द्वंद्व युद्ध - 18.1

द्वंद्व युद्ध - 18.1

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मई के बिल्कुल अंत में कैप्टेन असाद्ची की रेजिमेंट में नौजवान सिपाही ने फाँसी लगाकर आत्महत्या कर ली, और, भाग्य की विचित्रता देखिये, उसने उसी तारीख को फाँसी लगा ली, जब पिछले साल इस रेजिमेंट में ऐसी ही दुर्घटना हुई थी। जब उसका पोस्ट मॉर्टम किया जा रहा था, रमाशोव कम्पनी के ड्यूटी ऑफ़िसर का सहायक था और अनिच्छापूर्वक उसे पोस्टमॉर्टम के दौरान उपस्थित रहना पड़ा। सिपाही का शरीर अभी सड़ना शुरू नहीं हुआ था।रमाशोव को उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए गए जिस्म से कच्चे माँस की तेज़ बू आई, बिल्कुल वैसी, जैसी पशुओं के शवों से आती है, जिन्हें माँस की दुकानों के प्रवेश द्वार पर टाँग कर रखा जाता है।उसने उसके नीले-भूरे चिपचिपाते, चमकते भीतरी हिस्से देखे, उसके पेट में जमा अन्न को देखा, उसके मस्तिष्क को देखा – भूरा-पीला, पूरी तरह वलयों से आच्छादित, क़दमों की आहट से मेज़ पर पड़े पड़े थरथराते हुए, जैसे कि जैली, जिसे उलट कर रख दिया गया हो।ये सब नया था, डरावना था और घिनौना था और साथ ही इसने उसके भीतर मानव के प्रति एक तिरस्कारयुक्त अनादर को भर दिया।

कम्पनी में, कभी कभी, बिरले ही, सामूहिक, आम, बदनाम, मद्यपानोत्सव के कुछ दिन आया करते।शायद यह उन विचित्र क्षणों में होता हो, जब लोग, संयोगवश एक दूसरे से बंधे हुए, मगर सभी एक साथ उबाऊ निठल्लेपन और बेमतलब क्रूरता की सज़ा पाए, अचानक एक दूसरे को नज़रों ही नज़रों में समझ गए हों, और वहाँ, दूर, उलझे हुए और पीडित अंतर्मन में ख़ौफ़, दुख और पागलपन की कोई रहस्यमय चिंगारी सुलग उठी हो।और तब शांत, भरपेट, जैसा कि साँडों के झुंड में होता है, जीवन, मानो अपनी परिधि से बाहर फिंक जाता है।

ऐसा ही इस आत्महत्या के बाद भी हुआ।शुरूआत की असाद्ची ने।वैसे भी लगातार त्यौहारों के कुछ दिन गुज़रे थे, और उस दौरान उसने मेस में घोर निराशाजनक खेल खेला और ख़तरनाक रूप से पीता रहा।अजीब बात थी: इस बड़े, ताक़तवर और जानवरों जैसे हिंस्त्र व्यक्ति की ज़बर्दस्त इच्छा शक्ति ने पूरी कम्पनी को अपने पीछे घसीट लिया, जैसे नीचे की ओर जाते हुए मंडराता हुआ कौआ; और इस पतनकारी मद्यपानोत्सव के दौरान असाद्ची ने सनकीपन से, बेशर्म आह्वान से, जैसे कोई सहारा और प्रतिकार ढूँढ रहा हो, अभद्र तरीक़े से आत्महत्या करने वाले को गाली दी।

शाम के छह बजे थे।रमाशोव खिड़की की सिल पर पैर रखे बैठा था और ‘फ़ाऊस्ट’ से वाल्ट्ज़ की धुन पर सीटी बजा रहा था।बाग में मेगपाई की टर-टर और चिड़ियों का शोर हो रहा था।शाम अभी हुई नहीं थी, मगर पेड़ों के बीच में अभी से हल्की, ख़यालों में डूबी परछाईयाँ तैर रही थीं।

अचानक उसके घर के फाटक के पास किसी की आवाज़ ज़ोर से, जोश से, मगर बेसुरेपन से गा उठी :

तैश में हैं घोड़े, खनखनाते हैं दहाने,

फ़ेन उगलते, चले तीर से, फुत्का-आ-आ-रते..

