बाबा फरीद
बाबा फरीद
बाबा फरीद का जन्म ११७३ में मुलतान के पास खोतवाल नामक ग्राम में हुआ था। उनका नाम फ़रीद-उद-दिन मसौद रखा गया। उनके पिता जमाल-उद-दिन सुलैमान और माता मरियम बीबी थीं। वे ख्वाजा बख्तियार काकी के शिष्य थे।
शेख फरीद ने आम लोगों की बोली में दिव्य संदेश प्रकट किया। उनके जीवन का सबसे बड़ा गुण संपूर्ण मानव जाति के प्रति प्रेम और संवेदना था। वे सांसारिक प्रलोभनों से दूर रहने और पूरे ब्रह्मांड के रचयिता ईश्वर के प्रति समर्पित रहने की सलाह देते हैं। दुनिया के झूठे आकर्षणों में न उलझकर, अपरिहार्य मृत्यु की भावना के प्रति सबको सचेत रहने के लिए प्रेरित करते हैं। उनकी रचनाओं में आध्यात्म और सदाचार का मिश्रण दिखाई देता है।
जो तैं मारण मुक्कियाँ उनां ना मारो घुम्म॥
अपनड़े घर जाईए पैर तिनां दे चुम्म॥
फरीद जी कहते हैं कि हिंसा का उत्तर प्रतिहिंसा नहीं है। इन शब्दों द्वारा वे कहना चाहते हैं कि जब तेरे कुकर्म तुझे परेशान और दुःखी करते हैं, तो प्रतिक्रिया स्वरूप और गलतियाँ न कर। उनका सामना कर, उनपर विजय प्राप्त करके आगे की राह प्रशस्त कर।
फरीदा जे तू अकलि लतीफु काले लिखु न लेख॥आपनडे गिरीवान महि सिरु नीवां करि देखु॥१
यदि तुझ में अक्ल है तो किसी की बुराई करके अपने कर्मों को मैला न कर, अपने अंदर के अवगुणों को पहचान, उनका नाश करके सद्गुण का मार्ग अपना। अपनी आत्मा के उत्थान के लिए प्रयत्नशील हो।
देख फरीदा मिट्टी खुल्ली
मिट्टी उत्ते मिट्टी डुल्ली
मिट्टी हस्से मिट्टी रोए
अंत मिट्टी दा मिट्टी होए
ना कर बंदेआ मेरी मेरी
चार दिनां दा मेला ऐ दुनिया
फिर इक दिन बन जाना
मिट्टी दी ढेरी॥
शरीर मिट्टी है और इसे मिट्टी में ही मिल जाना है। जन्म के बाद मौत तो निश्चित है। अहंकार और मोह - माया त्यागकर, मनुष्य जीवन के मूल उद्देश्य के अनुसार जीवन बिताना चाहिए।
