अपने लोग
अपने लोग
एक दिन भवेश को अनायास ही फेसबुक पर मैसेज आया- "आप बानुछापर बाले भवेश हैं ?"
भवेश सोच में पर गये कि यह कौन हो सकता है ? मैसेज भेजनेवाले का प्रोफाइल देखे, वो तो एक सुंदर और आकर्षक औरत थी। उनके फ्रेंडलिस्ट में झांक कर देखा - वहां भी ना कोई कौमन और ना ही जानकार ही निकला।
इतना तो निश्चित था, जो भी हो, है तो बिहारी ही। बानुछापर में तो आज से चालीस वर्ष पहले रह चुके हैं। वहां तो किसी लड़की से जान पहचान की बात तो दूर, हाय- हेल्लो भी नहीं था। वो समय ही ऐसा था, जब घर के सिवा और लड़कियों से बात करना, कायदे - कानून तोड़ना माना जाता था। सिर्फ वहां की लड़कियों से बात करने के चक्कर में कई लोग पिटाई खा चुके थे। इस सब झमेला से अलग रहना ही उस समय श्रेयस्कर माना जाता था।
इन सब बातों में एक तो सच था - वो रह तो चुके हैं बानुछापर में । तरह तरह के बिचार सब दिमाग में उमर घुमर करने लगा। ना छोड़ते बन रहा था और ना कुछ किये। हरदम वही मैसेज सिर पर घूम रहा था।
जब ही मौका मिलता थाउस औरत के प्रोफाइल को खोल के बैठ जाते थे । यह उम्मीद था कि कुछ इसमें से छांट लेंगे, जिस आधार पर उसने मैसेज किया है लेकिन कुछ निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाये। पुरा प्रोफाईल इधर से उधर कर लिए, इनके मतलब का कुछ नहीं निकला।
बार - बार मन करता था, इस मैसेज का जवाब देकर पुछ लें ?
फिर विवेक ऐसा कदम उठाने से रोकता था।यह मन और विवेक के बीच कसकर द्वंद्ध मचा हुआ था।इसी सब में उलझे रह गए थे भवेश। अंत में जीत विवेक की ही हुई। मैसेज का जवाब नहीं दे पाए।
जितना इस सब से बाहर आना चाह रहे थे, उतना ही ज्यादा उलझते जा रहे थे। यह तो कांटा का झार- झंखार हो गया था इसमें एक बार फंसने के बाद जितना हाथ पैर मारियेगा, उतना ज्यादा कांटा में फ़सियेगा और कांटा शरीर में चुभेगा अलग से।
अभी तक यह सुनते आ रहे थे-
फेसबुक में इसी तरह मैसेज आता है- दोस्त बनाने का निमंत्रण भी आता है। इस अंजान दोस्त का निमंत्रण स्वीकार करते ही, आपका सारा सुचना उसके पास पहुंच जाता है। वो ऐसा अपना एक दूत, आपके कम्प्युटर में बैठा देता है, जो आपका सारा गतिविधियां उसके पास भेजता रहता है। इसी " बिना बुलाए मेहमान " के आने के डर से भवेश आगे नहीं बढ़ पा रहे थे।
दूसरी बात यह भी था,अगर मैसेज भेजनेवाला पुरुष होता, तो वे जवाब देकर अभी तक पुछ ही लेते ?
उम्र के उस पड़ाव पर खड़े हैं, जो इधर उधर का कोई होगा, पुरी बात अगर फैल गई, फिर तो हो गया जुल्म।
बिहारी समाज में, बात का छिद्रान्वेशन से ज्यादा और किसी काम में मन नहीं लगता है। मुर्दा घर में तो एक ही बार लाश का चीर-फाड़ किया जाता है इनके समाज में तो जबतक चिथड़ा चिथड़ा नहीं हो जाता, बात का पोस्टमार्टम चलता ही रहता है।
फलां फंस गए !
किसी औरत के चक्कर में पड़े थे !
पहले से ही होगा।इस बार भांडा फूटा !
लोगों को समझना इतना आसान नहीं है !
