अपने अपने हिस्से की धूप

अपने अपने हिस्से की धूप

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एक छोटे से स्टेशन पर गाड़ी रुकी तो सामने ही गुमटी पर चाय बनती देखकर अभिनव नीचे उतरा। अपना छोटा सा बैग उसने हाथ में ही ले लिया था। चाय पीकर जैसे ही पैसे निकालने लगा, गाड़ी सरकने लग गई। चाय वाला चिल्लाया-


“पैसे रहने दो बेटा, जल्दी जाओ”


अभिनव बदहवासी में दौड़ लगाकर जैसे ही चढ़ा, पीछे से किसी का धक्का लगा और हाथ से बैग छूटकर वही गिर गया। गाड़ी ने गति पकड़ ली थी, वो तुरंत कूद पड़ा तो पैर में मोच आ गई और वो पैर पकड़ कर कराहने लगा। उसके लिए जितना ज़रूरी शहर जाना था, उतना ही उस बैग की हिफाज़त करना, क्योंकि उसमें काफी कैश रकम थी। उसकी यह हालत देखकर एक अधेड़ उम्र के भले इंसान ने उसका बैग लाकर दिया और फिर उसे सहारा देकर समीप ही एक बेंच पर बिठाया। बैग सही सलामत पाकर उसकी जान में जान आई। उसने उस भले मानस का धन्यवाद किया और चिंतातुर होकर इधर-उधर देखने लगा। गाड़ी चली गई थी, रात के दो बजे अब वो कहाँ जाए और शहर कैसे पहुँचे, उसे समझ में नहीं आ रहा था। अधेड़ व्यक्ति उस १७-१८ वर्षीय सुदर्शन किशोर की परेशानी देखकर उसके निकट ही बैठ गया और उसके पूछने पर बताया कि उस स्टेशन से शहर जाने वाली दूसरी गाड़ी चार बजे वहाँ से गुज़रेगी और उसे टिकट खरीदकर यहीं इंतजार करना पड़ेगा।


“ठीक है अंकल, आपका बहुत धन्यवाद, मैं टिकट लेकर आता हूँ”


टिकट लेकर अभिनव वहाँ आया तो वो व्यक्ति उसे वही बैठा हुआ मिला।


“आप भी अपनी गाड़ी का इंतजार कर रहे होंगे न अंकल कहाँ जाना है आपको?” बेंच पर बैठते हुए अभिनव ने पूछ लिया।


“नहीं बेटे, मुझे कहीं नहीं जाना, यह प्लेटफोर्म ही मेरा रैन बसेरा है। तुम्हारी गाड़ी आने में दो घंटे और है, तब तक मैं तुम्हारे साथ ही रहूँगा। कुछ अपनी सुनाओ, फिर कुछ मेरी सुनना”


“जी अंकल, समय कटने के साथ मेरा मन भी बहल जाएगा”


“तुम्हारा नाम क्या है बेटे, तुम्हारे घर में और कौन कौन है और शहर किसके पास जा रहे हो?”


“मेरा नाम, अभिनव है। मेरा जन्म गाँव में नाना-नानी के घर हुआ। वही पढ़-लिखकर बड़ा हुआ। घर में हम चारों के अलावा चार नौकर भी रहते है। मैं माँ को लेने शहर जा रहा हूँ अंकल, उन्हें पैर फिसलकर गिरने से सिर में अंदरूनी चोट आई थी और गाँव में सही इलाज न होने से शहर ले जाना पड़ा। एक सप्ताह पहले ही मेरे नाना-नानी तीर्थाटन के लिए निकल गए है। मेरी स्कूल की परीक्षाएँ चल रही थीं इसलिए माँ के साथ घर के नौकर शम्भू काका को छोड़ आया था। एक सप्ताह हो चुका है उन्हें अस्पताल में भरती हुए और आज छुट्टी मिलने वाली है”


“बेटे, तुम्हारे पिता क्या करते है? ”


