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हनुमंत hanumant किशोर kishor

Abstract

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हनुमंत hanumant किशोर kishor

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पांव

पांव

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जानेमन 

तुम्हारे पाँव बहुत खूबसूरत हैं

नरम गलीचे पर नही

तुम रखती हो इन्हे 

खुरदुरी पथरीली ज़मीन पर

तुम्हारे चेहरे से नहीं

तुम्हारे पाँवो से खुलते हैं

तुम्हारी ज़िंदगी के राज़


.इन्हे देखकर ही समझा जा सक है

कि समय की शिला पर

 चेहरे नहीं, क्यों दर्ज़ होते हैं पांव ?

और कैसे कुछ चेहरों की कागज़ी खूबसूरती के लिये

क्यों बेहद बदसूरत होना पड़ता है कई कई पाँवों को ?


जानेमन 

तुम्हारे पांवों मिलती हैं मौसम की सब निशानदेही 

जैसे बिवाइयों की दरारों में छिपा होता है ठिठुरता माघ

अँगुलियों के बीच ग़लती चमड़ी

गवाही देती है रसोई में घुसे बारिश के पानी की.. 

फूटते हैं जब पाँवों के छाले तो

कुछ तो जुड़ा जाती होगी

जेठ में धरती की तवे सी तपती पीठ


जानेमन 

तुम्हारे पाँव असमाप्त कविताएँ हैं

जो संघर्ष के एक सिरे से संघर्ष के

दूसरे सिरे तक अविराम फैली हैं


तुम्हारे पाँवो के जरिये 

कुदरत मौत का विलोम रचती है ....

मज़ाक में न लो इसे तो कहूँ

ज़िंदगी पे जब भी प्यार आता है बहुत 

इन्हे चूमने को जी होता है बहुत।


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