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Karan Vir Singh

Abstract

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Karan Vir Singh

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नानी की गोद में

नानी की गोद में

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जानता था हालात घर के वो

कि क्या है घर में और क्या नहीं

रहता था शांत तकलीफ़ में अपनों की

देखकर ये सोचता था कि जरूरत में 

एक बूढ़ी माँ, जो नानी थी उसकी

कही भूखी न हो।


बात ये उस दिन की है

लगी भूख थी बच्चे को

दिन भी गर्मियों के थे वो

कहाँ उसने अपनी नानी को

दो मुझे कुछ खाने को

थी वो भी उसके संग ही भूखी।


था न उस दिन घर में कुछ 

सिवाए रात की सब्ज़ी के

पड़ा था दूध बस एक पाँव

उस घर के पतीले में

अवगत था वो हर हालात से

पर फ़िर भी भूख से परेशान था।


राह तकती बेटे का अपने

बूढा का भी दिल भी

हैरान था कि क्या

देगी वो नाती को अपने

जब ना आया बेटा देर तक

दिल उसका घबराया था।


पर ना मानती हार कभी वो

बूढ़ी नानी माँ वो उसकी थी

कैसे भूखा रखती बच्चे को

गयी रसोई में जाने को

भर पेट खुशियों को लाने को

लगी बनाने खाने को।


सच था ये था एक सपना सा

खाने में कुछ अपना सा

एक प्लेट थी रोटियां थी चार

दो भरे करेलों संग वो लायी थी

उस खाने के संग बचे दूध की

उसने कच्ची लस्सी भी बनाई थी।


अपने हाथों से जब बूढ़ा ने

बच्चे को जो खिलाया था

क्या होती है भूख और क्या 

होता खाना, उस दिन ने उसको

सिखलाया था, खाकर सोया वो

गोद में उसके, जिससे उसने सीखा जीना

जीवन के दुख में खुश होना

ये उसने ही सिखलाया था।


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