किसके अंदर कौन सा खिचड़ी पक रहा है ? यह कौन बताएगा ? वो तो इस बार बात बढ़ी, तब लोगों को पता चला इस सब तेला बेला से रेहल खेहल हो गये हैं भवेश। आखिरकार, इतनी जद्दोजहद के बाद भी साहस नही़ जुटा सके -फेसबूक पर जबाब देने का।
कुछु दिन बाद फिर से मैसेज आया-
"लग रहा है आप मुझे नहीं पहचान पाए ? मैं धनहा गांव की ललन बाबु की बेटी हूं। अब आशा करती हूं आप पहचान गये होंगे।"
मैसेज पढ़ते ही सब कुछ एकबारगी याद आ गया। पुरे शरीर में झनझनाहट आ गई। खूद अपने आप पर अफसोस होने लगा भवेश को, कैसे नहीं पहचाने?फोटो तो देख चुके थे, तब भी अंदाजा नहीं लगा। वो क्या समझी होंगी ?
बिना एक पल गंवाते हुए, उसी समय जवाब दिए। अपना वाट्सएप नम्बर भी दिए।
यह लीजिएया तो इस नम्बर पर बात कीजिए या अपना नम्बर बताइए ?
चालीस वर्ष पहले की सारी घटना आंख के सामने नाचने लगी। सिनेमा के रील की तरह सब घूमने लगा।
भवेश चौदह - पन्द्रह वर्ष से ज्यादा के नहीं थे। वार्षिक परीक्षा दे चुके थे। रिजल्ट नहीं निकला था। उनके सभी साथी कहीं कहीं घुमने चले गए थे। वो सारे साथी तो यहां शहर में किराया पर रहते थे, इसीलिए छुट्टी होने पर अपने गांव या रिश्तेदार के यहां दूसरे शहर घुमने चले गए थे। भबेश का गांव-शहर सब यही था। इनका कोई संबंधी दूसरे शहर में रहता भी नहीं था। सारे के सारे इसी बेतिया शहर में रहते थे। कोई इस मुहल्ले तो कोई उस मुहल्ले में। बचपन से ही परीक्षा के बाद घर में ही रहना भवेश को पसंद नहीं है। लेकिन जाते तो कहां जाते ?
भवेश के पिताजी को अपने गांव से विरक्ति था। बदली वाला नौकरी भी नहीं था। मन मसोस के रह जाते थे भबेश।
ऐसा भी कोई नौकरी होता है? जिसमें बदली नहीं हो ?
वो तो ऐसा नौकरी करेगा, जिसमें खूब घूमना फिरना होगा।
हर वर्ष, वार्षिक परीक्षा के बाद का समय उसको पहाड़ की तरह लगता था इस बार भी वही हुआ। मूंह लटका कर, घर में अकेला लेटा रहता था।
उसी समय उसके पिताजी के दोस्त ललनजी बम्बई से आये थे। वैसे वो उम्र में भवेश के पिताजी से बड़े थे। लेकिन दोनों में पुरानी दोस्ती थी। दोस्ती का कारण था - दोनों जन पहले यहीं पर एक जगह नौकरी करते थे। ललनजी सीनियर थे। बाद में वो कोई दुसरी परीक्षा पास करके बम्बई चले गये थे। वो जब कभी अपने गांव की तरफ आते थे, यहां मिलने आते ही थे। सब बार इन लोगो को बम्बई आने के लिए कहते थे। बम्बई घुमने का भवेश का भी बड़ा मन करता था। वो बाइस्कोप में बम्बई शहर कई बार देख चुका था। हीरो - हीरोइन को बिना सिनेमा के पर्दे पर, देखना चाहता था। लेकिन कोई इसके घर से बंबई जाता ही नही था। भवेश को अपने घरवालों पर बहुत गुस्सा आता था- आखिर ये सब घुमने जाते क्यों नहीं हैं ?
ललनजी ने कहा -
" हम अब रिटायर भी हो जायेंगे। आप लोग कब आइएगा ?
