'बात सिर्फ दस रुपए की थी'
'बात सिर्फ दस रुपए की थी'
"ज़िंदगी में उतार-चढ़ाव सभी की ज़िंदगी में आते हैं। यह कहानी मेरी ज़िंदगी उस दौर का एक हिस्सा है जब मेरी ज़िंदगी में काफी उथल-पुथल मची हुई थी। एक समय ऐसा भी मेरी ज़िंदगी में आया जब मैं घर-परिवार छोड़ कर भाग गया था। मैं एक महीना घर से दूर रहा था और उस दौरान ज़िंदगी ने बहुत कुछ सिखाया। उसी दौरान घटित हुई यह घटना मेरे अन्तर्मन में आज भी ताज़ा है और मुझे आज भी प्रेरित करती है।
जेब में कुछ रुपये, कुछ कपड़े लेकर मैं घर छोडकर निकल पड़ा और धीरे धीरे अपने शहर से दूर फिर अपने राज्य पंजाब से दूर चंडीगढ़ आ रुका। पीछे क्या हो रहा था मुझे परवाह न थी, मैं बस अपना मन मारकर समय गुज़ार रहा था। यहाँ आकार काम की तलाश और हताश ज़िंदगी को रास्ते लाने के लिए एक नए सिरे से शुरुआत करनी चाही। काम की तलाश में यहाँ से जयपुर फिर दिल्ली आ पहुंचा। काम कम धोखे ज्यादा मिले। जेब में पड़े पैसे भी कम हो रहे थे। गुरुग्राम में याद आया मेरा दोस्त रहता है और क्यों ना उससे यहाँ रहने में मदद ले लूँ, यह सोचकर मैंने रास्ते में किसी से फोन मांगकर अपने दोस्त का नंबर मिलाया। वो जानकर खुश हुआ कि मैं उसके पास ही हूँ ओर उसने मुझे अपना पता बताया ओर मैं उस पते पर पहुंचा। वो मुझे लेकर अपने पी॰जी पहुंचा। वो और एक लड़का उस पी॰जी में रह रहे थे। उसे मेरी हालत जानकार दुख हुआ और सब कुछ ठीक होने तक उसने मुझे अपने पास रुकने को सहमति दी।
हम दिन भर बातें करते रहे। मुझे उसके पास रहते हुए दूसरा दिन था। मैंने जाना मेरी वजह से उनको काफी मुश्किल हो रही है, काम से भी छुट्टी लेनी पड़ रही और मैं बेकार ही पराए शहर में उनकी मुश्किलें नहीं बढ़ाना चाहता था। मैंने उससे झूठ ही बोला कि मुझे काम मिल गया है और रहने का बंदोबस्त भी वहीं मिल रहा है और में वहाँ से अगली सुबह निकल आया। मैंने बस स्टैंड के पास एक गेस्ट हाउस में कमरा लिया और रहने लगा। मुझे यहाँ रहते हुए दस दिन हो गए थे और कमरे का किराया आदि में पैसे खत्म होने वाले थे। काम ना मिलने के कारण भी मैं हताश था और अब मुझे घर की याद आ रही थी। दूसरे दिन मेरे पास गेस्ट हाउस का किराया देने के बाद खुद के गुजारे योग्य पैसे नहीं बचे थे। मैंने मजबूरी मैं अपने उसी दोस्त को फोन किया ओर अपनी जरूरत बताई। उसने मेरी मदद के लिए हाँ करते हुए मुझे फ़रीदाबाद में नीलम चौक पर मिलने आने को कहा। मेरे पास इस समय सिर्फ बस के एक तरफ के किराए जितने ही पैसे बचे थे।
मैंने फ़रीदाबाद की बस पकड़ी और वही बात हुई जितने पैसे थे उतने का ही टिकट लगा। मैं पहली मर्तबा फ़रीदाबाद जा रहा था और बड़ी उम्मीद से जा रहा था। फ़रीदाबाद में नीलम चौक पर मैं उतरा और वहाँ से अपने दोस्त को फोन किया तो उसका फोन नेटवर्क क्षेत्र से बाहर आ रहा था। मैं काफी समय तक फोन करता रहा पर हर बार यही संदेश सुनने को मिला। मेरा भूख के मारे बुरा हाल हो रहा था और दूसरा जेब में खाने-पीने को भी कुछ ना था। मुझे उसका इंतज़ार करते हुए दोपहर से शाम होने को आ गई। पता नहीं उसकी क्या मजबूरी थी या क्या बात थी जो उसका फोन नहीं मिल रहा था। ऐसे ही ख्याल मेरे दिमाग में दौड़ रहे थे। आखिर अब शाम के छ्ह बजने वाले थे ओर गर्मी में मैं खड़े-खड़े मानो पागल हो रहा था।
