आपबीती
आपबीती
बात सन २००८ की है जब मेरा दाखिला बुंदेलखंड यूनिवर्सिटी में डी.फार्मा के विद्यार्थी के रूप में हुआ था । मेरी स्कूली शिक्षा हिंदी माध्यम से हुई, सारा कोर्स अंग्रेज़ी में था और जो शिक्षक थे वह भी अंग्रेज़ी में पढ़ाते थे, शुरुआत के ३-४ दिन सिर के ऊपर से निकल गया । सहसा एक दिन अध्यापक महोदय से कक्षा में खड़े होकर बोल ही दिया- सर बीच बीच मेँ हिंदी में भी समझा दीजिये, समझ नहीं आ रहा ।
सर थोड़ी देर चुप रहे फिर हिंदी में बोले- "इतने दिनों से तुम लोग बोले क्यों नहीं कि समझ नहीं आ रहा पूरा इंग्लिश में । अब वो लोग हाथ उठाओ जो अंग्रेज़ी से पढ़े हैं 12th ।" आप यकीन नहीं मानेगें कि सिर्फ २ लड़कियों ने हाथ उठाये कि उनकी स्कूली शिक्षा अंग्रेजी माध्यम से हुई है । तब सर ने कहा - "मैंने इतने दिनों में जो भी पढ़ाया क्या हिंदी वाले बच्चे उसे समझा सकते हैं ? हममे से एक भी विद्यार्थी नहीं खड़ा हुआ ।" सर भी समझ गए बोले "जब समझ नहीं आ रहा था तो बोलना चाहिए ना। आगे से जो भी पढ़ाऊँगा, हिंदी में बता दूँगा लेकिन पढ़ना तुम लोगों को अंग्रेज़ी में है । पेपर अंग्रेज़ी में ही आएगा और अंग्रेज़ी पढ़ने समझने की कोशिश शुरू करो, अब तुम्हें हिंदी नहीं मिलेगी कहीं ।" फिर क्या था अंग्रेज़ी हिंदी का मिश्रण पढ़ाया गया और शुद्ध अंग्रेज़ी में परीक्षाएं हुई और मैं बहुत अच्छे नंबरों से प्रथम श्रेणी में पास हुई । सर का शुक्रिया अदा हम लोग आजतक करते हैं कि बहुत अच्छे सर थे जिन्होंने हमारी परेशानी को समझा वरना पूरी कक्षा फेल हो जाती ।
अंग्रेज़ी के गुलामी घोड़े बनकर दौड़ रहे थे कि कुछ महीनों कॉलेज के मुख्य गेट पर Department of Pharmacy के नीचे " भैषज़िक विज्ञान " लिखा मिला । कॉलेज के २-४ नहीं बल्कि सारे विद्यार्थी एक बार फिर सोच में कि ये क्यों लिखा ? क्या फार्मेसी को ये बोलते हैं ? अब सोचिये इतनी बड़ी यूनिवर्सिटी के फार्मेसी विभाग के बच्चों को ये नहीं पता कि हिंदी में फार्मेसी को कहते क्या है ?
उस दिन एहसास हुआ कि ना तो हम हिंदी के ज्ञानी हैं ना ही अंग्रेज़ी के विद्वान बल्कि बीच मझधार में फंसे ऐसे समाज के लोग हैं जिन्हें अल्पज्ञानी कहा जा सकता है । सिर्फ मैं ही नहीं हमारी समाज का प्रत्येक व्यक्ति अल्पज्ञानी है, क्योंकिं हिंदी पर राज करने की हिम्मत नहीं और अंग्रेज़ी की गुलामी कर रहे हैं । फिर भी जोश में मदहोश हैं घोड़े की तरह, बस दौड़ रहे हैं तेज़ी से ।
एक तहे दिल से शुक्रिया अदा तो मुझे अपनी 11-12 वीं की शिक्षिका पूनम साहू मिस का करना चाहिए । बचपन से हिंदी मेरी अच्छी रही, अपनी मां की वजह से । लेकिन
है और हैं में क्या फर्क है ? मैं और में , रहे थे और रहे हैं में क्या फर्क है ?
यह सब सिखाया मेरी हिंदी की शिक्षिका पूनम साहू मिस ने । जिनका पूरी कक्षा मज़ाक बनाती थी, जिनको कक्षा के वह बच्चे माता बोलते थे जो उसी नगर के थे जबकि आस पास के इलाकों से आने वाले हम बच्चे उन्हें सम्मान से देखते थे क्योंकिं एक नगर से दूसरे नगर स्कूल बस से जो जाते थे । मेरा हिंदी के प्रति लगाव देखकर उन्होंने मुझे शुद्ध हिंदी लिखनी सिखाई और मैं उनकी पसंदीदा विद्यार्थी हुआ करती थी, जो शैतानियों में अव्वल थी और कभी डांट नहीं खाती थी उनसे । मेरी कक्षा के हिंदी बच्चों को हिंदी पसन्द नहीं थी और अंग्रेज़ी ने सबका बेड़ा गर्ग करके रखा था। जितनी पूनम मिस परेशान थीं उतनी ही अंग्रेज़ी की शिक्षिकाएं सिस्टर लोरना और रूचिरा तिवारी मिस थीं ।
यही हाल होता है जब ना घर के रहते हैं ना ही घाट के । हिंदी मीडियम वालों को कॉलेज में आते ही अंग्रेज़ी का गुलाम बनना पड़ता है जबकि अंग्रेज़ी माध्यम से स्कूली शिक्षा करने वाले शुरू से ही गुलाम बन चुके होते हैं । जिनके सामने हिंदी में गिनती के शब्द बोल दो तो उनकी समझ में नहीं आता कि क्या बोला गया है ।
