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नीलू शुक्ला

Abstract

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नीलू शुक्ला

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नारी

नारी

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यकीनन !

मैं नारी हूँ।

सुनों पुरुष,तुमसे नहीं,

मैं अपने कर्तव्यों के सम्मुख हारी हूँ। 

तुम्हारी भूल है,कि मैं बेचारी हूँ,

सुनो!पुरुष..

मैं तुम्हारी माँ हूँ, बहन, बेटी हूँ, 

संस्कारों से बंधी, घर की धुरी हूँ। 

यकीनन!

मैं नारी हूँ। 


कहो ! पुरुष...

क्यों नारी मन को छलनी करते हो ? 

और अपनी कमियों को पुरुषार्थ कहते हो। 

सदियों से मुझे खुद की जागीर समझते हो, 

कहते हो...

देखो, तुम करती ही क्या हो ? 

सुनो, पुरुष... 

मैं वो भी करती हूँ, 

जो तुम नहीं करते। 

यकीनन ! 

मैं नारी हूँ। 


हे! पुरुष 

मुझसे ही तुम्हारा वजूद है,

घर है परिवार है,

तीज है त्योहार है, 

बहन, बेटियों का साजो श्रृंगार है, 

और रसोई में महकते पकवान हैं। 

सुनों ! पुरुष.. 


तुमसे नहीं,

अपने दायित्वों के आगे हारी हूँ। 

यकीनन ! 

मैं नारी हूँ। 


अपनी ख़्वाहिशों को अनदेखा कर, 

तुम्हारी उम्मीदों को सहेजती, संवारती हूँ। 

यकीनन! 

मैं नारी हूँ। 


स्कूल आते-जाते, मेरे बच्चों में, 

उनके टिफिन और बस्तों में, 

उनके हँसने-रोने, और मनाने मे, 

कट्टी और पुच्ची में, 

लड़ने-झगड़ने, दोस्ती कराने मे, 

मैं ही तो हूँ। 

यकीनन! 

मैं नारी हूँ। 


हे! पुरुष..

तुम्हारे दफ्तर से आने पर, 

चाय हूँ, कॉफी हूँ,

तुम्हारा दिन भर का किस्सा, 

मैं ही बैठ के सुनती हूँ। 

यकीनन! 

मैं नारी हूँ। 


हे पुरुष..

सब दिन एक से नहीं होते, 

तुम्हारी खट्टी मीठी यादों मे, 

जीवन की मुश्किल राहों में, 

चली हूँ थामे हाथों में हाथ। 

यकीनन ! 

मैं नारी हूँ। 


सांझ की दिया बाती हूँ, 

बच्चों की कहानी हूँ, 

उनके जीवन के मूल्यों में, 

मैं ही तो हूँ। 

हे ! पुरुष... 

यकीनन मैं नारी हूँ।


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