Abhimanyu Singh

Inspirational

4.3  

Abhimanyu Singh

Inspirational

बलिदान

बलिदान

13 mins
848


कामेरू जब तेरह साल की थी तभी उसकी माँ गुजर गयी। जगरानी बहुत ही नेक और दयालु स्वभाव की महिला थी। उसके मरते ही पूरे घर पर दुखों का कहर टूट पड़ा। पिता सोमनाथ जिसने कभी शराब को हांथ तक नहीं लगाया था, पत्नी के गम में शराब पीना शुरू कर दिया। शराब की लत ने उसे इस तरह अपने आगोश में लिया कि वह रात-दिन शराब के नशे में धुत रहने लगा। 

वह नशे में धुत हो दिन भर गांव के चौपाल पर गिरकर धुल में लोटते रहता। हजारों मक्खियों उसके मुंह में समा कर उसके नशे में शरीक बने रहते। शराब पीकर गाली गलौज करना उसकी रोज की आदत बन चूकी थी। गाँव के बच्चे उसे चिढाते, तो वह पत्थर उठाकर उन्हें मारने दौडता। नशे में उसके लडखडाते पांव उसका साथ नहीं दे पाते ,और वह गिरकर अपना नाक मुंह फोड़ लेता था। कटने छंटने और चोट के काले धब्बे हमेशा उसके चेहरे पर बने रहते थे। 

कभी बासलेट धोती और घुटनों के निचे तक सफेद   रेशम का कुर्ता झाड़कर चलने वाला सोमनाथ बाबू, आज इतना बड़ा बेवड़ा बन गया था कि उसके बदन पर रह गई थी मात्र एक लूंगी और फटी गंजी।तीस बिगहे जमीन के मालिक के पास अब मात्र पांच बिगहा जमीन हीं शेष बचा था। इन दो साल तीन महीने में उसने पच्चीस बिगहा जमीन शराब में डुबो दिया। अब पांच बिगहा जमीन की मुराद हीं क्या रही। अगर इसी तरह पिता रहा तो साल छह महीने में वह भी शराब की बलि चढ जाएगी। 

कामेरू अब समझदार हो चुकी थी, अपने बापू के साथ-साथ उसे अंशुल की भी चिंता हमेशा सताती रहती थी। वह पन्द्रह साल की हो चुकी थी, उसकी सुन्दरता दिन ब दिन निखरती जा रही थी। वह फूटकर इस कदर जवान हुई, मानो सुन्दरता की देवी हो। उसके रूप और यौवन को देखकर गांव के मनचलों की टोली उसके घर के आसपास मंडराने लगे थे।वह तो पड़ोस की शोभा मौसी थी जो हमेशा कामेरू का ख्याल रखती थी। उसके रहते मनचलों की खैर नहीं। 

वह गाली बकते हुए एक डंडा लेकर सरपट उन्हें दौड़

 देती थी। आखिर ख्याल रखती भी क्यों नहीं, जगरानी की सहेली जो थी। पर वह भी कब तक उसकी ख्याल रख पाती, उसे गांव से दो किलोमीटर दूर स्कूल जो जाना पड़ता था। 

उस दिन कामेरू जब स्कूल से लौटी तो वह बहुत खुश थी। उसकी दसवीं कक्षा का रिजल्ट निकला था और वह क्लास में अव्वल आई थी। पर उसके चेहरे पर उभर रहे खुशी को भांपने वाला कोई नहीं था, सिवाय 

पड़ोस वाली शोभा मौसी के। वह उसे सगी बेटी से कम नहीं आंकती थी। वह हमेशा कामेरू की जरूरतों 

को समझती थी। जगरानी के गुजरने के बाद आज पहली बार वह कामेरू के चेहरे पर खुशी देख रही थी। 

" बेटी आज तु बहुत खुश लग रही हो "मौसी ने पुछा तो कामेरू ने अपने परीक्षा में अव्वल होने की बात बताई। फिर बुझे हुए मन से मौसी की तरफ देखकर बोली "आज मेरे पास पैसे होते न मौसी तो मैं तुम्हारा मुंह मीठा जरूर कराती " कहकर वह उदास हो गयी। शोभा कामेरू के सिर पर हांथ फेरती हुई बोली , " आज जगरानी होती तो कितनी खुश होती"कहते हुए वह भावुक हो गयी ,और कामेरू के चेहरे पर झूल रहे केशों को सवारने लगी। 

