अस्तित्व

अस्तित्व

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ऐसा नहीं था की ये उसे पहली बार किसी ने बोला था पर पता नहीं क्यों आज चाहकर भी वो इसे अपने दिमाग से नहीं निकाल पा रही थी।

रात के लगभग तीन बज चुके थे और उसकी आँखों में नींद का कोई निशान मात्र ना था। उसने सोचा भी ना था की उसका सोलवां जन्मदिन इस तरह निकलेगा।

"माँ आज में देर से घर लौटूंगी, कॉलेज में एक प्रोग्राम है शाम को" अगले दिन स्कूल जाते वक़्त उसने माँ को बोला। उससे मालुम भी नहीं हुआ की उसने कब निश्चय किया की आज वो सच्चाई जानकर ही रहेगी।

"ठीक है बेटी, ध्यान से जाना और खाना टाइम से खा लेना", माँ ने जवाब दिया।

रीना चार भाई बहनों में सबसे छोटी थी और सबसे शैतान। यु तो वो हर वक़्त सबसे मजाक करती थी और सबको छेड़ती रहती थी लेकिन जब कोई उससे पीछा छुटाना चाहता या उसे छेड़ना चाहता तो बस एक ही बात काफी थी।

"रीना तुझे मालुम है की तू अपने जनम के वक़्त हॉस्पिटल में बदल गयी थी"

"माँ देखो मामा हमेशा ये बात बोलते है", रीना रोती हुई अपनी माँ से लिपट जाती। और फिर अगले दिन सब भूल जाया करती। पर पता नहीं क्यों आज ऐसा नहीं हुआ। कल जन्मदिन पर जब बड़ी दीदी ने फिर ये मजाक किया तो वो रोई नहीं पर हाँ बहुत उदास जरुर हो गयी।

रात भर वो लोगो की बातें अपने मन में दोहराती रही।

"देख तेरे तीनों भाई बहनों के हाथ छोटे हैं पर तेरे नहीं, वो सब कितने गोरे हैं पर तेरा रंग सांवला है, तेरी जितनी लम्बी तो कोई हमारे पुरे खानदान में भी नहीं है"। न जाने ऐसे कितने अनगिनत ताने जो उसने बचपन से सुने थे रात भर उसके कानों में गूंजते रहे।

अमरोहा, उसके शहर गाज़ियाबाद से लगभग सो किलोमीटर दूर एक छोटा सा शहर, या यु समझिये की शहर और कसबे के बीच कुछ होता तो वह कहा जा सकता था। बचपन में अक्सर गाँव जाने के लिए रीना इस्सी कसबे नुमा शहर या शहर नुमा कसबे से गुजरती थी और हजारो बार उसकी माँ ने उसे बताया था की उसका जनम इसी शहर में डॉक्टर रस्तोगी के अस्पताल में हुआ था।

"डॉक्टर रस्तोगी", लगभग तीन घंटे की बस यात्रा के बाद जब वह अमरोहा के बस स्टैंड पर उतरी तो उसके दिमाग में ये ही नाम था। पिछले इतने सालो में शहर लगभग वैसा ही था हाँ कुछ चीजें अगर बड़ी थीं तो प्रदूषण और गन्दगी जो की हर विकासशील समाज का एक अहम् हिस्सा हैं।

ऑटो इतने विकास के बाद भी इस शहर को छू ना पाए थे हाँ कुछ साइकिल रिक्शा जरुर मौजूद थे। जैसे ही उसने एक रिक्शा वाले के पास जाकर पूछना चाहा की डॉक्टर रस्तोगी के यहाँ जाना है तो शब्द उसके मूंह में ही अटक गये।

सोलह साल की एक जवान लड़की, बिना माँ बाप के अकेले महिलाओं वाले अस्पताल जा रही है, छोटे शहर के लोग इससे बहुत कुछ समझ लेते हैं।

लगभग बीस मिनट बाद वह डॉक्टर रस्तोगी के अस्पताल के सामने खड़ी थी। न जाने कितने सवाल, कितने डर, कितने पल, कितनी खुशियाँ उसकी आँखों के सामने थे। मानो पल भर में उसने अपना सारा जीवन जी लिया हो। शायद जो उसने जिया है वो किसी की गलती से हुआ हो। शायद जो हुआ वो नहीं होना था और जो नहीं हुआ वो होना चाहिए था।