“मेरे पिता कौन है, कहाँ है? यह बात जब मैं छोटा था तो माँ नहीं बताती थीं, बस रोने लगती थीं। लेकिन जैसे-जैसे बड़ा होता गया मेरी जिज्ञासा बढ़ती गई, बार बार पूछने पर आखिर माँ ने अपनी सारी कहानी सुनाई कि कैसे वे अपनी सुख-सुविधा और मेरी अच्छी परवरिश की खातिर पति का घर छोड़कर अपने पिता के साथ रहने लगीं। सुनकर मुझे माँ की इस स्वार्थी करतूत पर बहुत क्षोभ हुआ, मैं पहली बार माँ के सामने ऊँची आवाज़ में बोला-


“माँ, मुझे दौलत नहीं पिता चाहिये। हमें हर हाल में उनके साथ जाकर रहना चाहिए, मैं अपने बूते पर शहर जाकर खूब पढूँगा और सुख सुविधाएँ जुटाऊँगा”


सुनकर माँ की आँखों में आँसू उमड़ आए, बोलीं-


“बेटे, मैं स्वयं उनका साथ चाहती थी, पता नहीं क्यों मेरी मति भ्रष्ट हो गई थी। माँ-पिता तो मुझे दूसरे विवाह के लिए मनाने लगे थे। वे मुझे अपने सामने अभावों से जूझते नहीं देखना चाहते थे। आखिर यह सारा साम्राज्य उन्होंने मेरे लिए ही तो स्थापित किया था न, लेकिन मैंने साफ इनकार कर दिया था। मुझे विश्वास था कि एक दिन तुम्हारे पिता अपना निर्णय बदल देंगे। क्योंकि जाते-जाते वे कह गए थे कि वे कभी दूसरा विवाह नहीं करेंगे। यह समय तो बस एक दूसरे का मन बदलने के इंतजार में गुज़र गया। अभी भी देर नहीं हुई बेटे, उनका हृदय विशाल है। वे भी मेरा इंतजार कर रहे होंगे और मुझे ज़रूर माफ़ कर देंगे।


“फिर तुमने अपने पिता से मिलने का प्रयास तो किया होगा?”


“नाना-नानी से सहमति लेकर माँ ने मुझे शम्भू काका के साथ अपनी ससुराल के गाँव भेजा था अंकल, इस सन्देश के साथ कि वे हमें माफ़ कर दें और आकर अपने साथ ले जाएँ लेकिन उनके घर पर ताला लगा हुआ था। पड़ोसियों से पूछने पर पता चला कि लगभग ३-४ वर्ष पहले, अपनी माँ की मृत्यु के बाद वे घर छोड़कर कहीं चले गए, फिर वापस नहीं आए।


उस दिन के बाद मैंने माँ को कभी हँसते मुस्कुराते नहीं देखा। आज भी जब उन्हें पिताजी की याद में हर दिन आँसू बहाते देखता हूँ तो मन भर आता है। मैंने उनसे वादा किया है अंकल कि एक दिन उन्हें अवश्य खोजकर ले आऊँगा। उनकी तस्वीर हमेशा जेब में लेकर चलता हूँ। हर व्यक्ति पर मेरी खोजी नज़र होती है। इतने वर्षों में वे निश्चित ही काफी बदल चुके होंगे फिर भी कुछ निशानियाँ तो शेष होंगी ही। मिल गए तो उन्हें हाथ जोड़कर घर चलने की विनती करूँगा, उन्हें बताऊँगा कि माँ आज भी उनका इंतज़ार करती है”


अभिनव की कहानी सुनकर उस व्यक्ति को झटका सा लगा, शंका दूर करने के लिए उसने पूछा-


“तुम्हारे गाँव का नाम क्या है बेटे, क्या तुम अपनी माँ के इकलौते बेटे हो?”


“जी अंकल, मैं अपनी माँ का इकलौता बेटा हूँ और मेरे गाँव का नाम प्रीतमपुर है”


“और पिता का नाम?” धडकते दिल से व्यक्ति ने पूछा।


“प्रेम मोहन”


“अच्छा, तुम्हारी माँ की ससुराल किस गाँव में है?”