बहुत नमक इस घर का खाये हैं, एक बार हमारे घर भी तो आइये।"
इस बार ललनजी, अपनी छोटी बेटी सीमा की शादी करने के लिए, अपने गांव आए हुए थे। उनकोे, तीन बेटी और दो बेटा था। बाकी सबका शादी हो गया था। यह उनका अंतिम यज्ञ थाइसी लिए इस शादी में शरीक होने का आग्रह ज्यादा था।
भवेश की मां यह जानती थी- यहां से कोई जानेवाला नहीं है। भवेश का परीक्षा के बाद घुमने का मन कर रहा था …वो बोली-
"ले जाईये भवेश को। अब तो यही लोग संबंध को आगे बढ़ायेंगे। और तो कोई जानेवाला यहां से नहीं है"- उनका इशारा अपने और भवेश के पिताजी के तरफ था।
" आपसे इस घर का क्या छुपा हुआ है।सब जानते ही हैं।"
फिर क्या था ? मां जो कह देती थी, वो अंतिम होता था। भवेश का कपड़ा लत्ता सब एक झोला में रख दिया गया। वो ललनजी के साथ ही शादी में शामिल होने के लिए चल दिए।
बिना मां पिताजी के अकेला जाने का यह पहला अवसर मिला था भवेश को। पुरा उत्साह में वो था। कंधा उचका उचका कर ललनजी के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रहा था।
पहले ट्रेन, फिर टायरगाड़ी से वो लोग धनहा गांव पहुंचे। भवेश तो टायरगाड़ी पर हार कर सो गया था। पहली बार, ऐसे गाड़ी पर चढ़ा था, जो बैल चला रहा था। गाड़ीवान से ललनजी कुछ कुछ बात कर रहे थे।
कौन कौन आ गया ?
क्या क्या सामान आया ?
क्या क्या आना बाकी है ?
कल कहां जाना है ?
जलावन की लकड़ी कट चुकी या नहीं ?
चीनी का परमिट मुखियाजी ने भिजवाया ?
मिट्टी का तेल का क्या हाल है ?
कितना पेट्रोमेक्स गांव में है ?
और की जरूरत हो तो दूसरे गांव से भी मंगा लिया जायेगा ?
इसी तरह की बातें हो रही थी। यह सब भवेश के मतलब का नहीं था।
वो तो चाह रहा था कि गाड़ीवान सिनेमा की तरह कोई फिल्म का गाना गाये और भवेश लेटे लेटे सुनता रहे।
यही सब सोचते, समझते और सुनते, ललनजी का घर आ गया।
काम का आंगन था। वहां के सभी लोग भवेश को देख कर बहुत खुश हुए। ललनजी का पुरा परिवार भवेश को हाथो हाथ रखा। आखिर थे तो बच्चे ना, भवेश।
कुछ देर तो दरवाजे पर ललनजी के साथ संचमंच होकर बैठे रहे। फिर ललनजी भी कहीं ऊठ के चले गए। उनके घर के बच्चे लोग, भवेश को इशारा करके बुलाया भवेश भी उठ कर उन बच्चों के साथ हो लिएफिर शुरू हुआ- खेलों का दौर। चोरा नुक्की, बुढ़िया कबड्डी, ताश, लुडो,लाली, पिट्टो और कौन कौन खेल बीच में लोगों ने पकड़ कर भवेश को नाश्ता करवाया।
इन्हीं सारे बच्चों में, ललनजी की बेटी सीमा भी थी। वो इन सब बातों से अनजान, जो दस दिन के बाद ही उसकी शादी होगी और सात दिन बाद गौना।
पौ फटते ही खेल शुरू हो जाता और देर रात तक चलता रहता। शुक्ल पक्ष चल रहा था, इसी कारण कोई रोशनी की जरूरत भी नहीं थी। खेल में एक दिन तो वहां के लड़के सब भवेश का बात मान लिया… दूसरे दिन से लड़ाई होने लगी। कई खेलों में वहां का अलग नियम था। कोई लड़का झुकने के लिए तैयार नहीं था। ज्यादा अपने नियम की बात करने पर भवेश को भी धमकी मिल गई -
