचले, बदरंग आसमान के नीचे फ़ैला था धूसर बर्फ़ीला खेत, लहरियेदार बर्फ़ से ढँका रेगिस्तान।
कभी-कभी कुज़्मा नौकरों वाले कमरे में कोशेल के पास जाया करता गर्म-गर्म, अंगारों जैसे आलुओं या बासे, खट्टे गोभी के शोरवे का नाश्ता करने। वह उस शहर को याद करता, जहाँ उसने अपना पूरा जीवन बिता दिया था, उसे अचरज होता : वहाँ जाने का उसका मन ही नहीं होता था। तीखन के लिए शहर की ज़िन्दगी एक मनचाहे सपने के समान थी, वह तहेदिल से गाँव से नफ़रत करता था, उसका तिरस्कार करता था। कुज़्मा सिर्फ कोशिश करता नफ़रत करने की। वह अब और भी अधिक भयावहता से अपने अस्तित्व पर नज़र डालता : दुर्नोव्का में वह एकदम जंगली हो गया था, अक्सर हाथ-मुँह न धोता, पूरे दिन अपना चुयका न उतारता, कोशेल के साथ एक ही कटोरी से खाता। मगर सबसे बुरी बात यह थी कि अपने वजूद से डरते हुए, जो उसे हर दिन, हर घण्टे बूढ़ा किए जा रहा था, वह यह महसूस कर रहा था कि वह इसे पसन्द करता है, कि वह, शायद उसी कोल्हू में लौट आया है, जिस पर शायद जन्म से ही उसका अधिकार था : यूँ ही, ज़ाहिर है, नहीं बह रहा था उसकी रगों में दुर्नोव्कावासियों का ख़ून!
नाश्ते के बाद वह कभी हवेली में तो कभी गाँव में टहलता। याकव के खलिहान में जाता, सेरी या कोशेल की झोंपड़ी में जाता, जिसकी बूढ़ी माँ अकेली रहा करती थी, जादूगरनी के नाम से मशहूर थी, ऊँची और भयानक रूप से दुबली थी, दाँत बाहर को निकले हुए थे, साक्षात् मौत जैसी, बोलती थी बदतमीज़ी से और दो-टूक। किसानों जैसा पाइप पिया करती: भट्ठी गरमाती, चारपाई पर बैठती और कश लगाया करती, भारी काली चप्पल वाला लम्बा पैर हिलाते हुए।
लेण्ट के दौरान कुज़्मा दो बार बाहर गया। डाकख़ाने और भाई के पास गया। और ये सफ़र बड़ा दुखद रहा : कुज़्मा ठण्ड के मारे इतना जम गया कि अपने जिस्म के होने का एहसास तक भूल गया। उसका भेड़ की खाल का कोट इतना पुराना हो गया था कि जगह-जगह से ऊन उखड़ चुकी थी। खेतों में हवा चिंघाड़ रही थी। दुर्नोव्का में बैठे रहने के बाद सर्दियों की हवा की ज़बर्दस्त ताज़गी में साँस नहीं लेना चाहिए था। गाँव में इतने लम्बे समय तक निष्क्रिय रहने के बाद भूरा बर्फीला विशाल क्षेत्र चकाचौंध कर रहा था, सर्दियों के नीलेपन से चमकती दूरियों को देखकर जी नहीं भरता था, वे तस्वीर जैसी सुन्दर प्रतीत हो रही थीं। घोड़ा तेज़ हवाओं से जूझता हुआ, नथुनों से साँस छोड़ता हुआ, बहादुरी से चला जा रहा था, उसके नाल जड़े खुरों के नीचे से बर्फ़ के ढेले खट्-खट् करते स्लेज के सामने वाले हिस्से से टकराते। कोशेल, जिसके गाल बर्फ़ की मार से काले-बैंगनी हो गए थे, घुरघुराते हुए ढलान पर पायदान से कूद जाता और चढ़ाव पर किनारे से छलाँग मरकर उस पर चढ़ जाता। मगर हवा तीर की तरह चल रही थी, बर्फ़ से निकाले गए फूस में रखे हुए उसके पैर दर्द कर रहे थे और जम गए थे, माथा और जबड़े दर्द के मारे फ़टे जा रहे थे। । । और उल्यानोव्का के नीची छत वाले पोस्ट-ऑफ़िस में सब कुछ इतना नीरस और उबाने वाला था, जितना किसी दूर-दराज़ के सरकारी दफ़्तरों में होता है। फफूँद और लाख की बदबू आ रही थी, फ़टेहाल पोस्टमैन ठप्पा लगाता जा रहा था, गुस्सैल साखरोव किसानों पर दहाड़ रहा था, गुस्सा होते हुए कि कुज़्मा उसे पाँच मुर्गियाँ या एक पूद आटे की बोरी भेजने के बारे में क्यों नहीं सोचता। तीखन इल्यिच के घर के पास स्टीम इंजिन के धुँए की गन्ध कुज़्मा को व्याकुल कर गई, याद दिला गई कि दुनिया में शहर भी है, लोग, अख़बार और समाचार भी हैं। भाई से बतियाना, उसके यहाँ सुस्ताना, गरमाना अच्छा ही लगता। मगर बातचीत का सिलसिला जमा नहीं। भाई को हर घड़ी दुकान में जाना पड़ता, या काम के सिलसिले में। बातें भी वह करता सिर्फ कारोबार की, किसानों की झूठी बकवास के बारे में, उनके कमीनेपन और कटुता के बारे में। जल्दी-से-जल्दी जागीर से छुटकारा पाने की ज़रूरत के बारे में। नस्तास्या पित्रोव्ना की हालत बड़ी दयनीय थी। वह, ज़ाहिर था, पति से बेहद ख़ौफ़ खाने लगी थी, असंगत-सी बातें करते हुए बातचीत में शामिल हो जाती, बेकार में ही उसकी तारीफ़ें किया करती, उसकी अक्लमन्दी की, पैनी कारोबारी नज़र की, यह कि वह कारोबार की हर चीज़ पर, हर चीज़ पर ख़ुद नज़र रखता है।
“ऐसी मालूमात है हर चीज़ की, ऐसी मालूमात है!” वह कहती। तीखन इल्यिच निष्ठुरता से उसकी बात काट देता। एक घण्टे भर ऐसी बातचीत सुनने के बाद कुज़्मा का मन, घर की ओर, हवेली की ओर खिंचने लगता। “वह पगला गया है, ओय-ओय पगला गया है!” तीखन इल्यिच का गुस्सैल, दुष्ट चेहरा, उसकी स्वार्थपरता, शक्की स्वभाव और एक ही चीज़ को ऊबाऊ ढंग से बार-बार दुहराने की आदत को याद करके कुज़्मा घर जाते हुए रास्ते में बड़बड़ाया। अपने घर में अपने दुख और अपनी पुरानी पोषाक को छिपाने की बेसब्री से वह चिल्ला पड़ा कोशेल पर, और घोड़े पर। । ।