“विष्णुपुरा ग्राम”


अभिनव प्रेम मोहन विष्णुपुरायानी, मैं ही इस युवक का पिता हूँ, वो मन ही मन बुदबुदाया।


आगे अभिनव के होठों ने आगे जो कहा यह प्रेम मोहन के कानों ने नहीं सुना, क्योंकि समय ने पीछे की ओर लम्बी छलाँग लगाकर उसके मस्तिष्क को उन पलों में पहुँचा दिया था, जहाँ उसके उत्तमा के साथ देखे हुए सपनों ने जन्म लेते ही दम तोड़ दिया था।


वो अपने माँ-पिता की इकलौती संतान था। पिताजी विष्णुपुरा गाँव के जाने माने जमींदार थे। माँ एक सीधी-सादी घरेलू महिला थी। गाँव में कालेज न होने से और पढ़ाई में अधिक रुचि न होने के कारण स्कूली शिक्षा के बाद वो पिताजी के साथ ज़मींदारी के काम में ही हाथ बंटाने लगा था। जल्दी ही उसका रिश्ता पड़ोसी गाँव प्रीतमपुरा के ज़मींदार की बेटी उत्तमा से तय हो गया। रिश्ता बराबरी का था और सुन्दर, सुशील उत्तमा हर तरह से उसके योग्य थी। शादी के बाद नाम के अनुरूप गुणों की खान उत्तमा ने अपने व्यवहार से सबका दिल जीत लिया था। लेकिन उस घर में बाहर से माहौल जितना सुव्यवस्थित दिखता था, अन्दर ही अन्दर उसमें कई छिद्र हो चुके थे जिनसे माँ की बेबसी और पिताजी का अतिचार स्पष्ट नज़र आता था। माँ ने सरल, समझौता पसंद स्वभाव की महिला होने से घर के इन छिद्रों को अपने सब्र के पैबंद से ढँक कर रखा था, लेकिन घर में एक खतरनाक तूफ़ान आने की तैयारी हो चुकी थी।


पिताजी उस चढ़ती उम्र में एक विधवा महिला से दिल लगा बैठे थे। वो महिला दोनों हाथों से पिताजी को लूटती रही। बाद में विवाह के लिए दबाव बनाने लगी और ऐसा न करने पर उसने गाँव वालों के सामने सारी पोल खोलने और माँ को सब बताने की धमकी दी।


तंग आकर पिताजी ने सारी बात माँ को स्वयं बताने का फैसला किया और भविष्य में उस महिला से कभी कोई सम्बन्ध न रखने की कसम खाकर माँ से माफ़ी माँग ली। माँ ने तो उन्हें माफ़ भी कर दिया लेकिन कुदरत ने उन्हें माफ़ नहीं किया। उस महिला ने पिताजी के विवाह से साफ इनकार करने पर उन पर बलात्कार का आरोप लगाकर थाने में केस दर्ज करा दिया। पिताजी ने अपनी बेइज्ज़ती से बचने के लिए ज़हर खाकर आत्महत्या कर ली। ये सारी बातें उसे पिताजी के उनके नाम लिखे पत्र से मालूम हुई। उनके तकिये के नीचे उनके हस्तलिखित दो पत्र मिले थे। एक पत्र में लिखा था-


“मैं अपनी मौत का ज़िम्मेदार स्वयं हूँ, इसके लिए किसी को परेशान न किया जाए” दूसरा पत्र उसके नाम था जिसमें उन्होंने अपनी बर्बादी की पूरी कहानी विस्तार से लिखी थी, अंत में ये शब्द थे-


“बेटे प्रेम, मैं तुम्हारा और तुम्हारी माँ का गुनाहगार हूँ, उस औरत के चक्कर में मैंने अपने हाथों से अपना आशियाना बर्बाद कर दिया। प्रायश्चित करना चाहा तो कुदरत ने मुझ पापी को यह अवसर भी न दिया। मेरी लगभग सारी सम्पति गिरवी रखी हुई है। लेकिन तुम हिम्मत न हारना और उसे बेचकर क़र्ज़ चुकाने के बाद जो कुछ भी बचे उससे अपने लिए नया काम शुरू करके नई ज़िन्दगी की शुरुआत करना। तुम्हारी माँ बहुत सीधी और सरल है, मुझसे उसे कोई सुख नहीं मिला। उसकी जवाबदारी भी मैं तुम पर छोड़ता हूँ। उसका पूरा ध्यान रखना और कभी अपने से दूर न करना। हो सके तो मुझे माफ़ कर देना”