झनझनाहट के साथ दोनों प्रवेशद्वार खुल गए और कमरे में टपक पड़ा वेत्किन।मुश्किल से संतुलन बनाए रखे वह गाता रहा:

मालिक, मालकिनें नज़रों से बदहवास,

देखते हैं पीछे जाने वालों को।

वह कल से ही पूरी तरह नशे में धुत था, एकदम बदहवास।सारी रात न सोने के कारण आँखों की पलकें

लाल हो गईं थीं और फूल गई थीं।टोपी सिर पर पीछे की ओर खिसक गई थी।मूँछे, अभी तक गीली,‌

काली हो रही थीं और दो घनी, बर्फ की छड़ियों की तरह लटक रही थीं, जैसी वालरस की होती हैं।

 “र-रोमुआल्द! सीरियाई फ़कीर, आओ मैं तुम्हें चूम लूँ!” वह तरन्नुम में पूरे कमरे में चिल्लाया। “अरे, ये तुम सिर लटकाए क्यों बैठे हो? चलो, भाई।वहाँ चहल-पहल है, खेल रहे हैं, पी रहे हैं। चलेंगे!”

उसने बड़ी देर तक ज़ोर से रमाशोव के होठों को चूमा, उसके चेहरे को अपनी मूँछों से गीला करते हुए।

 “ओह, बस करो, बस करो, पावेल पाव्लोविच,” रमाशोव ने क्षीण प्रतिकार किया, “ये बच्चों जैसा जोश किसलिए?”

 “दोस्त, तुम्हारा हाथ! इन्स्टिट्यूट के साथी।तुम्हारे भीतर मैं अपनी पिछली परेशानियों और फुर्र से उड़ चुकी जवानी को प्यार करता हूँ।अभी अभी असाद्ची ने ऐ‘चिरंतन याद’ गाई कि शीशे खड़खड़ा उठे। रमाशोव, भाई, मैं तुमसे प्यार करता हूँ! आओ, मैं तुम्हें चूम लूँ, सचमुच के तरीक़े से, रूसी तरीक़े से, ठीक होठों को!”

रमाशोव को वेत्किन के सूजे, पथराई आँखों वाले चेहरे से नफ़रत हो रही थी, उसके मुँह से आ रही बदबू से घिन हो रही थी, उसके गीले होठों और मूँछों का स्पर्श भयानक प्रतीत हो रहा था।मगर वह हमेशा ऐसी परिस्थितियों में असुरक्षित अनुभव करता, और अब, सिर्फ नाम मात्र के लिए अलसाएपन से मुस्कुरा रहा था।

 “रुक; मैं तेरे पास आया किसलिए?...” हिचकियाँ लेते हुए और लड़खड़ाते हुए वेत्किन चिल्लाया। “ कोई महत्वपूर्ण बात थी..आ.., तो इसलिए।तो, भाई, मैंने बबेतिन्स्की की छुट्टी कर दी।जानते हो – पूरी की पूरी, आख़िरी कोपेक भी नहीं छोड़ा।बात यहाँ तक पहुँची कि वह प्रामिसरी नोट पर खेलने की विनती करने लगा! तो, मैं उससे कहता हूँ: ‘नहीं, मेरे बाप, ये तो बड़ी चीज़ है, कोई हल्की सी चीज़ नहीं लगा सकते?’ तब उसने रिवाल्वर रख दिया।ये-ये-ये रहा, रोमाशेन्को, देखो,” वेत्किन ने पतलून से रिवाल्वर निकाला, ऐसा करते समय जेब को पूरा उलट दिया, छोटा सा, ख़ूबसूरत रिवाल्वर अपने भूरे स्वेड के खोल में। “ये, भाई मेरे, मेर्विन सिस्टम का है। मैं पूछता हूँ: ‘ कितने लगाते हो? – ‘पच्चीस’ – ‘दस!’-‘पन्द्रह’।

