बेनामी रिस्ते
बेनामी रिस्ते
"आंखें मीचे, मैं अपने मेज़ पर बैठा हूँ। खिड़की से बाहर देख अभी मालूम न पड़ता कि सवेरा हुआ भी है या नहीं! मगर सायद अग़र घड़ी या mobile देखता यो समय का अंदाज़ा जरूर होता।"
"मग़र कोई फ़ायदा भी तो नहीं।"रमेश (Ramesh) कुछ यूँ सोचता एक गहरी साँस लिया और फिर अपनी ख़्वाबों के समुंदर में कुछ पुराने लम्हों को तलाशने लगा। उसकी आँखें अब भी खिड़की से बाहर ही न जाने क्या देख रहीं या सायद कुछ ढूंढ रहीं! कौन जानें।
रमेश अपनी एक पुरानी आपबीती को ख़्वाबों के समुंदर से निकालने लगा। यह उसकी कृत, उसे बेइंतहा दर्द जरूर देती... मगर फिर भी, उन लम्हों को वह फिर से उसी पल में जा कर जीने लगा।
अब उनकी आँखें बंद थीं औऱ अब भी वह खिड़की की ओर ही चेहरा किये बैठा था। शारीरिक रूप से वह अब भी उस ही कमरे में था मगर... मानशिक रूप से वह वक़्त के अतित में जा चुका था। बहुत.... पीछे।
अब वह अपने बाल्यकाल में हैं(मानशिक रूप से- अभी तो बताया ना... खैर आगे बतलाता हूँ) एक घटना जो उससे झंझोल देती थीं।
रमेश party cloth पहने एक सादी वाले पंडाल में खड़ा है। सामने दूल्हा-दुल्हन के लिए बना पंडाल है तथा दूल्हा उसपर बैठा है। सायद तस्वीरें ही खिंचवा रहा होगा। तभी डिंपल दी आ जातीं है दुल्हन के कपड़ों मे। डिंपल दी स्टेज वाले पंडाल पर रखें सोफा पर कुछ यूं बैठतीं हैं कि उनकी आंखें औऱ मेरी मेल खातीं है।
संन्नन्नंन्नंन्नंन.... अचानक रमेश और दी के बीच के रिश्ते दोनों को याद आने लगते है।" कैसे चंद सालों पहले तक रमेश डिंपल दी को देखते ही दौड़ा चला आता था। और डिंपल दी भी कम नहीं थीं- कॉलेज से आते ही रमेश के साथ, औऱ लगभग दोनों साथ ही रहते थे। जब रमेश कुछ न जानता था, दुनियां के बारे में डिंपल दी उसे हर एक बात सुनाती, जो सायद उनके घनिष्ठ मित्रों को भी नहीं पता होतिहोगी। कॉलेज मे आज क्या हुआ से लेकर कौन उन्हें प्रपोज़ कर रहा था सब। क्लास के एक-एक subject से लेकर चाचा की वो डरावनी आंखे जो डिंपल को स्तब्ध कर देतें थे सब।
जन्मदिनों के वक़्त छोटा रमेश ही वो पहला होता जिसकी आवाज़ से डिंपल उठा करती और तैयार होकर जिसके साथ मंदिर जाती। और डिंपल की पहली आवाज़ सुन कर रमेश अपने जन्म दिन पर उठता और उन्हीं की तरह, उनके साथ मंदिर जाता।"
दोनों सायद एक ही चीज़ सोच रहे थे और आगे भी मसलन एक ही चीज़ सोच रहे थे कि, ढूंढ रहे थे कि-"वह कौन सा समय था जब सब बदलने लगा। अचानक! जिसके बिना डिंपल को चैन नहीं आता था अब महीनों उसे देखा होगया हो औऱ सायद सालों बातें किये।" और वहीं हाल रमेश का भी था कि ढूंढे वह ढूंढ नहीं पा रहा था वह समय, जैसे अभी वह अतीत में जी रहा है!
अंत में जब दोनों ने एक दूसरे के आंखों में आँसू देखें तो डिंपल ने ही रमेश को अपनी हाथों से उसके पास आने का इशारा किया और गले से लगा ली। उसने रमेश के कानों में कहा-'मैं! तुम्हें याद हूँ ?'
औऱ रमेश ने भी उसी सरलता से जवाब दिया-'हाँ! आप भी, और आपकी सारी बातें भी।'
अचानक stage पर लोगों की भीड़ बढ़ी और पलक झपकते राकेश स्टेज के नीचे था। कितना कुछ कहना था डिंपल को अभी, और कितना कुछ रमेश को मगर दोनों कुछ कह-सुन भी नहीं पाए।
खिड़की की ओर चेहरा किये-किये रमेश के बंद आँखों से आँसू बहने लगें। अब शायद खिड़की से बाहर देख लगभग हर कोई बता सकता था कि सवेरा होने को हैं।
रमेश ने अपनी आँखों को खोला, यह सोचते हुए की शायद आज भी डिंपल दी उन सवालों का जवाब ढूंढ रहीं होंगी जिनका जवाब मुझे भी नहीं मिला।
सवेरे के आड़ में कितने ही किस्से गुम हो जातें है, कितने ही रिस्ते गुम हो जातें है। जैसे रमेश और डिंपल का रिश्ता जिनके बारे में किसी को पता भी ना होगा और न ही कोई इसका कुछ नाम रख पाएगा।