बाहर से अंशुल की आवाज आई ,वह दीदी-दीदी कहता हुआ घर में घुसा तो कामेरू दौड़ कर उसे अपने गोद में थाम ली। आठ साल का अंशुल गांव के ही स्कूल में तीसरी कक्षा में पढता था। पढने में तेज था क्योंकि कामेरू स्वयं उसे अपने साथ बैठा कर पढाती थी। वह अंशुल को पढा लिखा कर बड़ा आदमी बनाना चाहती थी। पर उसे डर था, जिस तरह उसका बापू खेत बेच कर शराब में झोंक रहा था। ऐसे में अंशुल के लिए बचा ही क्या था। अच्छी पढ़ई

 के लिए कितने पैसे खर्च करने पड़ते हैं कामेरू बखुबी जानती थी। पर उसने ठान लिया था, चाहे कैसे भी हो वह अंशुल को पढाएगी। 

कामेरू अपनी दाखिला ग्यारहवीं कक्षा में करवा चुकी थी। किताब के लिए पैसे नहीं थें तो उसने खूँट में टंगी अपने बापू के कुर्ते की जेब टटोली ।उसमें सौ-सौ रुपये के पांच नोट थें। उसमें से उसने मात्र दो सौ रुपये लिए। वह स्कूल के लिए निकली, रास्ते में दुकान से अपने लिए चार पुस्तकें खरीद लिया। पर उसे डर था कि बापू अपनी जेब में पैसे कम पायेगा तो बवाल खड़ा कर देगा। वह बुझे मन से धीमी चाल में  स्कूल से घर की ओर चल पड़ी। घर पहुचते-पहुचते शाम ढल चुकी थी। पहुंच कर वह बाहर हीं दरवाजे के पास खड़ी हो गयी। भीतर से अंशुल के सिसकने की आवाज साफ सुनाई दे रही थी। बापू गुस्से में बडबडा रहा था और मौसी उसे समझा रही थी। 

वह कह रही थी " सोमनाथ तुमने दो सौ रुपये के लिए फूल से बच्चे को पीटा, क्या पता तुम हीं शराब के नशे में उन दो सौ रुपयों को कहीं गिरा आए हो"। शोभा मौसी के चेहरे पर गुस्सा साफ झलक रही थी। 

और अंशुल के लिए ममता भी। उस वक्त सोमनाथ के मस्तिष्क पर शराब का असर कम था। वह चुप बैठा मौसी की बातें सुन रहा था। 

वह समझाते हुए कह रही थी " सोमनाथ कामेरू अब जवान हो चुकी है और तुझे उसकी शादी की तनिक भी परवाह नहीं है। सारी जमीन तो तुमने सेठ रामलाल के हांथो बेच कर शराब में झोंक दिये। अब बचे हैं जमीन के थोड़े से टुकडे, अगर तूं उसे भी बेच कर पी जाएगा तो कामेरू की शादी कैसे करेगा? क्या जवान बेटी को घर में बैठा कर रखेगा? तुझे क्या पता तुम तो दिन भर शराब के नशे में चौपाल पर पड़े रहते  हो ,यहाँ घर में जवान बेटी अकेली ,अगर मैं न रहूं तो!" कहते हुए शोभा मौसी की आंखें भर गयी और सोमनाथ चुपचाप सुनता रहा। 


मौसी अपनी आंखों पर आंचल का कोना फिराते हुए बोली " फिर अंशुल का क्या होगा ! तुझे तनिक भी परवाह नहीं है अपने बेटे के भविष्य का। कम से कम पांच बिगहे जमीन तो बचने दो, बड़ा होगा तो किसी तरह जोत कोड़ कर उसी से गुजर बसर कर लेगा। "मौसी बडबडाते जा रही थी और सोमनाथ बीना कुछ बोले सब सुनता जा रहा था। 


शोभा मौसी फिर बोली " तुमने शराब में लाखों रुपये गवां दिये और दो सौ रुपये के लिए फूल से बच्चे को पीट दिया " मौसी की बातें सुन कर सोमनाथ की आंखें डबडबा गई , पर वह कुछ बोल नहीं सका। शायद मौसी के शब्दों ने उसके ह्रदय को झकझोर दिया था। 


वही फटी हुई लूंगी और गंजी पहने पागल सा वेश बनाये कुछ छन्न खटिया पर मुंह लटकाये बैठा रहा। फिर स्वतः बुझे हुए स्वर में बोला " कामेरू कहाँ है?"

