Akshita Chheda

Abstract

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भगवान पारसनाथ की आचार्य परम्परा

भगवान पारसनाथ की आचार्य परम्परा

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यह एक सामान्य नियम है कि किन्हीं भी तीर्थङ्कर के निर्वाण के पश्चात् जब एक दूसरे तीर्थङ्कर द्वारा अपने धर्म-तीर्थ की स्थापना नहीं कर दी जाती तब तक पूर्ववर्ती तीर्थङ्कूर का ही धर्म -शासन चलता रहता है और उनकी आचार्य परम्परा भी उस समय तक चलती रहती है।

इस दृष्टि से मध्यवर्ती तीर्थङ्करों के शासन में असंख्य आचार्य हुए हैं, पर उन आचार्यों के सम्बन्ध में प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध नहीं होने के कारण उनका परिचय नहीं दिया जा सका है।

तेईसवें तीर्थङ्कर भगवान पार्श्वनाथ का वर्तमान जैन धर्म के इतिहास से बड़ा निकट का सम्बन्ध है और भगवान महावीर के शासन से उनका अन्तरकाल भी 250 वर्ष का ही माना गया है तथा कल्पसूत्र के अनुसार भगवान पार्श्वनाथ की जो दो प्रकार की अन्तकड़ भूमि बतलाई गई है, उसमें उनकी युगान्तकृत भूमि में चौथे पुरुषयुग (आचार्य) तक मोक्ष-गमन माना गया है। अतः भगवान पार्श्वनाथ की आचार्य परम्परा का उल्लेखयहाँ किया जाना ऐतिहासिक दृष्टि से आवश्यक है।

उपकेशगच्छ-चरितावली में भगवान पार्श्वनाथ की आचार्य परम्परा का जो परिचय दिया गया है, वह संक्षेप में इस प्रकार है :-

1. आर्य शुभदत्त

भगवान पार्श्वनाथ के निर्वाण के पश्चात् उनके प्रथम पट्टधर गणधर शुभदत्त हुए। उन्होंने चौबीस वर्ष तक आचार्यपद पर रहते हुए चतुर्विध संघ का बड़ी कुशलता से नेतृत्व किया और धर्म का उपदेश करते रहे।

भगवान पार्श्वनाथ के निर्वाण के चौबीस वर्ष पश्चात् आर्य हरिदत्त को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर आर्य शुभदत्त मोक्ष पधारे।

2. आर्य हरिदत्त

भगवान पार्श्वनाथ के द्वितीय पट्टधर आर्य हरिदत्त हुए। पार्श्व निर्वाण संवत् 24 से 94 तक आप आचार्यपद पर रहे।

श्रमण बनने से पूर्व हरिदत्त 500 चोरों के नायक थे। गणधर शुभदत्त के शिष्य श्री वरदत्त मुनि को एक बार जंगल में ही अपने 500 शिष्यों के साथ रुकना पड़ा। उस समय चोर-नायक हरिदत्त अपने 500 साथी चोरों के साथ मुनियों के पास इस आशा से गया कि उनके पास जो भी धन-सम्पत्ति हो वह लूट ली जाए।

पर वरदत्त मुनि के पास पहुँचने पर 500 चोरों और चोरों के नायक को धन के स्थान पर उपदेश मिला।

मुनि वरदत्त के उपदेश से हरिदत्त अपने 500 साथियों सहित दीक्षित हो गए और इस तरह जो चोरों के नायक थे, वे ही हरिदत्त मुनिनायक और धर्मनायक बन गए।

गुरु सेवा में रहकर मुनि हरिदत्त ने बड़ी लगन के साथ ज्ञान- सम्पादन किया और अपनी कुशाग्र बुद्धि के कारण एकादशांगी के पारगामी विद्वान् हो गए। इनकी योग्यता से प्रभावित हो आचार्य शुभदत्त ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।

आचार्य हरिदत्त अपने समय के बड़े प्रभावशाली आचार्य हुए हैं। आपने "वैदिक हिंसा, हिंसा न भवति" इस मत के कट्टर समर्थक और प्रबल प्रचारक, उद्भट विद्वान्, लौहित्याचार्य को शास्त्रार्थ द्वारा राज्यसभा में पराजित कर 'अहिंसा परमो धर्म:' की उस समय के जनमानस पर धाक जमा दी।

सत्य के पुजारी लौहित्याचार्य अपने एक हजार शिष्यों सहित आचार्य हरिदत्तसूरि के पास दीक्षित हो गए और उनकी आज्ञा लेकर दक्षिण में अहिंसा-धर्म का प्रचार करने के लिए निकल पड़े। आपने प्रतिज्ञा की कि जिस तरह अज्ञानवश उन्होंने हिंसा-धर्म का प्रचार किया था, उससे भी शतगुणित वेग से वे अहिंसाधर्म का प्रचार करेंगे। अपने संकल्प के अनुसार उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा को निरन्तर धर्मप्रचार द्वारा कार्य रूप में परिणत कर बताया।