"खुद को मेहमान समझते हो, तो उस बरामदे पर जाकर के बैठो? यहां पर यहीं का नियम चलेगा। खेलना है तो हमारे नियम से ही खेलना पड़ेगा"।
भवेश को समझौता के अलावा दूसरा कोई चारा नहीं बचा था। वहीं के नियम से खेलने लगा।उस गांव के बच्चे खेल में बेईमानी भी करते थेयह भवेश को बर्दाश्त नहीं था। झगड़ा हो जाता था, फिर कुछ देर बाद मिलान हो जाता।
इस सब लड़ाई झगड़े के मामले में सीमा हमेशा भवेश के तरफ से रहती थी, बाकी सब कई बार अलग रहते। एक तरह से दो गुट बन गया था। एक सीमा, भवेश और बसंत का, दूसरा और बच्चों का।
सीमा बम्बई से आई हुई थी।पांच भाई बहन में सबसे छोटी थी। इस कारण वो काफी दुलारू थी। दूसरा उसका शादी भी था, इससे उसका मान भी ज्यादा था।वो सबकी चहेती बनी हुई थी।
एक दिन खेल में सबको अपना अपना शहर का नाम लेना था। भवेश ने "बानुछापर" कहाबसंत "मुसरी घरारी " बोलासीमा "बंबई" बोली। इसी तरह सारे बच्चे अपने अपने जगह का नाम बताये। कई बच्चे तो "धनहा " ही बोले।सीमा को "बानु छापर " सुनने में अच्छा लगा। फिर क्या था? भवेश को " छापर" कहने लगी और बसंत को "मुसरी"। वो "छापर " और " मुसरी " बोलती, फिर जोड़ जोड़ से हंसने लगती।
भवेश भी सीमा का "बंबई "कहने पर बोले - यह तो "सबुजा आम" को कहा जाता है। वो लोग, सीमा को सबुजा और सीमा ईनको छापर और मुसरी कहती थी। इसी तरह सारा दिन हंसते- खेलते बीत जाता था।
बिना माता-पिता के भवेश आये हुए थे, इसलिए ललनजी और घर के और सदस्य, ज्यादा ख्याल रखते थे। सारे बच्चे एक ही जगह सोते, उठते, खाते, पीते थे। सिर्फ नहाने के समय लड़का और लड़की अलग अलग जगह जाते, समय एक ही रहता।
सीमा को उनके घर की औरतें कुछ पारंपरिक रीति रिवाज करने के लिए बुलाने आ जाती थी।
सीमा की मां उनलोगों को बोलती-
"इसको अभी खेलने कुदने दीजिए। फिर तो घर गृहस्थी के पचड़ा में फंसना ही है ।"
जितना भवेश के समझ में उस समय आया था, उस अनुसार ललनजी का इसी वर्ष रिटायरमेंट था। इससे पहले वो सीमा की शादी करके अपने जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहते थे। सीमा की मां, इस रिश्ता के खिलाफ शुरू में थी। उस जमाने में, औरत की बात ही कितना रिश्ता निश्चित करने में माना जाता था? सीमा की मां के विरोध पर घर में किसी ने कान - बात ही नहीं दिया। मन को मार कर अंत में लग गई थी, बेटी के शादी के तैयारी में। यही सोच कर मन को दिलासा दिया कि पिता और भाई जो कर रहे हैं, भले के लिए ही तो कर रहे होंगे। इतना प्यार करते हैं सीमा को, कोई दुश्मन थोड़े हैं।
सीमा का होनेवाला दुल्हा एम टेक कर के वैज्ञानिक का नौकरी करता था। दुल्हा का गुण देखा जाता है और दुल्हन का रुप- यही सीमा की मां सबको कहती रहती थी।
यह भी सभी को पता था, होने वाला मेहमान का उम्र ज्यादा है ललनजी की रिटायरमेंट वाली बात को लेकर सीमा की मां मूंह पर चुप्पी साध ली थी।
सीमा को तो गांव आने के बाद शादी की बात बताई गई थी- यह सारी बात खूद सीमा ने भवेश को बताया था, इसलिए इसका झुठ होने का कोई सवाल ही नहीं था।
