पिंजरे का मेहमान
पिंजरे का मेहमान
परिंदे भी हैरान हैं,
उनका सबसे बड़ा शत्रु,
आज खुद पिंजरे का मेहमान है ।
सब रास्ते उजाड़ हैं,
ना धुआं है, ना शोर कोई,
हो गया जैसे जनपद का घान है ।
सब जीव हैं व्याकुल,
शाखाओं पर बैठे रहे हैं सोच,
आखिर कहां चला गया इन्सान है ।
जो थे कभी सम्राट,
इन विराट महल- मीनारों के,
हो गए हैं आज विवश,
चार अंगुल कपड़ा बांधने को,
अपने ऊंचे नाको पर ।
मुठ्ठी भर ज्ञान पर इतराता,
सोचता मुझ पर आश्रित यह संसार है,
जब कुदरत हिसाब है करती,
तोह बौना पड़ता इन्सान है ।
जूते जो उतारता था श्रद्धालु,
मंदिर में प्रवेश से पहले,
करता था स्नान वेदवत,
हर भोजन से पहले,
कहती थी दुनिया देखो,
पिछड़ा हिन्दुस्तानी यह गवार है,
शुचि को देना प्राथमिकता,
यही इस धरती का संस्कार है ।
जब ठन आयी चांडाल रूपी विपदा,
ढूंढ़ता शास्त्रों में समाधान है ।
तिरस्कृत थे जो वर्षों से,
देखता उनकी और अब रख आस है,
कितना रहस्यमयी इन्सान है ।
