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Ashish Sharma

Abstract

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Ashish Sharma

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सफर

सफर

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मंजिल की चाह में उठा था सफर को मैं, 

राह पर जब चला तो खो-सा गया।

इस कच्ची डगर पर संभलना मुश्किल था,

बिना किसी मैल के फिर भी

धूल-धूसरित हो गया।

मंजिल की चाह में उठा था सफर को मैं, 

राह पर जब चला तो खो-सा गया।


चंद लोग मिले जो लौट कर आ रहे थे, 

कहते सफर बहुत लंबा है,

मुश्किलों से भरा है।

दास्ताँ सुनकर उनकी,

मन उचाट हो गया, 

पहचान बनाने निकला था,

अपनी पहचान खो गया।

मंजिल की चाह में उठा था सफर को मैं, 

राह पर जब चला तो खो-सा गया।


हर राह की मंजिल होती है, 

हर रात की इक सुबह होती है।

यह सोचकर फिर सफर शुरू हो गया, 

हल्की फुहार के बाद 

आकाश साफ हो गया।

मंजिल की चाह में अब

जो उठा सफर को मैं,

राह पर जब चला तो चलना आसान हो गया।


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