कहा जाता है कि लौहित्याचार्य ने दक्षिण में लंका तक जैन धर्म का प्रचार किया। बौद्ध भिक्षु धेनुसेन ने ईसा की पाँचवीं शताब्दी में लंका के इतिहास से सम्बन्ध रखने वाला 'महावंश काव्य ' नामक पाली भाषा का एक काव्य लिखा था। उस काव्य में ईस्वी सन् पूर्व 543 से 301 वर्ष तक की लंका की स्थिति का वर्णन करते हुए धेनुसेन ने लिखा है, कि सिंहलद्वीप के राजा 'पनुगानय' ने लगभग ई. सन् पूर्व 437 में अपनी राजधानी अनुराधापुर में स्थापित की और वहाँ निग्रंथ मुनियों के लिए 'गिरी' नामक एक स्थान खुला छोड़ रखा।

इससे सिद्ध होता है कि सुदूर दक्षिण में उस समय जैन धर्म का प्रचार और प्रसार हो चुका था। इस प्रकार आचार्य हरिदत्त के नेतृत्व में उस समय जैन धर्म का दूर-दूर तक प्रभाव फैल गया था।

आचार्य हरिदत्त ने 70 वर्ष तक धर्म का प्रचार कर समुद्रसूरि को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया और अन्त में पाश्श्व निर्वाण संवत् 94 में मुक्ति के अधिकारी हुए।

3. आर्य समुद्रसूरि

भगवान पार्श्वनाथ के तीसरे पट्टधर आर्य समुद्रसूरि हुए। पाश्श्व सं. 94 से 166 तक ये भी जिनशासन की सेवा करते रहे। इन्होंने विविध देशों में घूम-घूमकर धर्म का प्रचार किया। आप चतुर्दश पूर्वधारी और यज्ञवाद से होने वाली हिंसा के प्रबल विरोधी थे। आपके आज्ञानुवर्ती विदेशी नामक एक मुनि, जो बड़े प्रतिभाशाली और प्रकाण्ड विद्वान् थे, एक बार विहार करते हुए उज्जयिनी पधारे। कहा जाता है कि आपके त्याग-विरागपूर्ण उपदेश से प्रभावित हो उज्जयिनी के राजा जयसेन और रानी अनंग सुन्दरी ने अपने प्रिय पुत्र केशी के साथ जैन श्रमण-दीक्षा अंगीकार की।

उपकेशगच्छ-पट्टावली के अनुसार बालर्षि केशी

जातिस्मरण के साथ-साथ चतुर्दश पूर्व तक श्रुतज्ञान के धारक थे।

इन्हीं केशी श्रमण ने आचार्य समुद्रसूरि के समय में यज्ञवाद के प्रचारक मुकुंद नामक आचार्य को शास्त्रार्थ में पराजित किया था।

अन्त में आचार्य समुद्रसूरि ने अपना अन्तिम समय निकट देख केशी को आचार्यपद पर नियुक्त किया और पार्श्व सं. 166 में सकल कर्मों का क्षय कर निर्वाण-पद प्राप्त किया।

4. आर्य केशी श्रमण

भगवान पार्श्वनाथ के चौथे पट्टधर आचार्य केशी श्रमण हुए, जो बड़े ही प्रतिभाशाली, बालब्रह्मचारी, चौदह पूर्वधारी और मति, श्रुति एवं अवधिज्ञान के धारक थे।

कहा जाता है कि आपने बड़ी योग्यता के साथ श्रमणसंघ के संगठन को सुदृढ़ बनाकर विद्वान् श्रमणों के नेतृत्व में पाँच-पाँच सौ (500-500 ) साधुओं की 9 टुकड़ियों को पांचाल, सिन्धु-सौवीर, अंग -बंग, कलिंग, तेलंग, महाराष्ट्र, काशी, कोशल, सूरसेन, अवन्ती, कोंकण आदि प्रान्तों में भेजकर और स्वयं ने

एक हजार साधुओं के साथ मगध प्रदेश में रहकर सारे भारत में जैन धर्म का प्रचार और प्रसार किया। पार्श्व संवत् 166 से 250 तक आपका आचार्यकाल बताया गया है।

आपने ही अपने अमोघ उपदेश से श्वेताम्बिका के महाराज ' प्रदेशी' को घोर नास्तिक से परम