उन्ही ख्यालो में कहीं खो गया था उसका अस्तित्व।

"किस्से मिलना है बेटी", एक अधेड़ उम्र के इंसान से उससे पूछा।

"डॉक्टर रस्तोगी से" शब्द उसके मुंह से बाहर नहीं आ पा रहे थे

"साहब तो बारह बजे आयेंगे, तुम तब तक अंदर बैठकर इंतज़ार कर सकती हो"।

वह अंदर बैठकर इंतज़ार करने लगी। अस्पताल की दीवारें, उनपर लेगे फटे पुराने पोस्टर, हरे रंग के परदे, टिक टिक करते वो बड़ी सी घडी, छत पर धीमे धीमे घूमता पंखा, कोने में बात करती दो नर्स, और रिसेप्शन के पीछे वाली कुर्सी पर बैठा वही अधेड़ उम्र का इंसान। उससे लगा की मानो वह ये सब पहले भी देख चुकी है, सब कुछ, ऐसा ही, इसी जगह पर। लेकिन कब, वो तो आज पहली बार इस अस्पताल में आई है।

नहीं दूसरी बार। उसके दिल की धड़कन बढ़ती जा रही थी

"१३ अगस्त २००३" अपनी जनम तारिख कोई भला कैसे भूल सकता है।

"अंकल आप यहाँ कब से काम करते हैं"

"पच्चीस साल हो गये बेटी" उस अधेड़ उम्र के इंसान ने बिना सर उठाये ही जवाब दिया।

रीना को डर और ख़ुशी की अहसास एक साथ हुआ।

"यहाँ जिन बच्चो को जनम होता है उनका कुछ रिकॉर्ड रखा जाता है क्या ?" धीमी से आवाज में सवाल मानो उसके मूह से बाहर आने की पूरी कोशिश कर रहा हो।

'हाँ'

मनोहर, जिसे उसने अंकल कहकर बुलाया था, उसकी तरफ पीछे आने का इशारा करके ऊपर जाने के लिए सीडियां चड़ने लगा। रीना उसके पीछे पीछे चल पड़ी।

तीसरे माले पर वो एक लोहे के दरवाजे के सामने रुके जिसपर एक छोटा से ताला लगा था जो देखने से लगता था की पता नहीं कितने सालो से नहीं खुला है और शायद ही खुल पाए।

"साहब को रिकॉर्ड रखने का मानो पागलपन है, यहाँ पैदा हुए हर बच्चे का रिकॉर्ड साल के अंत में हम इस कमरे में रख देते हैं"

कमरा खुलने पर रीना ने देखा की कमरे में अँधेरा, धुल और मकड़ी के जाले बराबर मात्रा में थे।

"तुम्हे क्या चाहिए बेटी बोलो"।

"अंकल मेरा जनम इसी अस्पताल में हुआ था, आज से ठीक सोलह साल पहले। मुझे उस दिन का रिकॉर्ड चाहिए। मुझे देखना है की उस दिन इस अस्पताल में कितने बच्चे पैदा हुए थे, मेरे घर में सब मुझको बोलते हैं की मैं अस्पताल में ।।।।" बचे हुए शब्द रीना के गले में ही दबकर रह गये।

"नाम क्या है तुम्हारा बेटी ?"

"जी अंकल, रीना"

रिकॉर्ड रूम काफी तरीके से बनाया गया था और सब कुछ तरीके से रखा भी गया था। दस मिनट में ही १३ अगस्त २००३ की फाइल सामने आ गयी। रीना की उत्सुकता अपने चरम पर थी।

"बेटी उस दिन इस अस्पताल में दो औरतो ने तीन बच्चो को जनम दिया था, एक औरत के जुड़वाँ बच्चे हुए थे, एक लड़का और एक लड़की और दूसरी औरत के एक लड़की हुई थी। और हाँ ये तो मेरा ही बनाया हुआ पेपर है, उस दिन में ही था ड्यूटी पर"।

रीना को मालुम था की पहली औरत तो उसकी माँ ही हैं और जो जुड़वाँ लड़का है वो उसका भाई, उसका या दूसरी लड़की का वह फिर से सोच में पड़ गयी।

"ये लो बेटी, इत्तेफाक तो देखो, इसी दिन हमारे गाँव के सरपंच की बेटी भी पैदा हुई थी और उसका नाम भी रीना ही है", मनोहर ने दो पेपर रीमा के हाथ में थमा दिए।