-तुम्हारा बदनसीब पिता


उसने पुलिस के आने से पहले वो पत्र छिपा लिया था। अब उसके ऊपर बहुत सी जवाबदारियाँ थीं। विवाह को केवल ४ माह ही हुए थे। उत्तमा के पिता मातमपुर्सी के लिए आए तो माँ से बेटी को कुछ समय अपने साथ ले जाने की अनुमति माँगी। वे हमारी बर्बादी की पूरी कहानी से वाकिफ हो चुके थे। माँ तो अपने आपे में ही नहीं थीं उन्होंने उसकी तरफ इशारा कर दिया था। उसे ससुर जी का प्रस्ताव उचित लगा था। उत्तमा दो माह से गर्भवती थी, उसने पत्नी के आराम के विचार से ससुरजी के साथ भेज दिया था।


माँ के सामान्य होने और परिस्थितियों के अनुकूल होने में दो महीने गुजर चुके थे। इस बीच बहुत कुछ ख़त्म होने के बाद भी काफी कुछ शेष था। उसे मकान से बेदखल नहीं होना पड़ा और पिताजी का सारा क़र्ज़ चुकाने के बाद शेष बची रकम से उसने एक छोटी सी किराने की दुकान खोल ली थी। इसके बाद माँ के कहने पर वो उत्तमा को लेने ससुराल गया। वहाँ ससुर जी ने खूब स्वागत सत्कार किया, फिर घर गृहस्थी के हालचाल पूछने के बाद मौका देखकर उत्तमा की उपस्थिति में ही कहा था-


“प्रेम बेटे, तुम जानते हो कि उत्तमा मेरी इकलौती बेटी है और वही मेरी सारी सम्पति की वारिस भी। वो तुम्हारे साथ इतना कठिन जीवन व्यतीत नहीं कर पाएगी। मैं चाहता हूँ कि तुम अपनी माँ को शहर के एक अच्छे वृद्धाश्रम में भर्ती करके यहाँ आकर मेरा कारोबार सँभालो। इसके लिए रकम की सारी व्यवस्था मैं कर दूँगा”


वो यह सुनकर सकते में आ गया था और कहा था-


“पिताजी, मैं अपनी माँ को कभी खुद से दूर नहीं करूँगा वो मेरी पहली ज़िम्मेदारी है। उत्तमा मेरी पत्नी है, मेरे साथ रहकर वो कभी दुखी नहीं हो सकती। मैं उसे भी प्रसन्न रखने का पूरा प्रयास करूँगा” कहते हुए उसने एक नज़र पत्नी पर डालकर पूछा था-


“तुम क्या चाहती हो उत्तमा?”


“आपको पिताजी का प्रस्ताव मान लेना चाहिए। मैं अभावग्रस्त जीवन जीने की आदी नहीं हूँ प्रेम और हमारे साथ हमारी संतान की अच्छी परवरिश की ज़िम्मेदारी भी हम पर है, आखिर यह सब हमारा ही तो है”


“ठीक है, अगर तुम भी यही चाहती हो तो मैं जा रहा हूँ। मैं नहीं जानता था कि सुख-सुविधाएँ तुम्हें मुझसे अधिक प्यारी है। आज के बाद मैं यहाँ कभी नहीं आऊँगा, पर तुम्हें जब भी अपने निर्णय पर पछतावा हो, तो बेहिचक मेरे पास आ सकती हो। मैंने तुम्हारी दौलत से नहीं तुमसे विवाह किया है और कभी दूसरा विवाह नहीं करूँगा। तुम्हारे लिए मेरे घर और दिल का द्वार हमेशा खुला रहेगा” इतना कहकर वो वापस चला आया था।