"तुम्हें कब उसकी परवाह! शाम हो गयी अभी तक जवान बेटी स्कूल से घर नहीं लौटी " मौसी बोली तो वह चुपचाप मुंह लटकाये सुन गया। वह अपनी मजबूरी जानता था, बचे हुए शेष तीन सौ रुपये का भी वह शराब पी चुका था। इस वक्त उसका जेब खाली था और प्यास के मारे उसका हल्क भी सूख रहा था। 

शराब की प्यास लगी थी उसे। वह बिना कुछ बोले उठा और पागलों की तरह मुंह लटकाये बाहर जाने लगा। उसी छन्न मौसी टोकी " मुझे पता है तुम कहाँ जा रहे हो, मैं तुम्हें तेरे बेटे की कसम देती हूं जो तुमने आज से शराब को हांथ भी लगाया। " मौसी जोर से बोली पर उसकी बात अनसुनी कर वह बाहर निकल गया। दरवाजे के पास हीं अपनी चारों नयी किताबों को सीने में समेटी कामेरू खड़ी थी। बाहर निकलते ही सोमनाथ का नजर कामेरू पर पड़ा। उसने बड़े गौर से कामेरू के हांथो में नयी पुस्तकों को देखा। कामेरू अपने बापू को देखकर सहम गई थी, पर वह बिना कुछ बोले आगे बढ़ गया। 


बापू के जाने के बाद कामेरू दौड़ कर घर में घुसी। वह अंशुल के पास जाकर उसे अपने आगोश में भर लिया और फफक कर रो पड़ी। वह रोते-रोते बार-बार अंशुल को चूम रही थी। वहीं खड़ी शोभा मौसी सब देख रही थी, मानो भाई बहन का नहीं, माँ बेटे का प्यार हो।


रात दस बज चुके थे, कामेरू अंशुल को खाना खिलाकर सुलाने के लिए थपकियाँ दे रही थी। वह स्वयं अभी तक खाना नहीं खायी थी। उसके माथे पर चिंता की गहरी लकीरें व्याप्त थें। वह बैठी-बैठी अंशुल के बारे में हीं सोंच रही थी। मौसी की कही बातें बार-बार उसकी ज़ेहन में गुंज रही थी। नित्य की तरह आज भी सोमनाथ घर नहीं आया। कामेरू रोज की भांति आज भी दस बजे तक बापू के आने की राह देखी। जब वह नहीं आया तो जाकर किवाड़ बंद कर दी। सोंची हमेशा की तरह बापू शराब के नशे में चौपाल पर हीं सो गया होगा। उस रात, रात भर कामेरू के मन में उथल-पुथल मचता रहा। बार-बार शोभा मौसी के कहे शब्द उसके कान में गुंज रहे थें। एक-एक शब्द उसके हृदय पर हथौड़े की तरह चोट कर रहे थें। 


वह अपने अंतर्मन में सोंची, उसकी शादी के बाद अंशुल का क्या होगा ? उसका देखभाल कौन करेगा?कौन उसे खाना बनाकर खिलाएगा? कौन स्कूल भेजेगा और कौन थपकियाँ देकर सुलायेगा ? कौन उसे सीने से लगा कर माँ की तरह प्यार देगा? क्या बेवडा बापू उसका ख्याल रख पायेगा? या शराब के नशे में पिट-पिट कर !!!!!नहीं-नहीं मैं शादी नहीं करूंगी, उम्रभर कुंवारी रहूंगी, अपने अंशुल के लिए, अपने भाई के लिए। 


उस रात वह रात भर सो नहीं पायी, अंशुल को अपनी बाहों मे भरे रात भर वह ताकती रही। कब अंधेरा छंटाऔर सूरज का प्रकाश आंगन में फैल गया उसे पता नहीं चला। दरवाजे पर दस्तक हुई आवाज शोभा मौसी की थी वह कह रही थी "बेटी कामेरू अभी तक सोई है, उठ देख कितना दिन चढ गया " आवाज सुनते ही कामेरू हडबडा कर उठी और किवाड़ खोली । सामने मौसी खड़ी थी "आज तूं बहुत सोई " मौसी बोली तो वह चुपचाप अंगडाई लेकर मुस्कुरा दी। मौसी को कहां पता था कि कामेरू रात भर सो नहीं पायी है। 


