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तिमिर से उजाले की ओर एक सोच

तिमिर से उजाले की ओर एक सोच

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हमसे कभी किसी ने नहीं पूछा

की मेरे ज़हन पे क्या बीती है,

न माँ-बाप, न भाई-बहन,

न ही इस बेअदबी समाज ने,

बस हमको छोड़ दिया

हमारे उलझे हालातों पे

हमसे कभी किसी ने नहीं पूछा


हमको सबने

बेबसी, लाचारी और सहानुभूति

की नज़र से देखा

खेलते रहे हमारी भावनाओं और जज्बातों से

तोड़ा हमको हर मोड़ पे

छोड़ा हमको हर राह पे

हमसे कभी किसी ने नहीं पूछा


लेकिन अब हम नहीं रुकने वाले

अब नही हम झुकने वाले

लड़ते-गिरते हमने उठना सीखा है

अब कोई बाधा हमें जकड़ नहीं सकती

इस संघर्ष से भरे मुहिम में

इस तिमिर समाज को चुनौती देती है

हमारी ये सफेद केन


समावेशीकरण चाहिए

न कि एक अलग से स्पेशल टैग

दिव्यांग शब्द ने तो शर्मसार किया

निःसकता ने बर्बाद

आओ सीखा दें इस दुनिया को एक नया पाठ

बराबरी की हम बात करें

एक नए डिस्कोर्स की ओर बढ़ें

प्रेम और सद्भावना के साथ।


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