आस्तिक बनाया। राजा प्रदेशी ने आपके पास श्रावक -धर्म स्वीकार किया और अपने राज्य की आय का चतुर्थ भाग दान में देता हुआ वह सांसारिक भोगों से विरक्त हो छट्ट-छट्ट भक्त की तपस्यापूर्वक आत्मकल्याण में जुट गया।

अपने पति को राज्य-व्यवस्था के कार्यों से उदासीन देखकर रानी सूरिकान्ता ने स्वार्थवश अपने पुत्र सूरिकान्त को राजा बनाने की इच्छा से महाराज प्रदेशी को उनके तेरहवें छट्ट-भक्त के पारणे के समय विषाक्त भोजन खिला दिया। प्रदेशी ने भी विष का प्रभाव होते ही सारी स्थिति समझ ली, किन्तु रानी के प्रति किसी भी प्रकार की दुर्भावना न रखते हुए, समाधि पूर्वक प्राणोत्सर्ग किया और सौधर्मकल्प में

ऋद्धिमान् सूर्याभ देव बना।

आचार्य केशिकुमार पार्श्व निर्वाण संवत् 166 से 250 तक, अर्थात् चौरासी (84 ) वर्ष तक आचार्य पद पर रहे और अन्त में स्वयंप्रभ सूरि को अपना उत्तराधिकारी बना कर मुक्त हुए।

इस प्रकार भगवान पार्श्वनाथ के चार पट्टधर भगवान पार्श्वनाथ के निर्वाण बाद के 250 वर्षों के समय में मुक्त हुए।

अनेक विद्वान् आचार्य केशिकुमार और कुमार केशिश्रमण को, जिन्होंने गौतम गणधर के साथ हुए संवाद से प्रभावित हो सावत्थी नगरी में पंच महाव्रत रूप श्रमणधर्म स्वीकार किया, एक ही मानते हैं, पर उनकी यह मान्यता समीचीन विवेचन के पश्चात् संगत एवं शास्त्र सम्मत प्रतीत नहीं होती।

शास्त्र में केशी नाम के दो मुनियों का परिचय उपलब्ध होता है। एक तो प्रदेशी राजा को प्रतिबोध देने वाले केशिश्रमण का और दूसरे गौतम के साथ संवाद के पश्चात् चातुर्याम धर्म से पंचमहाव्रत रूप श्रमणधर्म स्वीकार करने वाले केशिकुमार श्रमण का। इन दोनों में से भगवान पार्श्वनाथ के चौथे पट्टधर कौन से केशिश्रमण थे, यह यहाँ एक विचारणीय प्रश्न है।

आचार्य राजेन्द्रसूरि ने अपने अभिधान राजेन्द्र-कोष में दो स्थानों पर केशिश्रमण का परिचय दिया है।

उन्होंने इस कोष के भाग प्रथम, पृष्ठ 201 पर ' अजणिय कण्णिया' शब्द की व्युत्पत्ति बताते हुए केशिश्रमण के लिए निग्रंथी पुत्र, कुमारावस्था में प्रव्रजित एवं युगप्रवर्तक आचार्य होने का उल्लेख किया है और आगे चल कर इसी कोष के भाग 3, पृष्ठ 669 पर 'केशी' शब्द की व्युत्पत्ति में उपर्युक्त तथ्यों की पुष्टि करते हुए लिखा है-

"केससंस्पृष्टशुक्रपुद्गलसम्पर्काज्जाते निगर्ग्न्थी पुत्रे, ( स च यथा जातस्तथा ' अरजणिकन्निया' शब्दे

प्रथम भागे 101 पृष्ठे दर्शितः) स च कुमार एव प्रव्रजित: पार्श्वापत्यीयश्चतुज्ज्ञानी अनगारगुणसम्पन्न:

सूर्याभदेव-जीवं पूर्वभवे प्रदेशी नामानं राजानं प्रबोधयदिति। रा.नि.। ध.र. | (तद्वर्णकविशिष्टं ' पएसि' शब्दे वक्ष्यते गोयमकेसिज्ज शब्दे गौतमेन सहास्य संवादो वक्ष्यते ) "

इस प्रकार राजेन्द्रसूरि ने केशिश्रमण आचार्य को ही प्रदेशी प्रतिबोधक , चार ज्ञान का धारक और गौतम गणधर के साथ संवाद करने वाला केशी बताकर एक ही केशिश्रमण के होने की मान्यता प्रकट की है।

उपकेशगच्छ चरित्र से केशिकुमार श्रमण को उज्जयिनी के महाराज जयसेन व रानी अनंग सुन्दरी का पुत्र, आचार्य समुद्रसूरि का शिष्य, पार्श्वनाथ की आचार्य परम्परा व चतुर्थ पट्टधर, प्रदेशी राजा का प्रतिबोधक तथा गौतम गणधर के साथ संवाद करने वाला बताया गया है।

