सबक जिंदगी का
सबक जिंदगी का
एक भी आंसू न कर बेकार
जाने कब समंदर मांगने आ जाए
पास प्यासे के कुआं आता नहीं
यह कहावत है पर अमर वाणी नहीं
जिसके पास स्वयं देने को कुछ भी नहीं
ऐसा यहां एक भी प्राणी नहीं
कर स्वयं हर जीत का श्रंगार
जाने कौन सा , देवता को भा जाए
चोट खाकर टूटते हैं सिर्फ दर्पण
पर आकृतियां कभी टूटती नहीं
आदमी से रूठ जाता है सभी कुछ
पर समस्याएं कभी आदमी से रूठती नहीं
हर छलकते आंसू को कर प्यार
जाने कौन सा आत्मा को नहला जाए
व्यर्थ है करना खुशामद रास्तों की
काम अपने पांव ही आते सफर में
वह क्या उठेगा?
जो स्वयं गिर गया अपनी ही नजरों में
कर हर लहर का प्रणय स्वीकार तू
जाने कौन तट के पास पहुंचा जाए
व्यर्थ ना कर एक भी पल जिंदग
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पहरा है बैठा हर पल पर मौत का
जाने कौन सा पल जिंदगी का आखरी हो
इसलिए तू हर पल को जी भर के जीना सीख ले
जिंदगी को मौत के तराजू में तोल ना सीख ले
खुद को कर तू बुलंद इतना
मन में है तेरे डर जितना
कर गुजर हर काम वो तू
डरता था जिसको करने से तू
वक्त की हर चाल का तू मुंहतोड़ जवाब दे
आज तू अपने आंसुओं का पूरा पूरा हिसाब ले
पैर में पड़ी बेड़ियों को आज तू खोल दे
रोक दे उन आंसुओं को
बांध कर रखा है जिसने तेरे मन को
खोल दे सब ताले मुश्किलों के
कर दे तू आजाद खुद को बंदिशों से
ले जा तू खुद को उन बुलंदियों पर
पास तेरे आना सके मुश्किलों का काफिला
वक्त की नजाकत को समझने की तू देर ना कर
वरना तू खड़ा यहीं रह जाएगा
और वक्त तुझसे भी आगे चला जाएगा।