इसी तरह से शादी का दिन भी आ गया था। सीमा उसदिन खेलने नहीं आई थी। औरतों की भीड़ से वह घिड़ी थी। कुछ ना कुछ विध सारा दिन चलता रहा, जिसमें सीमा का होना लाजमी था।
शाम में वर-बाराती आये। भवेश अपने मां का दिया नया कपड़ा पहन कर तैयार था। बारात आने के बाद कई काम एक साथ आ जाती है। वहां के लोग, जिस भी काम के लिए भवेश को कहते थे, भवेश पुरे मन से काम पुरा कर देता था।
भवेश को सीमा का दुल्हा देखने में नहीं जंचा।वह सच में कुछ ज्यादा उम्रदराज था। किसी से कुछ बोलता भी नहीं था। शादी के दूसरे दिन भवेश कितना देर, उसके पास ही खड़ा रहा था, उसने इसे टोका तक नहीं।
सीमा का अब बाहर निकलना एकदम से बंद हो गया था। सारा दिन लोगों का तांता लगा रहता था।
अब भवेश का खेलना भी बंद जैसा हो गया था। उसका मन अब इस जगह से उचट गया था। सीमा को अब भवेश के लिए समय नहीं था। सीमा चुप्पी लगा ली थी।हर समय जोर जोर से बोलनेेबाली, गुम्मी हो गई थी।
गौना से एक दिन पहले " छापर " आवाज देकर के भवेश को अपने पास बुलाया -" मैं कल ससुराल चली जाऊंगी। तुमको पता है?
हां। मुझे पता है।
मुझे आंसू नहीं गिड़ता। क्या करूं ?
चिकौटी जोर से काट लो।
ना ना।
दूसरा उपाय बताओ। सब कह रहा है कि गौनावाली लड़की बहुत रोती है। मैंने बहुत कोशिश किया, फिर भी आंसू नहीं निकला।
मुसरी कहां है ?
कह के हंसने लगी थी।
मेरा " पति" कैसा लगा ?
ठीक।
ठीक क्या ? एक नम्बर, दो नम्बर, सो कहो।
दो नम्बर।
इसीसमय किसी ने सीमा को घर के अन्दर बुला लिया।
भवेश भी परेशान हो गया था, अगर गौना के समय में सीमा नहीं रोयेगी तो लोग क्या कहेंगे?
अगले दिन सुबह सुबह, सीमा के रोने के आवाज से भवेश का नींद टुटा। उसके आंख से दहोबहो आंसू गिर रहा था। कभी अपने मां के गला लग के, तो कभी अपने बहन के, तो कभी अपने चाची के, तो कभी अपने बुआ के, तो कभी अपने भौजी के, तो कभी अपने रिश्तेदारों के, अंत में फिर अपने पिता ललनजी के। दरवाजे पर खड़े सभी लोगों की आंखें नम हो गई थी। घर के नौकर- चाकर भी काम करते हुए रो रहे थे।एक किनारे में खड़ा, भवेश भी रो रहा था।
सीमा इतना रोई सब बोल रहे थे-
आज तक कोई बेटी, इतना नहीं रोई, ससुराल जाते समय। सारा धनहा गांव ललनजी के दरवाजे पर बेटी को विदा करते समय खड़ा था। अगर कोई नहीं रोया, तो वो था सीमा का पति।
कुछ देर बाद सीमा गाड़ी पर बैठ चुकी थी। लोटा में पानी लाकर उनकी मां ने दो घुंट पीलाया। फिर गाड़ी को तीन बार आगे पीछे किया गया। उसके बाद गाड़ी में बैठी सीमा अपने ससुराल चली गई थी।
भवेश भी किसी और अतिथि के साथ अपने घर आ गया था।
कुछ दिन घर पर भी मन नहीं लग रहा था। सीमा का रोता चेहरा उसको परेशान कर रहा था। धीरे धीरे अपने दुनिया में भवेश लौट चुका था। इसके बाद सीमा का कोई हालचाल नहीं पता लगा था।भवेश सब भूल गए थे। आज चालीस वर्ष के बाद यह मैसेज उनके सारे यादों को तरोताजा कर दिया।