 ‘ओह, शैतान ले जाए!’ उसने एक रुबल रोशनी में रखा और एक रंग पर रकम लगाई। बात्स, बात्स, बात्स, बात्स! पाँचवी चाल में मैंने उसकी रानी को – फ़्लैट! नम-अ-स्ते, सौ पॉइंट्स! उस पर कुछ और भी बाकी रहा।शानदार रिवाल्वर और उसकी गोलियाँ।तेरे लिए, रोमाशेविच।यादगार के तौर पर और प्यारी दोस्ती के नाम पर ये रिवाल्वर तुझे प्रेज़ेंट करता हूँ, और हमेशा याद करना, कैसा है वेत्किन – बहादुर अफ़सर।बा! ये तो कविता हो गई।”

 “ये क्यों, पावेल पाव्लोविच? छुपा लीजिए।”

 “तुम क्या समझते हो, बुरी रिवाल्वर है? हाथी को भी मार सकते हो।रुको, हम अभी देखते हैं।तेरा गुलाम कहाँ रहता है? मैं जाकर उससे कोई लकड़ी का बोर्ड लाता हूँ। ऐ, गु-गु-गुलाम! हथियार वाले!”

डगमगाते पैरों से वह ड्योढ़ी में गया, जहाँ अक्सर गैनान रहता था, कुछ देर वहाँ घूमा और एक मिनट बाद वापस आया, दायीं बगल में पूश्किन के बुत को सिर से पकड़े हुए।

 “नहीं, पावेल पाव्लोविच, ये नहीं चलेगा,” रमाशोव ने क्षीणता से उसे रोका।

“ ऐ, बकवास! कोई फ़ालतू चीज़ है।अभी हम इसे तिपाई पर रखते हैं।चुपचाप खड़े रहो, बदमाश!” वेत्किन ने उंगली से बुत को धमकाया। “सुन रहे हो?” मैं तुम्हें ए-क दूँगा!”

वह एक ओर को हटा, खिड़की की सिल पर रमाशोव की बगल में झुका और रिवाल्वर का घोड़ा ऊपर चढ़ाया।मगर ऐसा करते हुए वह इतने फूहड़पन से हवा में रिवाल्वर घुमाता रहा, कि डर के मारे रमाशोव के माथे पर बल पड़ गए, और बदहवास फ़ायर की प्रतीक्षा करते हुए वह लगातार पलकें झपकाता रहा।

दूरी आठ क़दमों से ज़्यादा नहीं थी।वेत्किन हत्थे को विभिन्न दिशाओं में घुमाते हुए बड़ी देर तक निशाना साधता रहा।आख़िरकार उसने गोली चलाई और बुत के दाएँ गाल पर, एक बड़ा सा, आड़ा-तिरछा, काला छेद बन गया। रमाशोव के कानों में इस शॉट से झनझनाहट होने लगी।

 “देखा, प्यारे?” वेत्किन चिल्लाया। “लो, ये लो, तुम्हारे लिए, याददाश्त के तौर पर रख लो और मेरी मोहब्बत को याद करो। और अब, अपना कोट पहनो और फुर्र से मेस में।रूसी हथियारों को इज़्ज़त बख्शें।”

 “पावेल पाव्लोविच, वाक़ई में, कोई फ़ायदा नहीं है, वाक़ई में, बेहतर है, न जाना,” क्षीणता से रमाशोव ने उसे मनाया।

मगर वह इनकार न कर सका: ऐसा करने के लिए उसे निर्णायक शब्द नहीं मिले, न ही आवाज़ में सख़्ती आ सकी, और अपने चीथड़े जैसे दब्बूपन के लिए मन ही मन अपने आप को कोसते हुए वह निढ़ाल होकर वेत्किन के पीछे पीछे घिसटता गया, जो डगमगाते क़दमों से , आड़े-तिरछे होते हुए, ककड़ियों और बन्द गोभी पर पैर रखते हुए बागों की क्यारियों के सामने से चल रहा था।