माँ के पूछने पर उसने वृद्धाश्रम वाली बात छिपाकर बाकी सब बताते हुए कहा था कि उत्तमा अब यहाँ कभी नहीं आएगी।


कुछ महीनों बाद ससुराल से उनके नौकर द्वारा पुत्र-जन्म का सन्देश आया, शायद इस उम्मीद के साथ कि वो अपना निर्णय बदल देगा, पर वो अपनी बात पर अडिग था। दोनों तरफ उसकी ज़रूरत थी और जवाबदारी भी। लेकिन माँ का पलड़ा निश्चित ही भारी था।


इस तरह १०-१२ वर्ष गुज़र गए। माँ भी आखिर कब तक ज़ख्म सीने पर लिए जीती, एक बार उसने बिस्तर पकड़ लिया तो फिर नहीं उठ सकी। उस पर दूसरे विवाह का भी दबाव बनाया था लेकिन उसने साफ़ इनकार कर दिया था। उसे विश्वास था कि उत्तमा एक न एक दिन ज़रूर पछताएगी और उसके पास वापस चली आएगी। अब तो उसका पुत्र भी काफी बड़ा हो चुका होगा, शायद अब पर वो दिन कभी नहीं आया और माँ भी उसे रोता बिलखता छोड़कर हमेशा के लिए चली गई।


अब वो अपने जीवन से पूरी तरह हताश हो चुका था, आखिर अकेला किसके लिए संघर्ष करता। माँ के जाने के बाद उसका मन उस गाँव में नहीं लगा। उत्तमा के आने का भी कोई आसार नहीं था। उसने अब किसी दूसरे ठौर पर रहकर अपना जीवन दुखियों की सेवा में अर्पण करने का व्रत लिया और उसके कदम रेलवे स्टेशन की और चल पड़े थे। सामने जो गाड़ी तैयार दिखी वो उसमें चढ़ गया था, उस गाँव की स्मृतियों से दूर जाने के लिए। टिकट चेकर आया तो उसे बिना टिकट पाकर इस स्टेशन पर उतार दिया था। गनीमत यह हुई कि उसके रोने गिड़गिड़ाने पर शरीफ समझते हुए पुलिस को नहीं सौंपा। तब से आज तक वो इसी स्टेशन पर छोटे मोटे कार्य करके जीवन यापन कर रहा है। भूले भटके इंसानों की सहायता करके उसे आत्मिक शांति मिलती है।


अतीत से वर्तमान में लौटते ही वो सोचने लगा, अभि ने सिर्फ माँ का दर्द देखा है। काश! वो मेरे दिल में भी झाँक सकता तो जान जाता कि उनकी जुदाई में उसकी कितनी रातें रोई है, आँसुओं के कितने सैलाब उमड़कर उसकी नींदें बहा ले गए और अब इन आँखों की कोरों में थोड़ी भी नमी शेष नहीं। आखिर पुरुष भी एक इंसान ही होता है, पाषाण नहीं, शायद खुदा की खुदाई उसके आँसुओं के उस सैलाब में डूबने लगी होगी तभी तो उसने इतनी खूबसूरती से उनके मिलन की व्यवस्था कर दी।


सोचते सोचते भावातिरेक से अचानक उसकी हिचकियाँ बंध गई। स्टेशन के उस हिस्से में काफी अँधेरा होने से अभिनव न तो उसका चेहरा ठीक से देख सका था न ही उसके हाव भाव जान सका।


सहसा वो बोल पड़ा-


“अरे अंकल, आपको क्या हो गया? आप ठीक तो है न? मेरी चिंता आप बिलकुल न करें। देखिये, मेरी गाड़ी आने की घोषणा हो गई है और मैं जा रहा हूँ। इतने समय साथ देने का बहुत-बहुत धन्यवाद”


“रुको अभि, मैं भी तुम्हारे साथ चल रहा हूँ, अपनी उत्तमा को लेने। नियति के नियोजित घटनाक्रम के घेरे को तोड़ने की शक्ति किसी इंसान में नहीं होती। बेटे हम सबने अपने-अपने हिस्से की धूप झेल ली है और अब हमें एक दूसरे की छाँव की ज़रूरत है”


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