एक ओर उपकेशगच्छ पट्टावली में निग्गरथी पुत्र केशी का कहीं कोई उल्लेख नहीं किया गया है तो दूसरी ओर अभिधान राजेन्द्र-कोष में उज्जयिनी के राजा जयसेन के पुत्र केशी का कोई जिक्र नहीं किया गया है।

पर दोनों ग्रन्थों में केशिश्रमण को भगवान पाश्श्वनाथ का चतुर्थ पट्टधर आचार्य, प्रदेशी का प्रतिबोधक तथा गौतम गणधर के साथ संवाद करने वाला मानकर एक ही केशिश्रमण के होने की मान्यता का प्रतिपादन किया है।

जैन परम्परा नो इतिहास' नामक गुजराती पुस्तक के लेखक मुनि दर्शन विजय आदि ने भी समान नाम वाले दोनों केशिश्रमणों को अलग न मानकर एक ही माना है।

इसके विपरीत 'पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास' नामक पुस्तक के दोनों केशि श्रमणों का भिन्न-भिन्न परिचय नहीं देते हुए भी आचार्य केशी और केशिकुमार श्रमण को अलग-अलग मानकर दो केशिश्रमणों का होना स्वीकार किया गया है।

इस सम्बन्ध में वास्तविक स्थिति यह है कि प्रदेशी राजा को प्रतिबोध देने वाले आचार्य केशी और गौतम गणधर के साथ संवाद के पश्चात् पंच महाव्रत-धर्म स्वीकार करने वाले केशिकुमार श्रमण एक न होकर अलग-अलग समय में केशि श्रमण हुए हैं।

आचार्य केशी, जो कि भगवान पार्श्वनाथ के चौथे पट्टधर और श्वेताम्बिका के महाराज प्रदेशी के

प्रतिबोधक माने गए हैं, उनका काल उपकेश- गच्छ पट्टावली के अनुसार पाश्श्व- निर्वाण संवत् 166 से 250 तक का है। यह काल भगवान महावीर की छद्मस्थावस्था तक का ही हो सकता है।

इसके विपरीत श्रावस्ती नगरी में दूसरे केशिकुमार श्रमण और गौतम गणधर का सम्मिलन भगवान महावीर के केवलीचर्या के पन्द्रह वर्ष बीत जाने के पश्चात् होता है।

इस प्रकार प्रथम केशिश्रमण का काल भगवान महावीर के छद्मस्थकाल तक का और दूसरे केशिकुमार श्रमण का महावीर की केवलीचर्या के पन्द्रहवें वर्ष के पश्चात् तक ठहरता है।

इसके अतिरिक्त रायप्रसेणी सूत्र में प्रदेशी प्रतिबोधक केशिश्रमण को चार ज्ञान का धारक बताया गया है' तथा जिन केशिकुमार श्रमण का गौतम गणधर के साथ श्रावस्ती में संवाद हुआ, उन केशिकुमार श्रमण को उत्तराध्ययन सूत्र में तीन ज्ञान का धारक बताया गया है।

ऐसी दशा में प्रदेशी प्रतिबोधक चार ज्ञानधारक केशिश्रमण, जो महावीर के छद्मस्थकाल में हो सकते हैं, उनका महावीर के केवलीचर्या के पन्द्रह वर्ष व्यतीत हो जाने के पश्चात् तीन ज्ञान धारक के रूप में गौतम

के साथ मिलना किसी भी तरह युक्ति संगत और सम्भव प्रतीत नहीं होता।

रायप्रसेणी और उत्तराध्ययन सूत्र में दिए गए दोनों केशिश्रमणों के परिचय के समीचीन मनन के अभाव में और समान नाम वाले इन दोनों श्रमणों के समय का सम्यक् रूपेण विवेचनात्मक पर्यवेक्षण न करने के विद्वानों द्वारा दोनों को ही केशिश्रमण मान लिया गया है।

कारण ही कुछ उपर्युक्त तथ्यों से यह निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है कि प्रदेशी प्रतिबोधक चार ज्ञानधारी केशिश्रमण आचार्य समुद्रसूरि के शिष्य एवं पार्श्व परम्परा के मोक्षमार्गी चतुर्थ आचार्य थे, न कि गौतम गणधर के साथ संवाद करने वाले तीन ज्ञानधारक केशिकुमार श्रमण। दोनों एक न होकर भिन्न-भिन्न हैं।

एक का निर्वाण पार्श्वनाथ के शासन में हुआ जबकि दूसरे का महावीर के शासन में।


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