आखिरकार मैंने वापस मुड़ने का फैसला किया। किराया देकर तो मैं वापस गुरुग्राम जा नहीं सकता था सो मैंने नीलम चौक से गुरुग्राम की तरफ मुड़कर लिफ्ट के सहारे जाने का सोचा। मैंने गुरुग्राम के नंबर वाली गाड़ियों को हाथ दे रहा था। लिफ्ट के लिए इशारा करते हुआ आधा घंटा से ऊपर समय हो रहा था और यह विचार भी मुझे निराशा देने वाला लग रहा था। इन्ही ख्यालों के बीच मेरा ध्यान कुछ कदम आगे रुकी कार की तरफ गया जिसका जिसका ड्राईवर मुझे ही मुड़कर देख रहा था। मैंने भगवान का शुक्र किय और गाड़ी की ओर भागा और दरवाजा खोल ड्राईवर के साथ वाली सीट पर बैठकर उसका धन्यवाद करते हुए पूछा कि आप कहाँ जा रहे हैं? उसने कहा कि उसे बदरपुर की तरफ जाना है। मैंने उसे बताया कि मुझे गुरुग्राम जाना है तो उसने कहा कि उसे जरूरी काम है सो वो मुझे सैक्टर 17 गुरुग्राम तक छोड़ सकता है। मैंने कहा ठीक है और हम इधर – उधर की बातें करते हुए कब सैक्टर 17 पहुंचे पता ही नहीं चला। मैंने उसको दोबारा धन्यवाद करते हुए अलविदा कहा और मैं गुरुग्राम कि तरफ जाते रास्ते कि ओर निकल पड़ा।
सैक्टर 17 बड़ा इलाका था ओर पौश एरिया था लेकिन मुझे प्यास लगी थी और इस पौश इलाके में एक भी नल ना मिला। मैं एकसार मेन रोड की तरफ चलता जा रहा था। यहाँ से मेरा गेस्ट हाउस अभी काफी दूर था। यहा शांति थी और किसी भी वाहन का मिलना मुश्किल था। सैक्टर पार करते ही मेन रोड आ गई और मुझे कुछ उम्मीद बंधी। मैं अपने गन्तव्य की और धीरे-धीरे चला जा रहा था। अंधेरा हो गया था और भूख-प्यास भी सताने लगी थी। कहीं पानी भी पीने को ना मिला और खाने-पीने की बात तो दूर मेरे पास तो बस या ऑटो के लिए किराए के पैसे भी ना थे।
मेरी चाल धीरे-धीरे सुस्त हो रही थी। यहाँ से अभी भी मेरा कमरा कम से कम 10-12 कि॰मी दूर था। जिस सड़क पर मैं चल रहा था वह फोर लेन थी। मैं पीछे से आते स्कूटर, कार आदि वाहनों को हाथ देकर रुकने का इशारा करता मगर कोई न रुकता।
अब मैंने लिफ्ट मांगने का ख्याल ही छोड़ दिया और चलने पर ही ध्यान देने लगा। जहां एक तरफ मैं निराश था वहीं दूसरी ओर मैं मन ही मन भगवान से किसी भी तरह मुझे मेरे गेस्ट हाउस तक पहुँचने के लिए किसी मदद की प्रार्थना कर रहा था। रास्ता जल्दी तय करने के लिए मैंने अपनी चाल तेज़ की और अभी कुछ ही कदम आगे बढ़ा था कि मेरे आगे मुझे एक रेहड़ी जाती दिखाई दी। यह रेहड़ी एक लड़का ठेल रहा था जो महज़ 10 साल का होगा और कद में मुझसे ढाई फीट छोटा होगा। रेहड़ी पर वह एक बड़े मटके में पुदीने का पानी बेच रहा था। मटका देख मेरी भी प्यास ने और आग पकड़ ली लेकिन मैंने अपनी इच्छा को अंदर ही दबाए रखा। चलते हुए मैं रेहड़ी पर पड़े मटके और उस लड़के को देखता हुआ रेहड़ी से आगे निकल गया। मैं