अब दोनों लोगों का वाट्सएप्प पर वार्ता का क्रम शुरू हो गया था। जब जिसको समय मिलता, एक दुसरे से बातें कर लेते थे।
सीमा की मां और पिता दोनों स्वर्गवासी हो चुके हैं। भाई- भौजाई और बहन- जीजा सभी अपने दुनिया में व्यस्त हैं। सीमा के लिए उनके पास समय नहीं है।कभी कोई फोन तक नहीं आना जाना तो दूर की बात है। सीमा एकतरफा शुरू में घर के लोगों को फोन करती थी बाद में फोन करना इसने भी छोड़ दिया। एक तरफ का संबंध कभी चला है? कोई आपसी लड़ाई भी नहीं है, लेकिन आना जाना बंद है।
सीमा को एक बेटा बेटी है। बेटी फैशन डिजाइनिंग करके विदेश में रह रही है। उसने खूद अपना जीवनसाथी चुना है। सीमा दूबारा यह गलती नहीं करना चाहती थी।इस शादी को लेकर, सीमा के पति प्रसन्न नहीं हैं। वो अभी तक इस संबंध को नहीं स्वीकार किये हैं। अभी तक बेटी के घर पर नहीं गये हैं। सीमा इस विषय पर, अपने पति के विचार का परवाह नहीं किया। खुद वर्ष दो वर्ष पर विदेश, बेटी के यहां जाती आती रहती है। अब सीमा के पति रिटायर भी हो चुके हैं। कंसल्टेंट का काम बंबई में शुरू कीये हैं।बेटा बैंक में नौकरी कर रहा है। उसी के लिए लड़की खोज रही है।
इसके बाद भवेश की बारी थी। बानुछापर वाला भवेश के पिता का मकान बिक चुका है। उसी पैसा से भवेश के दोनों भाई, दूसरे शहर में घर खरीदे हैं। भवेश के मां पिताजी जो सारा जीवन कभी गांव नहीं गये, बुढ़ापा में दोनों लोग गांव में ही रह रहे हैं। भवेश एक नौकरी से दूसरी नौकरी करते करते, बिदेश में रह रहे हैं। गांव के अलावा, कहीं और घर नहीं बना पाए हैं। बच्चे अभी छोटे हैं और यहीं विदेश में पढ़ रहे हैं।बदली वाला नौकरी का शौक था, सो अब जान का जपाल हो गया है। पहले शहरे शहर, अब देशे देश भागा भागा फिर रहे हैं।
फिर मुसरी का हाल सीमा ने पुछा? एक बार तो भवेश जवाब देने में सकपका गये थे। लंबा सांस छोड़ते हुए बोले-
"कोई संपर्क नहीं है। ठीक ही होगा"।
सच्चाई तो यह था कि सीमा के शादी के तीन चार वर्ष के बाद ही, बसंत के ह्रदय में कोई बीमारी हो गई थी। पटना से डाक्टर ने वेल्लोर रेफर किया था। घर में अर्थ के अभाव के कारण गांव के पास ही एक बैद्यजी का इलाज चलता रहा। छह महीना बीतते बीतते, बसंत इलाज के अभाव में अपने गांव में ही दम तोड़ दिया था।
सीमा बात करने के बाद बहुत ही खुश थी।
उसने कहा-
"है ही नहीं रहा है जो मायके में नहीं हूं। "
भवेश ने जवाब दिया-
" हां हां । आप मायके से ही बात कर रही हैं।ललन चाचाजी चले गये तो क्या हुआ। हम आपके भाई तो हैं। आपका मायका हमेशा के लिए मेरे घर में आबाद रहेगा। "
भवेश का स्नेह देख कर सीमा के आंखों से आंसू बरसने लगा। उसने बोला -
" किसी चीज की कमी नहीं है और ना ही कुछ चाहिए। बस इसी स्नेह के लिए, मन इधर उधर बेचैन था। इसी कारण बड़े दिनों से आपको खोज रही थी। "
सीमा को " अपने लोग," आज मिल गये थे। आज भी आंसुओं की बौछार निकल रही है ये आंसू खुशी का है, बहने दो आज इसको बड़े दिन से जमा था।