यह बड़ी बेतरतीब, शोर गुल वाली, उत्तेजना भरी – वाक़ई में पागलपन की शाम थी।पहले तो मेस में पीते रहे, फिर पीने, फिर मेस में वापस लौटे।पहले तो रमाशोव झिझक रहा था, उसे अपने आप पर, अपने दब्बूपन पर कोफ़्त हो रही थी और असंतोष तथा अटपटेपन की भावना उस पर हावी होने लगी, जो हर तरोताज़ा व्यक्ति को पियक्कड़ों के सामने होती है।हँसी उसे कृत्रिम लग रही थी; ताने – उथले, मरियल; गाने – बेसुरे।मगर गर्म लाल शराब से, जो उसने रेल्वे स्टेशन पर पी थी, उसका सिर अचानक चकराने लगा और उसमें एक शोर गुल वाली, थरथराती मस्ती भर गई, आँखों के सामने करोड़ों थरथराते रेत के कणों का भूरा पर्दा खिंच गया, और सब कुछ आरामदेह, मज़ाहिया हो गया और समझ में आने लगा।

घंटे पर घंटे यूँ बीतते रहे जैसे सेकण्ड्स हों; और सिर्फ इसलिए क्योंकि डाइनिंग हॉल में लैम्प जला दिए गए, रमाशोव को एहसास हुआ कि काफ़ी समय बीत चुका है और रात हो गई है।

 “हज़रात, चलें, लड़कियों के पास चलते हैं,” किसी ने सुझाव दिया। “चलो, सब श्लेफेर्षा के पास चलते हैं।”

 “ श्लेफेर्षा के पास, श्लेफेर्षा के पास, हुर्रे!”

और सभी भागदौड़ करने लगे, कुर्सियों की आवाज़ें करने लगे, हँसने लगे। इस शाम को सब कुछ अपने आप हो रहा था। मेस के दरवाज़े पर दो-दो घोड़ों वाली टमटमें खड़ी हो गईं, मगर किसी को नहीं पता कि वे आई कहाँ से थीं। रमाशोव की चेतना में काफ़ी पहले से ही काला, उनींदा ख़ालीपन आ गया था, जो बीच बीच में विशेष, प्रखर समझ को आने दे रहा था।उसने अचानक स्वयँ को गाड़ी में वेत्किन की बगल में बैठे देखा।सामने वाली सीट पर था कोई तीसरा, मगर रात में रमाशोव किसी भी तरह उसका चेहरा नहीं देख पाया, हाँलाकि वह अपने शरीर को मरियलपन से दाँये-बाँये हिलाते उसकी ओर झुका भी था।ये चेहरा काला नज़र आ रहा था, कभी वह मुट्ठी में समा जाता, कभी तिरछी दिशा में फैल जाता और

काफ़ी परिचित नज़र आता।रमाशोव अचानक हँस पड़ा, और जैसे उसने बगल से अपनी ही हँसी सुनी – भोथरी, काठ जैसी।

 “झूठ बोल रहे हो, वेत्किन।मुझे मालूम है, भाई, हम कहाँ जा रहे हैं,” उसने नशीली शरारत से कहा। “तुम, भाई, मुझे औरतों के पास ले जा रहे हो।मैं, भाई, जानता हूँ।”

कानों को बहरा बनाती, पत्थरों पर खड़खड़ाहट करती एक गाड़ी उनसे आगे निकल गई।बत्तियों की रोशनी में फुर्ती और बदहवासी से लपकते कुमैत घोड़ों की झलक दिखाई दी; कोचवान तैश से चाबुक घुमा रहा था, और चीख़ते तथा सीटियाँ बजाते उसमें बैठे चार ऑफ़िसर्स अपनी अपनी सीट पर हिचकोले खा रहे थे।