पहले पेपर पे लिखा था, जच्चा का नाम सुदेश। बच्चो का नाम अमित और शीना। दुसरे पेपर पे लिखा था जच्चा का नाम माया और बच्ची का नाम रीना। बच्चो के नाम के आगे कोई निशान या पहचान नहीं थी

उसकी माँ और भाई का नाम तो सही था पर उसका नाम शीना ?। पेपर देखकर उसके अस्तित्व की पहेली सुलझने के बजाय और उलझ गयी थी।

क्या शीना रीना है और रीना शीना या फिर रीना रीना है और शीना शीना या दोनों शीना है या दोनों रीना। पर सच में तो दोनों रीना हैं, फिर शीना कहाँ है ?

"आपका गाँव यहाँ से कितनी दूर है अंकल"

"बेटी यही कोई पांच मील"

"आपके पास कोई स्कूटी या कार है"

हाँ बेटी एक पुरानी स्कूटी है"

"मुझे अभी लेकर चलेंगे अपने गाँव, मुझे रीना से मिलना है"

रीना की उत्सुकता बढती जा रही थी, वो देखना चाहती थी दूसरी रीना को, या असली रीना को या असली शीना को।

"बेटी मुझे तो यहीं रहना है साहब आते ही होंगे, तुम अकेले ही चले जाओ, स्कूटी चलाना तो जानती हो ना ?"

"सरपंच जी का घर किधर है", रीना ने गाँव पहुचकर एक बच्चे से पूछा।

"आप रीना दीदी की दोस्त हो ?", बच्चे ने लौटकर सवाल पूछा।

रीना को मालूम था की इस सवाल का जवाब हाँ नहीं है और वो ना कह नहीं सकती, उसने गर्दन से हाँ और ना दोनों में इशारा किया। वह बच्चा उसे सरपंच जी के घर के बाहर तक छोड़ आया।

सरपंच जी के एक ही औलाद थी, पुरे गाँव की चहेती। गाँव का हर इंसान उसे पसंद करता था और करे भी क्यों ना सबकी हमेशा मदद जो करती थी। उसके बापू दो गाँव के सरपंच थे इसका रीना को कोई घमंड ना था बल्कि ये तो उसके लिया बहाना था गाँव के लोगो की मदद करने का। कहती थी बापू हम नहीं करेंगे तो कौन करेगा।

"किस से मिलना है तुम्हे बेटी ", एक औरत ने रीना से पूछा। चेहरा उसे जाना पहचाना लगा पर मानो उसने इस पहचान को झूठला दिया।

"जी रीना से, उससे कुछ बात करनी थी"

"रीना बिटिया देखो तुमसे कोई मिलने आया है, आ जाओ और पानी भी लेकर आओ इनके लिए"। माँ रुपी औरत ने आवाज लगायी।

हाथ में ट्रे थी और उसमे स्टील को दो ग्लास जिनमे शायद पानी था। उसकी चाल, आँखें, हाथ, लम्बाई, बाल। रीना ने मानो उन दो मिनटों में सब कुछ जान लिया था। सब कुछ जो ऐसा लगता था वो सालो से जानती थी। सब कुछ जो वो आज शायद पहली बार नहीं देख रही थी।

"क्या आप मुझे जानती हैं", रीना ने पूछा।

"नहीं, गाँव से गुजर रही थी, लोगो से आपके बारे में सुना तो सोचा की आप से मिल लूँ "। रीना ने जवाब दिया।

"अच्छा किया" उसको जवाब सुनाई दिया, बिलकुल वही आवाज जो वो बचपन से सुन रही थी

कुछ और ना था उसके पास कहने को। वहाँ बिताया एक एक पल मानो उसके अस्तित्व को झकझोर रहा था, उसे तोड़ रहा था।

पानी पीकर उसने गिलास नीचे रखा और बाहर निकलने के लिए तेज़ी से कदम बढाये।

"अरे रुकिए तो"

कितनी जानी पहचानी आवाज थी वो। रीना की रुकने की हिम्मत ना थी।

एक अस्तित्व की खातिर कितनी खुशियाँ दांव पर थी।

रात के लगभग आठ बज चुके थे, उसकी माँ बेसब्री से उसका इंतज़ार कर रही थी। उसने घर की घंटी बजाई, माँ ने जैसे ही दरवाजा खोल रीना माँ से चिपक कर रोने लगी।


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