उस दिन कामेरू बहुत बुझी हुई सी थी। अंशुल को नाश्ता करा कर उसे स्कूल तक छोड़ आयी। दस बज रहे थे, वह अपनी उन चारों नयी किताबों को उठायी।दरवाजे पर ताला जड़ी, चाबी मौसी को सौंपते हुए अगर बापू आएं तो उसे खाना खिलाने की बात कह भारी मन से स्कूल के लिए चल दी। आज उसके कदम सहमे डरे से बढ रहे थे। वह जैसे ही चौपाल के पास से गूजरी, चारों तरफ नजर दौडाई। पर बापू कहीं नजर नहीं आया। वह दूर तक नजरें दौडाई, पर कहीं उसका अता पता नहीं था। हां मनचलों की सिटी की आवाज जरूर उसके कानों तक पहुंचीं। वह चुपचाप आगे बढ़ गई। रास्ते में एक छोटी नदी थी, उस पर एक संकरा पुल बना हुआ था। उस पर से गुजरते हुए साहसा उसके कदम रुक गये। वह पुल के किनारे का स्तम्भ पकड़ कर नदी में झांकी। नदी के कल-कल की आवाज उसके कानों तक पहुंच रही थी। हवा का ठंडा झोंका बार-बार उसके तन को छूकर गुजर रहा था। वह एकदम सिहर उठी। एक बार बड़े भावुक होकर उन पुस्तकों को देखी, जो अभी तक उसके सीने से चिपके हुए थे। उसकी आंखें डबडबा गई और आंसू के कुछ बूंदें उन पुस्तकों पर टपक गये। अचानक उसके आंखों में नफरत सी पैदा हुई। वह एक झटके से अपना मुंह उन किताबों की तरफ से फेर ली। उसकी हांथ हवा में लहराई और छप सी आवाज हुई। वह बिलख कर रोती हुई घर की ओर दौड़ लगा दी। किताबें नदी की तेज धारा में बहती हुई जितनी आगे बढती जा रही थी। कामेरू उससे भी तेज गति से अपने घर की ओर भागी जा रही थी। आज उसने अपनी शिक्षा का बलिदान दिया था। 


वह जैसे ही घर पहुंची उसके हांथो में किताब न देखकर मौसी पुछ बैठी "कामेरू तुम वापस आ गयी और तुम्हारी किताबें?!!"

"फेंक दी मौसी " कहकर वह सुबक-सुबक कर रोने लगी। "कहां फेक दी पगली " मौसी पुछी तो वह रोते हुए बोली "नदी में "

"तू पागल तो नहीं हो गयी " मौसी उसके बालों को सहला कर बोली "अच्छा चुप हो जा, मैं तुम्हारे लिए दुसरी नयी किताबें ला दूंगी"।

वह अपनी आंसू पोंछ कर दृढता से बोली "मौसी अब मुझे नहीं पढना है, अब सिर्फ अंशुल पढेगा। मैंने उसके लिए अपनी पढ़ाई का परित्याग किया है। अब मेरी एक ही लक्ष्य है, अंशुल को पढा लिखा कर बड़ा आदमी बनाना। इसके लिए मैं बापू से भी संघर्ष करूंगी। और उसे भी सही रास्ते पर लाउंगी" ।

उसके दृढ़ संकल्प को देखकर मौसी आगे कुछ और नहीं कह सकी। वह वहीं खटिया पर बैठ कर सकुन की सांस ली। 


कामेरू दिन भर अपने बापू के आने का इंतजार करती रही पर वह नहीं आया। हां चार बजे अंशुल जरूर स्कूल से घर आ गया। कामेरू रोज की भांति आज भी अंशुल को गोद में उठा कर चूम ली। बड़े प्यार से उसका बाल सहलाया और बिना पलकें झपकाये निहारती रही। 


अब शाम ढलने लगी थी, अंधेरा भी गहराने लगा था। पर सोमनाथ अभी तक घर नहीं आया था। वैसे तो पहले भी कई बार वह दो दो दिन तक घर नहीं आया था। पर आज कामेरू की चिंता बढ़ी हुई थी क्योंकि सुबह भी उसने चौपाल पर बापू को नहीं देखा था। 

 और इंतजार किए बगैर वह चौपाल की तरफ चली गई ।वहां एक बड़ा सा बरगद का पेड़ था जिसके चारों तरफ चबूतरा बना हुआ था। अक्सर सोमनाथ उसी पर पड़ा मिल जाता था। पर आज वह नहीं था इसलिए कामेरू की चिंता और बढ़ गई थी। वहीं बैठे गांव के एक बुजुर्ग कपिल चाचा से वह अपने बापू के बारे मे पुछी, तो वे बोले वह तो वहां दो दिन से दिखाई नहीं दिया है। अब तो उसकी चिंता और भी बढ़ गई थी। अंधेरा भी गहराने लगा था, तभी उसकी नजर बरगद के कढोरे में अटकी कागज पर पड़ी ।वह उसे निकाल कर खोली,उसमें कुछ लिखा था ,वह नजरें गड़ा कर पढने लगी।उसमें लिखा था "बेटी कामेरू, आज मुझे अपनी करतूतों का एहसास हुआ। मैं तुम्हारा बाप नहीं दुश्मन हूं। तुम दोनों की परवाह किए बगैर मैंने सारी सम्पत्ति में आग लगा दी। अगर मैं और रहा तो बचा खुचा भी बेच कर पी जाउंगा इसलिए मैं अब तुम दोनों से बहुत दूर जा रहा हूँ। मुझे ढूँढने की कोशिश मत करना और अंशुल का ख्याल बेटे की तरह रखना, अब तुम्हारे सिवा उसका कोई नहीं है। तुम्हारा बापू " पढ़ने के बाद उसके आंखों से आंसू के धार बहने लगे ,वह उस कागज के पन्ने को मुठी में कसे रोती हुई घर आ गयी। 