एक मिनट के लिए रमाशोव की चेतना असाधारण प्रखरता और स्पष्टता से लौटी।हाँ, वह उस जगह जा रहा है जहाँ कई सारी औरतें जो चाहे उसे अपना जिस्म दे देती हैं, अपना प्यार और अपने प्यार का महान रहस्य दे देती हैं।पैसों के लिए? एक मिनट के लिए? आह, क्या बात एक ही नहीं है! औरतें! औरतें!” – रमाशोव के भीतर कोई जंगली और मीठी, अधीर, बेसब्र आवाज़ चीखी। इसके साथ जुड़ गई एक दूर से आती, मुश्किल से सुनाई देती ध्वनि; जुड़ गया एक ख़याल शूरच्का के बारे में; मगर इस संयोग में कोई भी ओछी, अपमानजनक बात नहीं थी, बल्कि, कुछ कुछ प्रसन्न सा, अपेक्षित सा, उत्तेजित करता सा था, जिससे हौले हौले और खुशी से दिल में गुदगुदी हो रही थी।

तो, वह अब पहुँचेगा उनके पास, अब तक अनजान, अनदेखे, अजीब, रहस्यमय, बंदी जीवों के पास – औरतों के पास! और संजोया हुआ सपना अचानक वास्तविकता बन जाएगा, और वह उनकी ओर देखता रहेगा, उनका हाथ पकड़ेगा, उनकी नाज़ुक हँसी और गाना सुनता रहेगा, और यह होगा एक अबूझ, मगर प्यारा सा दिलासा उस आवेगभरी लालसा में, जिससे वह दुनिया में एक औरत की ओर बढ़ रहा है, उसकी ओर, शूरच्का की ओर! मगर उसके विचारों में कोई भी विशिष्ट  भावनात्मक उद्देश्य नहीं था, - उसे, एक महिला द्वारा ठुकराए गए व्यक्ति को इस नग्न, खुले, माँगे हुए प्यार की ओर बड़ी शिद्दत से कोई चीज़ आकर्षित किए जा रही थी, जैसे ठंड़ी रात में थके-माँदे और कँपकँपाते, परदेस जाते हुए पंछियों को लाईट-हाउस की रोशनी आकर्षित करती है।बस, और कुछ नहीं।

घोड़े दाहिनी ओर मुड़े। पहियों की आवाज़ और ढिबरियों की खड़खड़ाहट एकदम रुक गई।पहाड़ी से नीचे उतरते हुए काफ़िला ताक़त से और हल्के हल्के आगे बढ़ते हुए रास्ते और गड्ढों पर डगमगाया और रमाशोव ने आँखें खोलीं।दूर, कहीं, उसके पैरों के नीचे काफ़ी दूर दूर तक बेतरतीब छोटी छोटी बत्तियाँ टिमटिमा रही थीं। कभी वे पेड़ों और अदृश्य घरों के पीछे कूद जातीं, या वापस छलाँग लगाकर ऊपर को आ जातीं; और ऐसा लगता कि वहाँ, घाटी में, एक बड़ा, बिखरा हुआ झुंड घूम रहा है, कोई अनोखा जुलूस हाथों में लालटेनें लिए जा रहा है। एक पल को कहीं से गर्माहट महसूस हुई; बड़ी, काली टहनी सिरों पर सरसराई और वर्मवुड़ की गंध आई, और उसी क्षण नम ठंडक महसूस हुई, जैसे पुराने गोदाम से आती है।  

 “हम कहाँ जा रहे हैं?” रमाशोव ने फिर पूछा।

 “ज़ावाल्ये!” सामने बैठा हुआ व्यक्ति चिल्लाया, और रमाशोव ने अचरज से सोचा, “आह, ये तो लेफ़्टिनेंट एपिफ़ानव है।हम श्लेफ़ेर्शा के यहाँ जा रहे हैं।”

 “ “तुम दोनों शैतान के पास जाओ!” रमाशोव चीखा, मगर एपिफानव हँस कर बोला, “सुनिए, यूरी अलेक्सेइच, अगर आप चाहें तो हम वहाँ फुसफुसाएँ कि आप ज़िन्दगी में पहली बार? हाँ? ओह, प्यारे! ओह, दुलारे! उन्हें ये अच्छा लगता है।आपका क्या जाता है?”क्या वाक़ई में तुम वहाँ कभी नहीं गए?” वेत्किन ने पूछा। 



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