बीच-बीच में पीछे मुड़कर भी देख रहा था क शायद कोई वाहन चालक मुझे पैदल चलते देख रुक जाए, लेकिन नहीं। मैं कुछ आगे जाकर रुका और रुमाल से अपने हाथ मुंह से पसीना पोंछने लगा। मैं अभी पाँच मिनट ही रुका हूंगा कि वही रेहड़ी वाला लड़का मुझे आगे जाते हुए दिखाई दिया। मैंने भी चलना शुरू किया और चलते हुए उस रेहड़ी से फिर आगे निकल गया। मैंने अपने ही ख्यालों में चल रहा था कि किसी ने मुझे आवाज़ लगाई "ऐ भाई ! रुकना ज़रा"।
मैंने दायें-बाएँ देखा कि शायद किसी और को कोई बुला रहा हो लेकिन वहाँ कोई न था। मैंने पीछे मुड़कर देखा तो वो रेहड़ी वाला लड़का मेरे पीछे ही रेहड़ी ठेले आ रहा था ओर उसने हाथ हिला कर इशारा किया कि उसने ही आवाज़ लगाई है। मैं रुका और इससे पहले कि मैं उसके पास आते ही कुछ पूछता उससे पहले ही उसने पूछा "क्या हुआ भाई किसी मुश्किल में हो" ? मैंने कहा 'नहीं तो'। उसने कहा " नहीं लगता तो है, कुछ तो बात है, पहले भाई यह बता पानी पिएगा" ?
उसकी बातों का जवाब देने से पहले हे उसने एक गिलास ठंडा पानी भरकर मेरे हाथों में थमा दिया। मैंने यह जताते हुए कि मुझे ज्यादा प्यास नहीं लगी धीरे-धीरे घूंट भरकर पानी पिया और गिलास उसे वापस दे दिया। उसने फिर पूछा "भाई और दूँ"? मैंने कहा नहीं, जबकि मुझे बहुत प्यास लगी थी और वो लड़का तो जैसे अंतर्यामी था। उसने मटके का ढक्कन उठाया और पुदीना पानी गिलास में भरने लगा। मैंने उसका हाथ पकड़ कर रोकना चाहा कि नहीं मुझे नहीं चाहिए पर उसने चुप-चाप पुदीना पानी का गिलास मुझे देते हुए कहा "ले भाई इससे तुझे कुछ तसल्ली हो जाएगी" मैं हैरान हुआ उसे देखे जा रहा था और खुद से सवाल कर रहा था कि यह कौन है जो इस घड़ी में मेरी इतनी सेवा कर रहा है, पर जब इसने पैसे मांगे तो मैं क्या कहूँगा?, यह सब सोचते हुए मैंने उसे खाली गिलास थमाया और पूछा कितने पैसे हुए? मैं मन ही मन यह सोच रहा था अगर इसने पैसे मांग लिए तो ? पर इसके विपरीत उस लड़के ने कहा "क्या भाई ! कैसी बातें करते हो ? लेने के टाइम पर देने की बात करते हो।"
मेरे जैसे पैरों तले ज़मीन निकल गई। मैं उससे क्या कहूँ-क्या पुछूँ इसी असमंजस में पड़ गया था। इतने में उसने अगला सवाल किया "भाई जा कहाँ रहे हो पैदल ?" मैंने कहा 'बस स्टैंड से आगे मेरा गेस्ट हाउस है जहां मैं ठहरा हूँ, वहीं जा रहा हूँ '। उसने कहा " मैं देख रहा था कि भाई को कहीं जाना है तभी लिफ्ट के लिए हाथ दे रहा है"। मैंने हाँ में सिर हिलाया और उसे धन्यवाद कहकर आगे बढ़ने ही लगा था कि उसने फिर आवाज़ दी "भाई रुक तो, ऐसे कहाँ जा रहे हो ? कोई लिफ्ट नहीं देगा"।
"ऐसा करो भाई तुम कोई ऑटो या बस में चढ़ जाओ तभी जल्दी पहुंच पाओगे"। मैंने कहा हाँ यह तो है। यह जानते हुए कि मैं ऑटो या बस का किराया नहीं दे सकता था फिर भी उससे मैंने कहा ठीक है मैं देखता हूँ कोई ऑटो या बस मिल जाए। उसका दोबारा धन्यवाद करके मैंने हाथ मिलाया और और आगे चलने लगा। उसने फिर आवाज़ लगाई और जब मैंने मुड़कर देखा वो रेहड़ी छोड़ दो कदम भाग कर मेरी तरफ आया और बोला "भाई ऐसे कैसे बस या ऑटो में बैठ जाएगा, किराए के बिना कोई भी नहीं लेके जाएगा"।