अब तो उसके लिए सब कुछ अंशुल ही था।उस रात कामेरू सो नहीं पायी, रात भर अंशुल को निहारती रही। अब उसे सब कुछ बदलना था, वह रात भर जाग कर अपने संकल्पोंकी कड़ी को और मजबूत बना रही थी। सुबह से उसके जीवन में कई बदलाव होने वाले थे। 


वह अंशुल की पढ़ाई में जी जान झोंक रही थी। धीरे-धीरे समय बीतने के साथ-साथ बापू की यादें भी धूमिल होती गई। अंशुल भी बड़ा होता गया और हमेशा अव्वल आता हुआ शिक्षा के पौदान पर आगे बढता गया।कामेरू भी आगे की उच्च शिक्षा में होने वाले खर्च को लेकर काफी गंभीर थी। वह भी किसी छोटी मोटी नौकरी की तलाश में थी। उसने कुछ दिनों पहले आंगनवाड़ी के लिए फार्म भरा था, संयोग से उसमें उसकी नियुक्ति पक्की हो गयी थी। अब अंशुल के पढाई खर्च को लेकर तनाव कुछ कम हो गया था। 

बीच-बीच में मौसी उसकी शादी के लिए सुझाती रही, पर कामेरू ने साफ-साफ मना कर दिया और आजीवन शादी के बंधन में न बंधने की शपथ लेने वाली बात कही। यह भी कहा कि अब वह अंशुल की बहन नहीं माँ है । शोभा मौसी भी उसके आगे नत थी। भाई के लिए बहन का इतना बड़ा बलिदान देख कर उसकी आंखें भर गयी ।वह इससे आगे कुछ कहने की हिम्मत नहीं जुटा पायी। 


अंशुल अपनी शिक्षा की रफ्तार में तेज भागता गया। स्नातक की उपाधि प्राप्त कर वह प्रतियोगिता की तैयारी में जुट गया। अंशुल अब इतना उंचा हो गया था कि कामेरू उसे अपने सीने से नहीं लगा पाती थी। पर अंशुल भी अपना संस्कार नहीं भुला था। वह नित्य उठकर कामेरू का चरण स्पर्श करता था। 


प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी के लिए कामेरू जब लगातार पांच साल के लिए उसे दिल्ली भेज रही थी, उस वक्त अपनी कलेजे पर पत्थर रख लिया था। जिसे अपनी आंखों से पल भर ओझल नहीं होने देती थी, वह पांच साल के लिए दूर जा रहा था। उसने आंखों से आंसू पी कर उसे विदा किया। 


पांच साल उसके इंतजार में पचास साल की भांति गुजरा। कामेरू हर महीने अपनी कमाई की सारी पूंजी भेजती गयी और अंशुल मन लगाकर पढता गया। इन पांच वर्षों के दौरान कामेरू की आंखों पर चश्मे ने भी अपनी जगह बना ली थी। 


उस दिन सुबह कामेरू घर के दरवाजे पर बैठी अंशुल को ही याद कर रही थी। साथ में शोभा मौसी भी बैठी थी उसकी बालों के रंग अब सफेद हो चुके थे। दोनों आपस मे बातें कर हीं रहे थें कि एक सफेद बड़ी कार  पास आकर रुकी। कामेरू बहुत गौर से उसी तरफ देखने लगी। ड्राइवर ने उतर कर पीछे का गेट खोला। गाड़ी के भीतर से जो शख्स निकला उसे देखकर कामेरू को अपनी आंखों पर यकीन ही नहीं हो रहा था कि सचमुच वह अंशुल ही है। वह उतरते ही कामेरू और मौसी दोनों का चरण स्पर्श किया ।आज कामेरू उसे अपने सीने से लगाये बगैर नहीं रह सकी। आज कामेरू के कदमों में एक आई पी एस अधिकारी खड़ा था। कामेरू का बलिदान आज सार्थकता के चरम पर था। धन्य हैं ऐसी बहने। 


 

    

  



Rate this content
Log in

More hindi story from Abhimanyu Singh

Similar hindi story from Inspirational