उसकी बात सुन मेरी साँसे रुक गईं, वो छोटा सा लड़का मेरी स्थिति को कैसे भाँप गया था ? मैं यही सोच रहा था। कहीं भगवान ने मेरी सुन ली थी या यह लड़का ही इतना समझदार था जो पानी पिलाने से लेकर हर मदद को तैयार था। मेरे लिए वो किसी फरिश्ते से कम न था। इससे पहले कि मैं कुछ बोलता वो लड़का अपना पर्स निकालने लगा। मैंने उसे रोका और कहा "नहीं यार मुझे पैसे नहीं चाहिए, मैं चला जाऊंगा"। वो बोला "भाई मैं जानता हूँ कि तेरे पास पैसे नहीं हैं" उसने अपना पर्स खोला, उसमें शायद उसकी दिनभर की कमाई के 100-120 रुपये होंगे। उसने दस रुपये का नोट निकाला और मेरी ओर बढ़ाया।
मेरी आँखें खुली रह गईं। उस लड़के के बोल और उसकी आँखों में दिखाई देती इंसानियत की चमक मेरे हृदय को छलनी कर रहे थे और यह सोचने को मजबूर कर रहे थे कि क्या आज के दौर में भी ऐसे लोग हैं। मैं खुद को उस लड़के के सामने उस समय बहुत छोटा महसूस कर रहा था। मेरी उम्र, तजुर्बा, ओहदा सब बेकार था। उसकी पेशकश के बाद मेरे मुंह से ना निकल रही थी और में बड़ा संघर्ष चल रहा था। ज़िंदगी की इस कसौटी पर मेरी जरूरत मेरे स्वाभिमान पर हावी थी।
चलने को मैं 6-7 किलोमीटर चल सकता था पर दोपहर से अब तक थक कर चूर हो गया था। बात सिर्फ दस रुपये की थी लेकिन मैं अपने आप से जूझ रहा था। वो अनजान लड़का मुझे अपने आगे बड़ा लग रहा था। तभी उसने दस रुपये मेरे हाथ में थमा कर बोला "कोई बात नहीं भाई ले ले इतने से मुझे ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा लेकिन तेरी जरूरत पूरी हो जाएगी"।
मेरी आँखों में अब आँसू आ गए थे मैंने उसकी आँखों में देख उसका वो दस का नोट पकड़ कर उसके दोनों हाथ पकड़ उसका आभार जताया और कहा "मैं तुम्हें हमेशा याद रखूँगा"। तभी एक लोकल बस आई और उस लड़के ने उस बस को हाथ दिया और मुझे बस में चढ़ने को कहा।
मैं उसे अलविदा कहकर आगे रुकी बस में भाग कर चढ़ा और बस के दरवाजे से उसे देखने लगा और वो मुझे हाथ हिलाकर बाय कर रहा था मैंने भी हाथ हिला उसे बाय किया ओर सीट पर बैठ गया। बात सिर्फ इतनी थी लेकिन इसने मेरे दिलो दिमाग पर गहरा प्रहार किया कि आजकल के समय में किसी जरूरतमन्द की मदद करने में कितनी खुशी है और यह कोई इतना महंगा काम भी नहीं। जरूरत पानी से लेकर चाहे किराए तक की हो मौके मुताबिक बहुत बड़ी और मदद करने वाले के लिए शायद बहुत छोटी होती है। आजकल की भागदौढ़ में किसी कि मदद में कम ही हाथ उठते हैं लेकिन बजाए बड़े दान-पुण्य के, यही सबसे बड़ा पुण्य है और इंसानियत ही सबसे बड़ा धर्म है और यह मैंने उस दिन सीखा। उस दिन रातभर मैं सो न सका और उस समय के हर पल को याद करता रहा। आज इस बात को छह साल हो गए हैं, पता नहीं वो लड़का कभी दोबारा मिलेगा या नहीं लेकिन वो लड़का आज भी मुझे याद है। जब भी दस रुपये के नोट को देखता हूँ उसे याद करता हूँ क्योंकि बात सिर्फ दस रुपये की थी।